Tuesday 13 September 2016

हिंदी दिवस पर खासः सिंहासन की सीढ़ियों पर बैठी राजभाषा

गांधीजी ने हिंदी को जनमानस की भाषा कहा था, तो इसी हिंदी की खड़ी बोली को अमीर खुसरो ने अपनी भावनाओं को प्रस्तुत करने का माध्यम बनाया था, लेकिन दुर्भाग्य है कि जिस हिंदी को लेखकों ने अपनाया, जिसे स्वतंत्रता सेनानियों ने देश की शान बताया, उसे देश के संविधान में राष्ट्रभाषा नहीं, सिर्फ राजभाषा का दर्जा दिया गया। हालांकि मौजूदा दौर में हिंदी का वर्चस्व देश-विदेश में बढ़ा है। देश की राजभाषा अब धीरे-धीरे, पर दृढ़ता से, राष्ट्रभाषा के सिंहासन की सीढ़ियां चढ़ती दिख रही है..

किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्र पहचान उसके साथ जुड़ी एक ऐसी भाषा से भी होती है, जो उस पूरे राष्ट्र में आसानी से बोली, सुनी और समझी जाती है। भारत जैसे विविध भाषा-भाषी राष्ट्र में निर्विवाद एक ऐसी भाषा, जो देश के अधिकांश हिस्सों मे बोली और समझी जाती हो और जिसे राष्ट्रभाषा का दर्जा देकर देश की स्वतंत्र पहचान से जोड़ा जाए, यह बड़ा कठिन कार्य था। 14 सितंबर 1949 को एक महत्वपूर्ण निर्णय के द्वारा देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी को राजभाषा का सम्मानित दर्जा दिया गया। उस दौरान भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 सितंबर, 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए तीन महत्वपूर्ण बातें कही थीं। पहली, किसी विदेशी भाषा को अपनाकर कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता।
दूसरी, कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। और तीसरी, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने, अपनी आत्मा को पहचाने के लिए हमें हिंदी को अपनाना चाहिए। गांधी जी ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने कहा था कि हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। 1949 में जब हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था तब तय किया गया था कि 26 जनवरी, 1965 से सिर्फ हिंदी ही भारतीय संघ की एकमात्र राजभाषा होगी। लेकिन 15 साल बीत जाने के बाद जब इसे लागू करने का समय आया तो तमिलों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। बकायदा 13 अक्तूबर 1957 को हिंदी विरोध दिवस के रूप में मनाया। उस समय तमिलनाडु, मद्रास, केरल और अन्य जगह हिंदी के विरुद्ध फैल रहे आंदोलन दंगों का रूप लेने पर आमादा हो गए थे। पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने फैसला लिया कि जब तक सभी राज्य हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप मे स्वीकार नहीं करेंगे, अंग्रेजी हिंदी के साथ राजभाषा बनी रहेगी। इसका परिणाम यह निकला कि आज भी हिंदी अस्तित्व के लिए लड़ रही है। जानकार मानते हैं कि अगर आज भी पूरा हिंदुस्तान एक होकर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए राजी हो जाए, तो संविधान में उसे यह स्थान मिल सकता है।
अमीर खुसरो की हिंदी
अमीर खुसरो ने हिंदी को अपनी मातृभाषा कहा था। इसके बाद हिंदी का प्रसार मुगलों के साम्राज्य में भी हुआ। हिंदी के प्रचार-प्रसार में संत संप्रदायों का भी विशेष योगदान रहा, जिन्होंने इस जनमानस की बोली की क्षमता और ताकत को समझते हुए अपने ज्ञान को इसी भाषा में देना सही समझा। भारतीय पुनर्जागरण के समय भी राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन और महर्षि दयानंद जैसे महान सामाजिक नेताओं ने हिंदी का प्रसार किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी गद्य को मानक रूप प्रदान किया। महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत जैसे रचनाकारों ने भी हिंदी का प्रसार किया।

