Monday 22 August 2016

दुश्मन ने दिखाया आईना

आखिरकार रियो ओलंपिक से भारत की विदाई मेडल के साथ हो ही गई है। पूरा देश खुशी में डूबा है,  यह और बात है कि जितने मेडल हमें मिले हैं उससे अधिक जमैका के धावक उसैन बोल्ट अकेले ही लेकर स्वदेश लौटे हैं। वहीं अमेरिकी तैराक माइकल फेलेप्स की बात करें तो भारत के ओलंपिक इतिहास को ही खंगालना पड़ेगा।  बहरहाल, भारत और फेल्प्स की इस तुलना को यहीं रोकते हुए हमें साक्षी मलिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। 58 किलो वर्ग कुश्ती में कांस्य पदक जीतने वाली इस 'हरियाणा की शेरनी' ने हमें 1992 के बार्सिलोना ओलंपिक वाली शर्मिंदगी से बचा लिया, जहां से हम बिना मेडल के वापस आए थे। मलिक के मेडल के बाद तो बैडमिंटन की सनसनी पीवी सिंधू का मेडल हमारे लिए बोनस जैसा लगने लगा है। लेकिन इन सबके बीच में हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश की आबादी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है और दुनिया ये सवाल पूछ रही है कि 132 करोड़ लोगों के देश में मेडल का ऐसा अकाल क्यों पड़ा हुआ है?  ये कहानी किसी एक ओलंपिक की नहीं है, बल्कि ये हर बार की पीड़ा है, हर बार का दर्द है। इस बार हमारे 118 एथलीट ओलंपिक के लिए रवाना हुए थे लेकिन जैसे-जैसे दिन निकलते गए, दिल बैठता गया और आखिरी दिनों में सभी ने पदक की उम्मीदें छोड़ दी थीं। बहरहाल, सबसे बड़ा सवाल है कि जो खिलाड़ी ओलंपिक के अलावा दूसरी जगहों पर अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वो अगर ओलंपिक में नहीं खेल पा रहे हैं तो इसकी वजह क्या हैं? हमारे देश में मंथन हो, इससे पहले चीन ने इस बदहाली का विश्लेषण कर लिया है।  चीन के मीडिया ने भारत को पदक न मिलने के जो कारण बताए हैं उनके मुताबिक भारतीय खिलाड़ियों को सरकार उचित संसाधन नहीं दे रही है। जिससे खिलाड़ी बेहतर अभ्यास न कर पाने के कारण एथलेटिक्स जैसे खेलों में आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। इस तथ्य को मजबूती तब मिलती है जब दूतीचंद जैसी एथलीट को रियो रवाना होने से पहले जूते के लिए गुहार लगानी पड़ती है तो बॉक्सर मनोज को प्रमोशन के लिए राजनेताओं के दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं। खेलों पर सरकारें कितना ध्यान देती हैं इसकी बानगी आंकड़े बताते हैं।  एक आंकड़े के मुताबिक भारत ने चार साल पर आने वाले ओलंपिक की तैयारियों पर 120 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। जबकि बेंगलुरू के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस पर इस साल 120 करोड़ रुपये और इग्नू पर 107 करोड़ रुपये एक साल में खर्च किए गए हैं। यानी सरकार का खेलों से ज्यादा जोर पढ़ाई पर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में राज्य और केन्द्र सरकारें मिलकर एक एथलीट पर प्रतिदिन सिर्फ तीन पैसे खर्च करती हैं। जबकि अमेरिका अपने हर खिलाड़ी पर एक दिन में 22 रुपये खर्च करता है। इसी तरह इंग्लैंड रोज 50 पैसे हर खिलाड़ी पर खर्च करता है और जमैका जैसा गरीब देश भी अपने खिलाड़ियों पर 19 पैसे खर्च करता है। चीन की मीडिया ने भारतीय युवाओं की सेहत पर भी सवाल खड़े किए हैं। उसका कहना है कि भारतीय युवा स्वास्थ्य मानकों को लेकर जागरूक नहीं हैं। शारीरिक कमजोरियों के कारण वह बाजुओं के दमखम वाले खेलों में विदेशी खिलाड़ियों का मुकाबला नहीं कर पाते। काफी हद तक यह बात भी सही है क्योंकि हमारे देश में फास्ट फूड एक स्टेटस सिंबल माना जाता है और पैदल चलना, दौड़ना और भागना एक अजूबे की तरह देखा जाता है। चीनी मीडिया का कहना है कि भारतीय लोग लड़कियों को लेकर आज भी प्रगतिवादी सोच नहीं रखते।  इस कड़वी सच्चाई को हरियाणा के आंकड़े से समझ सकते हैं। यह कांस्य पदक लेने वाली साक्षी मलिक का गृह राज्य है लेकिन यह कुख्याात है उस मानसिकता के लिए जो बेटों को बेटियों से ज्यादा तरजीह देती है।

