Friday 23 December 2016

तुम ‘तैमूर’ पैदा करो, हम मातम भी न मनाएं!



पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर लगातार लोग ज्ञान दे रहे हैं कि ‘सैफीना’ ने अपने नवजात का नाम ‘तैमूर’ रखा है तो यह उसका निजी मामला है। लेकिन क्‍या सच में यह उनका निजी मामला है। जी नहीं, यह उनका निजी मामला तब होता जब वह पब्‍लिक प्‍लेटफॉर्म पर नहीं होते। अगर यह उनका निजी मामला हो सकता है तो जो लोग तैमूर के नाम पर मातम मना रहे हैं, उनका भी अपना निजी विचार है। फिर आप उनके मातम पर सवाल उठाने वाले कौन होते हो? उनके तो मातम मनाने की भी वजह है। पहली बात तो तुमने 43 साल की उम्र में 32 साल की करीना से निकाह कर लिया। चलो निकाह तक तो माफी मिल जाएगी, लेकिन अब 46 साल की उम्र में बच्‍चे भी पैदा करने लगे। हद तो तब हो गई जब इसका जश्‍न भी मना रहे हो। इस उम्र में तो लोग भजन- र्की‍तन की तैयारियों में जुट जाते हैं।
  तुमने एक बार भी नहीं सोचा कि उन आशिकों पर क्‍या बीत रही होगी, जो करीना की फोटो फेवीकॉल से चिपका कर रखते हैं। अगर तुमने नहीं सोचा तो अब भी बुरा नहीं लगना चाहिए क्‍योंकि ये वही आशिक हैं जो तुम्‍हारी इस खुशी में मातम मना रहे हैं। लोगों को बुरा तब भी लगा था जब करीना कपूर ने अपना नाम बदलकर करीना कपूर खान रख लिया। यह अलग बात है कि करीना कि सासू मां शर्मिला टैगोर ने कभी मंसूर अली खां पटौदी के सरनेम को खुद से नहीं जोड़ा। हालांकि तब यह भरोसा था कि एक दिन अपना कुणाल खेमू भी सोहा अली खान को खेमू बनाएगा। चलो वहां तो तसल्‍ली मिल गई। अब इंतजार तैमूर के बदले की है। जिन्‍हें ‘तैमूर’ से आपत्‍त‍ि है वो इसलिए भी आहत हैं कि वह बेटा क्‍यों हुआ। क्‍योंकि यह माना जा रहा है कि बेटा आगे चलकर बाप सैफ की तरह ही एक्‍टर बनेगा। और अगर ऐसा सच में हुआ तो यह भारत पर बड़ा हमला माना जा सकता है। अगर वह बेटी होती तो शायद मां करीना जैसी एक्‍टर बन पाती । तब लोग उसे हाथों-हाथ भी लेते।

तो इसलिए पड़ा तैमूर नाम
कुछ जानकारों का मानना है कि सैफ के कैरियर की सबसे बड़ी फिल्‍म ओमकारा रही। इस फिल्‍म में लंगड़ा त्‍यागी के किरदार की वजह से सैफ को नेशनल अवार्ड तक मिल गया। तभी से सैफ के दिमाग में यह बात घर कर गई थी कि आगे चलकर इस नाम को कहीं यूज करेंगे। ऐसे में उन्‍होंने अपने बेटे पर यह प्रयोग किया। अब आपको यह भी बता दें कि चग़ताई मंगोलों के खान, 'तैमूर' भी लंगड़ा था।

अब बात गंभीरता से    
हमें ‘तैमूर’ से दिक्‍कत की वजह यह भी है कि यह नाम उस वहशी इंसान के नाम पर है जिसने हिंदूओं को दर्द ही दिया है। यह दर्द झेला हमने है तो स्‍वभाविक है कि मातम भी हम ही मनाएंगे।

