वैसे तो मैं जो
भी फिल्म देखता हूं उसकी दो से चार दिनों में यादें धूमिल हो जाती हैं और उसे
दोबारा देखने की इच्छा भी नहीं होती है। लेकिन पिछले दिनों रिलीज हुई इरफान खान और
सबा कमर की फिल्म हिंदी मीडियम देखने के बाद मैं इसे दोबारा देखने को मजबूर हुआ।
यह फिल्म हिंदी मीडियम से पढ़ाई करने वाले उत्तर भारत के उन तमाम युवाओं को छूती
नजर आ रही है जो हर दिन हर कदम पर अंग्रेजी से अपनी ही लड़ाई लड़ रहे हैं। इसके
अलावा प्राइवेट स्कूलों में सुप्रीम कोर्ट के शिक्षा का अधिकार पर दिए हुए फैसले
का कैसे मजाक उड़ रहा है और किस प्रकार अमीरों में अपने बच्चे को आगे ले जाने की
रेस है, इसको बेहद ही कॉमिक अंदाज में पेश किया गया है।
ये फिल्म इसलिए
भी खास बन जाती है क्योंकि इसकी लीड एक्ट्रेस पाकिस्तान से हैं। दरअसल, जिस दौर में पाकिस्तान के खिलाफ हमारे देश में
नफरत चरम पर है तभी वहां की एक एक्ट्रेस का एक्टिंग के जरिए छाप छोड जाना बेहद खास
है। 'हिन्दी मीडियम' ने हमारे देश पर चढ़े अंग्रेज़ी के दीवानापन पर
कॉमेडी के जरिए कटाक्ष किया है। फिल्म में ये दिखाने की कोशिश की गई है कि कैसे
अंग्रेज़ी स्टेटस सिंबल बन चुका है और इस सिंबल को हासिल करने के लिए लोग किस हद तक
जाने को तैयार हैं। यह सच भी है। दुनिया के तमाम ज्ञान होने के बावजूद अंग्रेजी
ज्ञान न होने से लोग हीन भावना से ग्रस्त हैं।
इरफान और सबा कमर ने अपने लाजवाब अभिनय से उस कशमकश को बेहद खूबसूरती के
साथ पर्दे पर उतारा है।
यह फिल्म एक तीखा
जवाब है, उस सिस्टम और लोगों के लिए जो हिन्दी को
हीनभावना के चश्मे से देखते हैं। यह फिल्म एक आईना
है 'भारत' और 'इंडिया' के बीच के फासले को दिखाने का है। फिल्म में
अंग्रेजी और हिंदी के फासले को मिटाने में जुटे इरफान खान का संघर्ष देखने लायक
है। तमाम ख्वाहिशों के बावजूद
सबा कमर का अपने पति के लिए प्यार भी कम दिलचस्प नहीं है। दीपक डोबेरियाल
के किरदार को देखने के बाद एक बार फिर यह एहसास होता है कि सच में गरीबों का दिल
अमीरों से कहीं अमीर होता है। फिल्म का अंत यह बताने की कोशिश करता है कि उन
गरीब बस्तियों में दिखावा नहीं सहजता और ईमानदारी है। वहां लोगों की भावनाओं को कूचला नहीं जाता, अब भी इंसानियात जिंदा है। कमाई की रेस में
ये फिल्म कहां टिकती है इसका तो पता नहीं लेकिन हां, इतना जरूर कहूंगा कि
हिंदी से प्रेम करने वालों के दिल में जरूर घर बना लेगी।
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