2011 की जनगणना के आंकड़े इस बात का सबूत देते हैं (1000 लड़कों पर सिर्फ 879 लड़कियां)। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि हरियाणा में लड़कों की शादी के लिए दूसरे राज्यों ही नहीं, दूसरे देशों से दुल्हनें लानी पड़ रही हैं। चीन ने ये विश्लेषण भी किया है कि भारतीय माता-पिता बच्चों के कैरियर के मामले में आज भी ज्यादा विकल्प नहीं रखते। वह परंपरागत रूप से डॉक्टर और इंजीनियर के अलावा अन्य विकल्पों के बारे में ज्यादा नहीं सोचते। चीन ने भारत की इस परफॉर्मेंस के लिए एक कारण क्रिकेट और गरीबी को भी बताया है। आईपीएल में जहां युवराज सिंह जैसे खिलाड़ी को 16 करोड़ रुपये एक सीजन के लिए मिल जाते हैं वहीं हॉकी में श्रीजेश जैसे बड़े स्टार दो साल में इतनी कमाई कर पाते हैं। चीन की मीडिया ने भारत में स्टेडियम और पार्क की कमियों को भी रेखांकित किया है। बहरहाल, भारत के खेलों की ये समीक्षा भले ही चीन ने की हो, लेकिन चीन के मीडिया के इस विश्लेषण में दम तो है। कई बार खुद में सुधार करने के लिए सामने खड़े दुश्मन की बात भी ध्यान से सुननी चाहिए ताकि अपने अंदर सुधार किए जा सकें।