हिंदी सिनेमा का योगदान
गीतकार गुलजार का दावा है कि हिंदी के प्रसार-प्रचार में सबसे बड़ा योगदान हिंदी सिनेमा का है। हिंदी फिल्मों की वजह से ही पूरे हिंदुस्तान में हिंदी संपर्क की भाषा मानी जाती है। अमेरिका में हिंदी पढ़ा रहीं अनिल प्रभा कुमार का कहना है कि वह अपने छात्रों को हिंदी सिखाने के लिए हिंदी गानों का सहारा लेती हैं। बताया कि कैसे वह भविष्काल पढ़ाने के लिए हिंदी गानों को इस्तेमाल करती हैं, जैसे हर दिल जा प्यार करेगा का प्रयोग होता है। इसी को एक्टिव वॉयस में पढ़ाने को वह कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है गाने का सहारा लेती हैं।

उज्ज्वल भविष्य के लिए अपनी भाषा जरूरी
महावीर प्रसाद द्विवेदी लका कहना था, ‘अपने देश, अपनी जाति का उपकार और कल्याण अपनी ही भाषा के साहित्य की उन्नति से हो सकता है।’ महात्मा गांधी का कहना रहा, ‘अपनी भाषा के ज्ञान के बिना कोई सच्चा देशभक्त नहीं बन सकता। समाज का सुधार अपनी भाषा से ही हो सकता है। हमारे व्यवहार में सफलता और उत्कृष्टता भी हमारी अपनी भाषा से ही आएगी।’ कविवर बल्लतोल कहते हैं, ‘आपका मस्तक यदि अपनी भाषा के सामने भक्ति से झुक न जाए तो फिर वह कैसे उठ सकता है।’ डॉ. जॉनसन की धारणा थी, ‘भाषा विचार की पोशाक है। भाषा सभ्यता और संस्कृति की वाहन है और उसका अंग भी।’

हिंदी मीडिया घर-घर
आज भारत में हिंदी के अखबारों की प्रसार संख्या सबसे अधिक है।  यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, यानी हिंदी का अधिक प्रसार हो रहा है, इसमें कुछ हद तक विज्ञापन व बाज़ार की भी भूमिका है। आज तमाम विज्ञापन हिंदी या हिंग्लिश में जारी होते हैं, क्योंकि उपभोक्ता तो हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में ही सबसे अधिक हैं।  टीवी न्यूज चैनलों ने भी हिंदी को बढ़ावा दिया है। जबसे कार्टून नेटवर्क, डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफिक, एनिमल प्लेनेट आदि ने अपने कार्यक्रम हिंदी में देना शुरू किए हैं, उन्हें देखनेवालों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है।

परदेस में हिंदी की जलवा
मॉरिशस में 1834 से बिहार के छपरा, आरा और उत्तर प्रदेश के गाजीपुर, बलिया, गोंडा आदि जिलों से कईं सैंकड़ों की तादाद में बंधुआ मजदूरों का आगमन हुआ। महात्मा गांधी जब 1901 में मॉरिशस आए तो उन्होंने भारतीयों को शिक्षा तथा राजनीतिक क्षेत्रों में सक्रिय भाग लेने के लिए प्रेरित किया। धार्मिक तथा सामाजिक संस्थाओं के उदय होने से यहां हिंदी को व्यापक बल मिला। फिजी में पांच मई 1871 में गिरमिट प्रथा के अंतर्गत आए प्रवासी भारतीयों ने इस देश को जहां अपना खून-पसीना बहाकर आबाद किया, वहीं हिंदी भाषा की ज्योति भी प्रज्जवलित की। फिजी के संविधान में हिंदी भाषा को मान्यता प्राप्त है। कोई भी व्यक्ति सरकारी कामकाज, अदालत तथा संसद में भी हिंदी भाषा का प्रयोग कर सकता है। नेपाल में हिंदी प्रेम हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए काफी है। श्रीलंका में भारत से आई हिंदी पत्र-पत्रिकाएं जैसे बाल भारती, चंदा मामा, सरिता आदि बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं। यहां के विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाई जा रही है। संयुक्त अरब अमीरात में एफएम रेडियो के कई ऐसे चैनल हैं, जहां चौबीसों घंटे नए अथवा पुराने हिंदी गाने बजते हैं। ब्रिटेन के लंदन, कैंब्रिज तथा यार्क विश्वविद्यालयों में हिंदी पठन-पाठन की व्यवस्था है। बीबीसी से हिंदी कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। अमेरिका में येन विश्वविद्यालय में सन 1815 से ही हिंदी की व्यवस्था है।