ान सवाल उठाने वाले कौन होते हो।
   


Monday 19 December 2016

एक हीरो, जिससे मैं मिला हूं

बात इसी साल के आईपीएल की है। मुझे दिल्‍ली डेयरडेविल्‍स की टीम के कुछ खिलाडि़यों से दिल्‍ली में ही मिलने का मौका मिला। यह मुलाकात यूं ही चलते – चलते की थी। इस दौरान एक शर्मिले से खिलाड़ी को मैने देखा। सच यही है कि उस वक्‍त तक मुझे याद नहीं आ रहा था कि इस खिलाड़ी का नाम क्‍या है। तभी मेरे एक खेल पत्रकारिता के अनुभवी साथी ने बताया कि यह करुण नायर है जो भारतीय टीम में एंट्री के लिए संघर्ष कर रहा है। करुण नायर के बारे में मैं जानता जरूर था लेकिन वो जानकारी पर्याप्‍त नहीं थी। मैं सिर्फ यही जानता था कि यह खिलाड़ी रणजी में कर्नाटक के लिए खेलता है। लेकिन उस संक्षप्ति मुलाकात में एक ही झटके में करूण की शख्सियत बयां हो गई। दरअसल, उसी दौरान हमारे अनुभवी साथी के हाथ से नीचे पेन गिर गया, उसे उठाने को मैं और साथी एक साथ झुके लेकिन हमें यह बिल्‍कुल नहीं अंदाजा था कि इस भीड़ में पेन को उठाने के लिए कोई और भी हमारे साथ मशक्‍कत कर रहा है। वो कोई और नहीं, करूण नायर थे। ऐसा नहीं है कि यह बहुत बड़ी बात थी लेकिन इस घटना का जिक्र उनकी शख्‍सियत को करने के लिए बेहद जरूरी है। हम सिर्फ खिलाडि़यों के अग्रेसन के बारे में ही जानते हैं लेकिन उनकी कोमल छवि के बारे में नहीं जानना चाहते हैं लेकिन सच यही है कि नाम के मुताबिक करूणा नायर के चेहरे से दिखती है।  आज कर्नाटक के करुण नायर ने इंग्‍लैंड के खिलाफ तिहरा शतक बनाकर अपने आपको भारतीय बल्‍लेबाजों में वीरेंद्र सहवाग के साथ खड़ा कर लिया है।

-    जन्‍म – 6 दिसंबर 1991
- दाएं हाथ से बल्‍लेबाजी और गेंदबाजी
- टेस्‍ट डेब्‍यू टीम – इंग्‍लैंड
-वनडे डेब्‍यू टीम – जिम्‍बाब्‍वे
-    वनडे में उनका सर्वोच्‍च स्‍कोर 39 रन रहा है।

जमा चुके हैं तिहरा शतक
घरेलू क्रिकेट में कर्नाटक की ओर से खेलते हुए भी करुण एक तिहरा शतक बना चुके हैं. करुण ने 39 प्रथम श्रेणी मैचों में 51.10 के प्रभावी औसत से 2862रन बनाए हैं जिसमें आठ शतक शामिल हैं। इस दौरान 328 उनका टॉप स्‍कोर रहा है! यह तिहरा शतक उन्‍होंने तमिलनाडु के खिलाफ बनाया था।


जोधपुर में जन्‍म हुआ, कर्नाटक से खेलते हैं
करुण कलाधरन नायर का जन्‍म राजस्‍थान के जोधपुर से हुआ. बाद में उनका परिवार कर्नाटक शिफ्ट हो गया। इसीलिए वे घरेलू क्रिकेट में कर्नाटक की ओर से खेलते हैं। कर्नाटक की ओर से जूनियर वर्ग में खेलने के अलावा वे भारत की जूनियर टीम का भी प्रतिनिधित्‍व कर चुके हैं।

आईपीएल की टीमें
नायर आईपीएल में राजस्‍थान रायल्‍स, दिल्‍ली डेयरडेविल्‍स और रायल चैलेंजर्स बेंगलुरू टीम की ओर से खेल चुके हैं।   अभी दिल्‍ली के लिए खेलते हैं।