Thursday 18 August 2016

ये मेडल नहीं, अपमान है

रियो ओलंपिक में साक्षी मलिक और पीवी सिंधू के मेडल के साथ भारत का खाता खुला, इससे क्या आप खुश हैं? अगर हां, तो आप रहिए खुश, यही आपकी नियति है। साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  ने पदक दिलाया, यह उनकी व्यक्तिगत लगन है और उसकी सराहना होनी चाहिए लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हम उन्हें देश की 'शान' मानने की गलती कर बैठे। साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  की सराहना होनी चाहिए तो सिर्फ इसलिए कि उन्होंने जाते जाते पदक तालिक में भारत का नाम अंकित करा दिया और खत्म हो चुके सपनों को अगले ओलंपिक तक के लिए फिर से जगा दिया। अब आप बुनते रहिए सपने, गिनते रहिए अगले ओलंपिक के मेडल। अगर साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  के मेडल को देखकर सुकून की निंद्रा में हैं तो जाग जाइए क्योंकि यह मेडल नहीं अपमान है। यह अपमान है, देश की 125 करोड़ की आबादी के भरोसे का। यह धोखा है, करोड़ों रुपये खर्च करने वाली सरकारों के साथ। अगर खिलाड़ियों के लिए हमदर्दी है तो आप दोष सिस्टम को भी दे लीजिए  लेकिन मुझे ताो शर्म आती है उन खिलाड़ियों पर जिन्होंने रियो के खेल सागर में भारत की साख को डूबोया है। 118 एथलीट्स की फौज को रियो भेजते वक्त हमारे प्रधानमंत्री ने भरोसे के साथ कहा था कि हर खिलाड़ी पर डेढ़ करोड़ खर्च किया गया है और इस बार पुराने सारे रिकॉर्ड टूटेंगे। साईं की रिपोर्ट में भी भारत को रियो ओलंपिक में 12 से 19 मेडल मिलने का सपना दिखाया गया था। लेकिन जैसे-जैसे दिन निकलते गए, दिल बैठता गया और अब आलम ये है कि पेस, सानिय, जीतू और साइना जैसे दिग्गजों की मौजूदगी के बावजूद हम ओलंपिक के आखिरी दिनों में तांबे और चांदी का एक-एक मेडल लिए घूम रहे हैं।  दुनिया के सबसे अनुभवी टेनिस स्टारों में से एक पेस से बहुत उम्मीद थी लेकिन वह लड़े तो सिर्फ कमरे के लिए, मेडल के लिए नहीं। वहीं सानिया की बात करें तो, खेल से ज्यादा पोकोमॉन गो गेम और सोशल मीडिया पर समय बिताने में व्यस्त थीं। हॉकी खिलाड़ी तो मानों रियो, पदक के लिए नहीं बल्कि किट के लिए गए थे। बॉक्सर विकास ने तो स्वीकार कर ही लिया कि मैं क्वार्टर फाइनल में ही अपना सौ फीसदी दे चुका हूं, अब और नहीं हो सकता। दीपा के प्रदर्शन से खुशी जरूर मिली लेकिन 'चूक' तो हम यहां भी गए। अबकी स्थिति यह रही कि बीजिंग ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतने वाले अभिनव बिंद्रा जब आठ साल बाद चौथे पोजीशन पर आए तो हम आहें भरते रहे और ये कहकर अपने दिल को तसल्ली देते रहे कि पदक आते-आते रह गया। लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि पदक आते-आते नहीं रह गया बल्कि हमारे एथलीट दुनिया के टॉप एथलीटों के सामने इतने बौने हैं कि वह पोडियम तक पहुंच ही नहीं पाते।  सवाल है कि जो खिलाड़ी ओलंपिक के अलावा दूसरी जगहों पर अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वो अगर ओलंपिक में नहीं खेल पा रहे हैं तो इसकी वजह क्या हैं? रियो में जीतू जैसे कई अच्छे खिलाड़ी भी दबाव में खेलते नजर आए। एक अनुमान के मुताबिक सरकार ने ओलंपिक की तैयारियों के लिए सौ करोड़ से ज्यादा रुपये खर्च किए लेकिन नतीजा क्या निकला हमारे सामने है। कुल आंकड़ों पर गौर करें तो 116 साल के ओलंपिक इतिहास में रियो से पहले भारत ने 23 ओलंपिक में हिस्सा लेकर कुल 26 मेडल हासिल किए। यानी औसत निकाले तो हर ओलंपिक में सवा मेडल भी नहीं बनता। वहीं दूसरी तरफ अमेरिका के तैराक माइकल फेलप्स अकेले ही 28 ओलंपिक मेडल जीत चुके हैं जिसमें 23 गोल्ड मेडल शामिल हैं। ये आंकड़े बताने के लिए काफी है कि हमारे एथलीट खेलों के इस महाकुंभ में अन्य देशों के खिलाड़ियों से कितना कम दमखम दिखा पाते हैं।

      अब तो आलम यह है कि पदक के लिए हम खिलाड़ियों से ज्यादा भगवान पर भरोसा करते हैं। आबादी के नए रिकॉर्ड को छूने वाले हमारे देश में ओलंपिक कांस्य पदक जीतने के लिए भी लोग पूजा-पाठ पर बैठ जाते हैं। नतीजा यह होता है कि हम कांस्य से भी 'चूक' जाते हैं।  वहीं अमेरिका और चीन जैसे देश अपने खिलाड़ियों को लेकर निश्चिंत होते हैं कि वह तीन पदकों में से कोई एक तो आसानी से हथिया ही लेंगे क्योंकि उनका हर खिलाड़ी गोल्ड पाने के लिए जी-जान लगा देता है।  जिस देश में सोना और सम्मान को जान से भी ज्यादा प्यार किया जाता हो वहां मेडल के इस सूखे पर अगर शोभा डे जैसे लोगों का गुस्सा फूटता है तो वह स्वाभाविक सा लगता है।  बहरहाल, अगर इक्के-दुक्के मेडल हाथ लग भी गए तो इस पर इतराने की जरूरत नहीं है बल्कि पूरा देश ये सोचे कि इतने बड़े देश में खिलाड़ी खेल के साथ अपमान क्यों कर रहे हैं?