हिंदी का नया बाजार
यह सम्भावना जताई जा रही है कि 2017 तक भारत में इंटरनेट के उपयोगकर्ता 50 करोड़ हो जाएंगे, जिसमें से 49 करोड़ लोग मोबाइल फोन के माध्यम से इंटरनेट का उपयोग करेंगे। इस समय भारत में हर पांचवां उपयोगकर्ता हिंदी वाला है। यह हिंदी का नया बाजार है। ब्लॉगिंग, वेबसाइट्स के बाद फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल साइट्स ने बड़े पैमाने पर हिंदी समाज को जोड़ा, लोगों के बीच हिंदी में संवाद को संभव बनाया। सोशल मीडिया में हिंदी धीर-धीरे अपनी धाक जमाने में सफल हो रही है। इसके सकारात्मक संकेत दिखाई देने लगे हैं। इसने सबसे बड़ा मिथ यह तोड़ा है कि हिंदी में पाठक नहीं हैं। आज कईं ऐसी साहित्यिक वेबसाइट्स हैं, ब्लॉग हैं जिनकी पाठक संख्या लाखों में है। वह भी बिना किसी सनसनी के, बिना अश्लीलता परोसे। जबकि यह आम धारणा रही है कि जो मूल्यहीन साहित्य होता है, जो लोकप्रियता के मानदंडों के ऊपर आधारित होता है उसका ही बड़ा पाठक वर्ग होता है। उदाहरण के रूप में जासूसी, रूमानी साहित्य की धारा का जिक्र किया जाता रहा है। लेकिन सोशल मीडिया ने यह दिखा दिया है कि अच्छे और बुरे साहित्य के सांचे अकादमिक ही हैं. फेसबुक जैसे माध्यम हों या ब्लॉग्स, वेबसाइट्स तथाकथित गंभीर समझे जाने वाले, वैचारिक कहे जाने वाले साहित्य के लिए पाठक कम नहीं हैं बल्कि बढे़ ही हैं। यह बात कही जा सकती है कि टीवी क्रांति के दौर में जो पाठक हिंदी से जुदा हो गया था, सोशल मीडिया ने उसकी वापसी करवा दी है। यह कहना अतियशयोक्ति नहीं होगी कि तरंग पर सवार हिंदी सही मायने में आज एक गांव से उठकर वैश्विक धरातल पर पहुंच गई है।

हिंदी आती है 80 करोड़ की समझ में
दुनिया में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी तीसरे नंबर पर है। लेकिन इसे भारतीय कूटनीति की विफलता कहें या कुछ और, हिंदी संयुक्त राष्ट्र में प्रयोग की जानी वाली 6 अधिकारिक भाषाओं में शामिल नहीं हैं। जबकि दुनिया में तकरीबन 80 करोड़ लोग इस भाषा को समझ सकते हैं। साफ तौर पर बात करने वाले लोगों का आंकडा देखे तो हिंदुस्तान में 45 करोड़ नागरिक इसी में बात करते हैं। इस भाषा की वर्णमाला में 56 अक्षर हैं, जबकि शब्दों की संख्या बहुत अधिक।



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