Sunday 4 December 2016

भारतीय राजनीति की धुरी जयलिलता

जयललिता, ये नाम सिर्फ तमिलनाडु की मुख्यमंत्री भर का नहीं था..ये नाम भारतीय राजनीति की नई लकीर खींचने वाली उस महिला का था जिसने हमेशा प्रयोगों की राजनीति की। ये नाम उस आयरन लेडी का था जिसको कभी घुटने टेकना मंजूर नहीं था। ये नाम हार और जीत के उतार चढ़ाव से गुजरने वाली उस शानदार शख्सियत का है जिसने मोहब्बत से नफरत तक सब कुछ दिल खोल कर ही किया।
दरअसल, खूबसूरत अभिनेत्री रहीं जयललिता अन्य महिला नेताओं से बिलकुल अलग थीं। उन्हें न तो कभी ममता बनर्जी की तरह तुनुकमिजाजी की राजनीति करनी आई और न ही उन्होंने मायावती की तरह हमेशा ही जातीय समीकरण बिठाए। यह भी सच है कि जयललिता ने क्षत्रप राजनीति करने वाले अन्य नेताओ से खुद को दूर ही रखा। उन्होंने कभी राजनीतिक प्यास के लिए नितीश कुमार और लालू यादव की तरह मूल्यों को नजरअंदाज नहीं किया। जयललिता को अपने राज्य और वोटरों से सिर्फ वोट की मोहब्बत नहीं रही। उन्होंने राज्य के लोगों को सच में वो प्यार दिया जिसमें 'अम्मा' वाली खुशबू आती थी। तभी तो वो 6वीं बार मुख्यमंत्री भी बनीं। कहा ये भी जाता है कि अम्मा के नाम से मशहूर जयललिता को अपनी आलोचना पसंद नहीं आती थी लेकिन फिर भी लोगों ने प्यार दिया। उनके कार्यकर्ता और समर्थक उन्हें भगवान की तरह पूजते हैं और जयललिता ऐसी श्रद्धा का बुरा नहीं मानतीं थीं। आयकर विभाग से लेकर विपक्षी पार्टियों तक से जयललिता परेशान हुईं । आलोचकों ने उनकी साड़ी से लेकर सैन्डल तक गिन लिए लेकिन जयललिता ने इसका न कभी बुरा माना और न कभी हार माना। और उनकी यही अदा शायद तमिलनाडु के लोगों को पसंद आ गई। भारतीय महिला समाज के लिए प्रेरणा बन चुकीं 'अम्मा' पिछले कई दिनों से अस्पताल में नई चुनौती से निपट रही थीं। दुखद, जयललिता इस दुनिया में  नहीं रहीं लेकिन वह अम्मा बन कर दिलों में राज करेंगी।         

15 साल की उम्र में अभिनय

जयललिता का जन्म एक ‍तमिल परिवार में 24 फरवरी, 1948 में हुआ और वो कर्नाटक के मेलुरकोट गांव में पैदा हुई। मैसूर में संध्या और जयरामन दंपति के ब्राह्मण परिवार में जन्मीं जयललिता की शिक्षा चर्च पार्क कॉन्वेंट स्कूल में हुई। जयललिता दो साल की थीं जब पिता का निधन हो गया. उनकी मां जयललिता को साथ लेकर बेंगलुरू चली गई थीं। वहां मां ने तमिल सिनेमा में काम करना शुरू कर दिया जब जयललिता स्कूल में पढ़ ही रही थीं तभी उनकी मां ने उन्हें फिल्मों में काम करने के लिए राजी कर लिया था। उनकी पहली फिल्म आई एक अंग्रेजी फिल्म ‘एपिसल’ । 15 साल की उम्र में तो उन्होंने कन्नड़ फिल्मों में अभिनेत्री का काम करना शुरू कर दिया था।

स्कर्ट पहन सबको चौंकाया

दिलचस्प ये है कि जयललिता उस दौर की पहली ऐसी अभिनेत्री थीं जिन्होंने स्कर्ट पहन कर भूमिका की जिसे उस दौर में बड़ी बात माना गया। उस जमाने के सबसे लोकप्रिय अभिनेता एम जी रामचंद्रन के साथ उनकी जोड़ी बहुत ही मशहूर हुई। 1965 से 1972 के दौर में उन्होंने अधिकतर फिल्में एमजी रामचंद्रन के साथ की। फिल्मी कामयाबी के दौर में उन्होंने 300 से ज़्यादा तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और हिंदी फिल्मों में काम किया।

दो लाख कर्मचारियों को किया था बर्खास्त

अपने राजनीतिक गुरु एम जी रामचंद्रन के साथ उनका दूसरा दौर राजनीति में शुरू हुआ। एमजी रामचंद्रन जब राजनीति में चले गए तो करीब दस साल तक उनका जयललिता से कोई नाता नहीं रहा लेकिन 1982 में एम जी रामचंद्रन उन्हें राजनीति में लेकर आए। जयललिता 1991 में  पहली बार मुख्यमंत्री बनीं। वह सख्ती से सरकार चलाने के लिए भी चर्चा में रहीं। 2001 में जब सरकारी कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी थी तो जयललिता ने एक साथ दो लाख कर्मचारियों को ही बर्खास्त कर हलचल मचा दी थी।

Friday 25 November 2016

नोट की कीमत तुम क्या जानो...

