Sunday 21 February 2016

चलो नकाब तो उतरा...


विलंब के लिए खेद है लेकिन अब जब समय मिला है तो मैं अपने अंदर की चिंगारी को भी एक लिखित रूप दे रहा हूं। पिछले कुछ समय से जेएनयू में देश विरोधी नारे को लेकर जो कुछ कहा जा रहा है और जो कुछ गढ़ा जा रहा है उसने बेहद हैरान हूं। दरअसल, इस घटना ने पहली बार दुनिया के सबसे मजबूत और बड़े लोकतंत्र को विखंडित कर दिया है। संभवतः पहली बार ऐसा हुआ है जब बुद्घजििवी वर्ग के हर सूरमें अपनी अपनी राग अलाप रह‌े हैं।  यह सच है कि सबको अपने अपने पूर्वाग्रह निष्पक्ष लगते हैं लेकिन सवाल है कि क्या निष्पक्षता की आड़ में हम अपनी विचारधारा तो नहीं थोप रहे हैं क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ ह‌ै जब दोषियों को सजा दिलाने वाले न्याय के मंदिर में याचक को जाने से पहले सीढ़ियों पर ही इंसाफ कर रहे हैं तो पत्रकारिता के मुखर आवाज बन चुके पत्रकार जेएनयू मुद्दे के जरिए अपनी विचारधारा की व्याख्या करने में लगे हैं। चाहें पक्ष कोई भी हो सभी के अपने तर्क हैं और उस कमजोर तर्क में भी दर्शकों और पाठकों को दम लगता है। सही और गलत का पहचान दिलाने वाले शिक्षक या प्रोफेसर भी बुद्घिजीविता में अपना बौद्घिक ज्ञान दे रहे हैं। शिक्षा के मंदिर को तमाशा बनाने की कोशिश हो रही है। शिक्षक पाठ्यक्रम से न मतलब रखकर छात्रों को अपने वैचारिक रंग में रंगने में लगे हैं। यह वैचारिक रंग उस दिमाग में गाढ़ी हो जाती है जहां पहले ही खोखलापन है। तो ऐसे में अब क्यों न यह मान लिया जाए कि जेएनयू प्रकरण के बाद पहली बार समाज का हर वर्ग विखंडित है और हर विखंडन में अब तक की छुपी हुई उसकी सच्चाई बाहर आ गई है। मैं यह कभी नहीं कहता कि किसी की कोई विचारधारा नहीं होनी चाहिए। विचारधारा तो सबके होते हैं और होने भी जरूरी हैं। बिना विचारधारा के व्यक्ति का वजूद भी कठघरे में रहता है। लेकिन इन सब के बीच हमें यह तय करना होगा कि जब हम किसी बौद्घिक वर्ग में शामिल हो जाते हैं या यूं कहें की कर दिए जाते हैं तो क्या उस विचारधारा को थोपने की आजादी मिल जाती है? सवाल यह नहीं है कि कौन किसका समर्थक या भक्त है। सवाल यह है कि क्या वकील, प्रोफेसर, पत्रकार भी अब राजनेताओं की श्रेणी में आने लगे हैं। क्या अब तक मजबूत लोकतंत्र का दंभ भरने वाला यह देश त्रासदी की ओर जा रहा है। हम क्यों नहीं अपनी जिम्मेदारी को निष्पक्ष ढंग से अपनाने की कोशिश करते हैं। क्या हम टीवी स्क्रीन को 'ब्लैक' कर के क्रांति की मशाल के लिए चिंगारी पैदा कर सकते हैं? अगर हमने 'ब्लैक फ्राइडे' की शुरुआत कर दी है तो सिर्फ उसके लिए एक ही मुद्दा क्यों अहम हो जाता है? और अगर आप एक ब्लैक फ्राइडे की बजाए 'ब्लैक डे' नहीं मना सकते हैं तो यहीं से सवाल खड़े हो जाते हैं। बहरहाल, इस भीड़ और शोर में बात तो दब ही गई है। आखिर हम भटक क्यों रहे हैं? क्या अब भी कोई आगे आकर यह नहीं बोलेगा कि जेएनयू में जो हुआ वह गलत था। कन्हैया की गिरफ्तारी को हम इसलिए गलत क्यों कहेंगे कि उसने देशविरोधी नारे नहीं लगाए। क्या बतौर अध्यक्ष कन्हैया की जिम्मेदारियां नहीं होती हैं? क्या उसको कल्चरल प्रोग्राम के नाम पर देशद्रोही आवाजों की पहचान नहीं थी? अगर नहीं थी तो ऐसे अध्यक्ष की नाकामी को यह दर्शाता है। जो भी हो इस कन्फ्यूजन भरे माहौल में अब तय आपको करना है कि कौन सही है और कौन गलत ? हो सकता है आपकी विचारधारा और मीडिया का दबाव आप पर हावी होने की कोशिश करे लेकिन इन सबसे बचने के लिए एक डिस्प्रीन की गोली खा लीजिए और उठाईए इस माहौल में नाटक करने वाले नौटंकियों का लुत्फ.....   दीपक कुमार  deepak841226@gmail.com

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