Thursday 18 August 2016

ये मेडल नहीं, अपमान है

रियो ओलंपिक में साक्षी मलिक और पीवी सिंधू के मेडल के साथ भारत का खाता खुला, इससे क्या आप खुश हैं? अगर हां, तो आप रहिए खुश, यही आपकी नियति है। साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  ने पदक दिलाया, यह उनकी व्यक्तिगत लगन है और उसकी सराहना होनी चाहिए लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हम उन्हें देश की 'शान' मानने की गलती कर बैठे। साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  की सराहना होनी चाहिए तो सिर्फ इसलिए कि उन्होंने जाते जाते पदक तालिक में भारत का नाम अंकित करा दिया और खत्म हो चुके सपनों को अगले ओलंपिक तक के लिए फिर से जगा दिया। अब आप बुनते रहिए सपने, गिनते रहिए अगले ओलंपिक के मेडल। अगर साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  के मेडल को देखकर सुकून की निंद्रा में हैं तो जाग जाइए क्योंकि यह मेडल नहीं अपमान है। यह अपमान है, देश की 125 करोड़ की आबादी के भरोसे का। यह धोखा है, करोड़ों रुपये खर्च करने वाली सरकारों के साथ। अगर खिलाड़ियों के लिए हमदर्दी है तो आप दोष सिस्टम को भी दे लीजिए  लेकिन मुझे ताो शर्म आती है उन खिलाड़ियों पर जिन्होंने रियो के खेल सागर में भारत की साख को डूबोया है। 118 एथलीट्स की फौज को रियो भेजते वक्त हमारे प्रधानमंत्री ने भरोसे के साथ कहा था कि हर खिलाड़ी पर डेढ़ करोड़ खर्च किया गया है और इस बार पुराने सारे रिकॉर्ड टूटेंगे। साईं की रिपोर्ट में भी भारत को रियो ओलंपिक में 12 से 19 मेडल मिलने का सपना दिखाया गया था। लेकिन जैसे-जैसे दिन निकलते गए, दिल बैठता गया और अब आलम ये है कि पेस, सानिय, जीतू और साइना जैसे दिग्गजों की मौजूदगी के बावजूद हम ओलंपिक के आखिरी दिनों में तांबे और चांदी का एक-एक मेडल लिए घूम रहे हैं।  दुनिया के सबसे अनुभवी टेनिस स्टारों में से एक पेस से बहुत उम्मीद थी लेकिन वह लड़े तो सिर्फ कमरे के लिए, मेडल के लिए नहीं। वहीं सानिया की बात करें तो, खेल से ज्यादा पोकोमॉन गो गेम और सोशल मीडिया पर समय बिताने में व्यस्त थीं। हॉकी खिलाड़ी तो मानों रियो, पदक के लिए नहीं बल्कि किट के लिए गए थे। बॉक्सर विकास ने तो स्वीकार कर ही लिया कि मैं क्वार्टर फाइनल में ही अपना सौ फीसदी दे चुका हूं, अब और नहीं हो सकता। दीपा के प्रदर्शन से खुशी जरूर मिली लेकिन 'चूक' तो हम यहां भी गए। अबकी स्थिति यह रही कि बीजिंग ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतने वाले अभिनव बिंद्रा जब आठ साल बाद चौथे पोजीशन पर आए तो हम आहें भरते रहे और ये कहकर अपने दिल को तसल्ली देते रहे कि पदक आते-आते रह गया। लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि पदक आते-आते नहीं रह गया बल्कि हमारे एथलीट दुनिया के टॉप एथलीटों के सामने इतने बौने हैं कि वह पोडियम तक पहुंच ही नहीं पाते।  सवाल है कि जो खिलाड़ी ओलंपिक के अलावा दूसरी जगहों पर अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वो अगर ओलंपिक में नहीं खेल पा रहे हैं तो इसकी वजह क्या हैं? रियो में जीतू जैसे कई अच्छे खिलाड़ी भी दबाव में खेलते नजर आए। एक अनुमान के मुताबिक सरकार ने ओलंपिक की तैयारियों के लिए सौ करोड़ से ज्यादा रुपये खर्च किए लेकिन नतीजा क्या निकला हमारे सामने है। कुल आंकड़ों पर गौर करें तो 116 साल के ओलंपिक इतिहास में रियो से पहले भारत ने 23 ओलंपिक में हिस्सा लेकर कुल 26 मेडल हासिल किए। यानी औसत निकाले तो हर ओलंपिक में सवा मेडल भी नहीं बनता। वहीं दूसरी तरफ अमेरिका के तैराक माइकल फेलप्स अकेले ही 28 ओलंपिक मेडल जीत चुके हैं जिसमें 23 गोल्ड मेडल शामिल हैं। ये आंकड़े बताने के लिए काफी है कि हमारे एथलीट खेलों के इस महाकुंभ में अन्य देशों के खिलाड़ियों से कितना कम दमखम दिखा पाते हैं।

      अब तो आलम यह है कि पदक के लिए हम खिलाड़ियों से ज्यादा भगवान पर भरोसा करते हैं। आबादी के नए रिकॉर्ड को छूने वाले हमारे देश में ओलंपिक कांस्य पदक जीतने के लिए भी लोग पूजा-पाठ पर बैठ जाते हैं। नतीजा यह होता है कि हम कांस्य से भी 'चूक' जाते हैं।  वहीं अमेरिका और चीन जैसे देश अपने खिलाड़ियों को लेकर निश्चिंत होते हैं कि वह तीन पदकों में से कोई एक तो आसानी से हथिया ही लेंगे क्योंकि उनका हर खिलाड़ी गोल्ड पाने के लिए जी-जान लगा देता है।  जिस देश में सोना और सम्मान को जान से भी ज्यादा प्यार किया जाता हो वहां मेडल के इस सूखे पर अगर शोभा डे जैसे लोगों का गुस्सा फूटता है तो वह स्वाभाविक सा लगता है।  बहरहाल, अगर इक्के-दुक्के मेडल हाथ लग भी गए तो इस पर इतराने की जरूरत नहीं है बल्कि पूरा देश ये सोचे कि इतने बड़े देश में खिलाड़ी खेल के साथ अपमान क्यों कर रहे हैं?


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