पिछले साल की बात है, जब ‘जेएनयू विवाद’ सुर्खियों में था उसी दौरान मैं अपनी प्रेमिका के
साथ मेट्रो में सफर कर रहा था। तभी प्रेमिका ने मुझसे पूछा ये जेएनयू में क्या हो
रहा है? यह पहली बार था जब हमने राजनीति मुद्दे
पर गंभीरता से बात की थी। दरअसल, उससे राजनीति की बात तो करना चाहता हूं लेकिन वह
इसमें कम दिलचस्पी दिखाती है इसलिए मैं भी रिलेशनशिप को बोरिंग नहीं बनाना चाहता।
बहरहाल, मुद्दे से भटकने से पहले उस सवाल के जवाब पर आते हैं। तब मैंने उसको बताया,
ऐसे ‘करम’ जेएनयू में ही होते
हैं, डीयू इससे सुरक्षित है। जब मैंने यह जवाब दिया, तब डीयू को लेकर मेरा ‘भ्रम’ बोल रहा था। लेकिन वर्तमान दौर में अगर यही सवाल
वह या कोई और मुझसे पूछ दे तो शायद मेरा जवाब कुछ और ही होगा।
दरअसल, डीयू की गलियों में मैंने 3 साल बिताए हैं। साउथ कैंपस से लेकर
नॉर्थ कैंपस तक कई सेमिनार और डिबेट शो अटेंड किया हूं। अपने सम्मानित टीचर्स के
साथ क्लासरूम में तर्कसंगत बातें भी की हैं। वो सारे अनुभव मुझे यह मानने पर
मजबूर करते थे कि डीयू में ‘टॉलरेंस’ है! वो अलग बात है कि मैं जिस कॉलेज से पढ़ा हूं
उसी कॉलेज के एक शिक्षक नक्सलियों से सांठगांठ के कारण जेल की हवा खा चुके हैं। मुझे
तब का माहौल भी याद है। उन्हें बचाने के लिए कई वरिष्ट वाम नेताओं और शिक्षकों
ने सेमिनार भी किए। तब शायद कुछ लोगों के लिए कोई ‘जहर’ नहीं ‘अमृत’ फैला
रहा था। तब क्लारूम से लेकर कॉलेज के सेमिनार हॉल तक में ‘अमृत’ की बातें कहीं जा रही
थीं । इस ‘अमृत
मंथन’ में पढा़कू छात्रों को भी जोड़ा जा रहा था। उस वक्त भी एबीवीपी ने इस ‘अमृत मंथन’ का विरोध किया था। लेकिन तब किसी ने यह बोलने की
हिम्मत नहीं की थी कि माहौल ‘जहरीला’ हो रहा
है। तब किसी सेलेब ने अपने विचार नहीं रखे थे। शायद यही वजह थी कि मेरे लिए सब ‘फीलगुड’ लगता था क्योंकि सीवान जैसे छोटे शहर से
निकल कर यहां आने के कारण मेरे लिए यह सबकुछ नया था। लेकिन हां अब उसी
‘अमृत’ को बहने से
मजबूती से रोका जा रहा है और उसे रोकने वाले ‘जहरीले’, ‘मौत के सौदागर’ और ‘खून के दलाल’ लोग हैं।
तब के माहौल में मैंने न तो किसी कन्हैया को
गरीबी से आजादी की मांग करने के लिए देखा था और न ही किसी तृप्ति में मंदिर में
प्रवेश करने की जिद देखी थी। तब न ही पटेलों का कोई मसीहा हार्दिक बना था, न ही
कोई पिता की शहादत को मोहरा बनाने वाली गुर थी। दरअसल, ‘मंथन’ से निकलने वाले अमृत
का दौर 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही शुरू हुआ है। अब हर
दिन नए मोहरे, नए शब्द भी गढ़े जा रहे हैं। ऐसे मोहरे गढ़ने वाले कारीगरों को एक्सपोज
करने वाले अंधभक्त, मोदीभक्त के नाम से जाने जा रहे हैं। उसी की एक कड़ी थी
रामजस कॉलेज की घटना। स्वाभाविक है रामजस कॉलेज में देश के टूकड़े करने वाले अगर
सेमिनार करेंगे तो ‘अमृत मंथन’ के ही टिप्स बताएंगे। उन्हें किसने मेहमान बनाया और किसने मेजाबनी की,
वो भी कहीं न कहीं इसी के हिस्सा रहे होंगे। बहरहाल, मैं भी मोदीभक्त की सूची में
शामिल हूं लेकिन इन सब के बीच जो भ्रम डीयू से मेरा टूटा है, उसके लिए एबीवीपी को
धन्यवाद कहना चाहूंगा। अब मैं इसी बहाने प्रेमिका को बोल सकता हूं, यह ये
डीयू है, यहां ‘अमृत मंथन’ होता है….