एटीएम से जब कड़क नोट बाहर आते हैं तो ये बहुत अच्छा लगता है लेकिन क्या कभी सोचा है कि नोट छापने में कितना पैसा लगता है? आखिर आरबीआई और सरकार मिलकर कितना खर्च करते हैं? आइए हम समझाते हैं आपको यह गणित - 

किस नोट की छपाई में कितना पैसा?
05 रुपये का नोट छापने में 50 पैसा खर्च होता है
10  रुपये के लिए 0.96  पैसे की लागत आती है
50 का नोट छापने में 1 .81 रुपये का खर्च है
100  का नोट छापने में 1.79  रुपये की लागत आती है
500 और1000 रुपये के नोट (जो बंद हो चुके हैं) छापने में 3.58 और 4.06 रुपये का खर्च आता था।
10 के सिक्के की छपाई में 6.10 रुपये खर्च होते हैं।
2016 जून तक रिजर्व बैंक ने 2120 करोड़ करेंसी नोट छपे हैं, जिसके लिए करीब 3421 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं।
पेपर छापने वाला सिर्फ एक कारखाना
देश में नोट के पेपर छापने वाला एकमात्र कारखाना मध्यप्रदेश के होशांगाबाद में स्थित 'सिक्योरिटी पेपर मिल' है। इसकी स्थापना 1968 में हुई थी और यह सिर्फ 2.8 मैट्रिक टन पेपर बना सकता है। बाकी के पेपर जर्मनी, जापान और ब्रिटेन से मंगवाए जाते रहे हैं। 2015 में होशांगाबाद में एक नया यूनिट खोला गया और मैसूर सिक्योरिटी प्रेस के पास एक नए करंसी पेपर बनाने वाले प्लांट का काम शुरू किया गया। मैसूर वाली फैक्ट्री करीब 12,000 मैट्रिक टन नोट के लिए इस्तेमाल होने वाला कागज बना पाएगा।

नोट छापने वाली पहली फैक्ट्री नासिक में
देश का पहली नोट छापने वाली फैक्ट्री नासिक में 1926 में स्थापित की गई थी और वह 1928 से नोट छाप रही है। इसके बाद 1975 में देवास, मध्य प्रदेश में दूसरी, 1999 में मैसूर में तीसरी और 2000 में सालबोनी, पश्चिम बंगाल में चौथी नोट छापने वाली प्रेस की स्थापना की गई।  हालांकि जो नए 2000 और 500 के नोट आ रहे हैं उनमें से कुछ देश में बने हुऐ हैं।

यह भी जान लीजिए 
-  जिस कागज पर छपाई होती है उसका बेहद छोटा सा हिस्सा ही देश में बनता है।
- होशंगाबाद एसपीएम में सिर्फ पांच फीसदी करेंसी पेपर की छपाई ही होती है
- ज्यादातर कागज और स्याही जर्मनी की जीएस्की एंड डेवरेंट या ब्रिटेन की दे ला रू कंपनी से मंगवाया जाता है।

Friday 11 November 2016

सुनो टाइगर, ट्रंप आ गया

2014 में ट्रंप की मुलाकात हुई थी इवानोविच से
विश्व के सबसे ताकतवर देश अमेरिका के नए मुखिया डोनाल्ड ट्रंप महिलाओं की 'ठर्की' छवि किसी से छुपी नहीं है। वह महिलाओं के लिए 'प्यार' बरसाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। चुनाव प्रचार के दौरान न जाने कितनी महिलाओं ने ट्रंप पर संगीन आरोप लगाए। किसी ने कहा कि वह जबरन स्मूच करता है तो किसी ने बताया कि ट्रंप बिना इजाजत के भी महिलाओं की चेंजिंग रूम में घूस जाता है। वह किसी के लिए 'सेक्शुअल दरिंदा’ है तो किसी के लिए हवसी इंसानी।  बहरहाल अब सच यह है कि वह अमेरिका के नए राष्ट्रपति हैं। अब जब वह अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए हैं तब कुछ महिलाएं विरोध भी कर रही हैं वहीं कुछेक डरी हुई हैं । इन सब के बीच अमेरिका से कोसों दूर बैठा एक दिग्गज फुटबॉलर भी है, जो ट्रंप के आने से संभवतः डर गया है। दरअसल, ट्रंप सर्बिया की महिला टेनिस खिलाड़ी एना इवानोविच की खूबसूरती के दीवाने हैं। दीवानगी भी ऐसी कि तीन साल पहले 70 वर्षीय ट्रंप ने सर्बिया के प्रधानमंत्री इविका डाकिक से मुलाकात के दौरान इवानोविच की खूबसूरती की तारीफ कर डाली। डोनाल्ड ट्रंप की 2014 में सर्बिया के प्रधानमंत्री से मुलाकात व्यापारिक निवेश को लेकर हुई थी। उन्होंने इस दौरान पूर्व नंबर एक खिलाड़ी इवानोविच में काफी दिलचस्पी दिखाई। यही नहीं, ट्रंप ने यहां तक कह दिया था कि मैंने अपनी जिंदगी में अब तक जितनी महिलाओं को देखा है उनमें से इवानोविच सबसे खूबसूरत हैं।' वर्तमान में विदेश मंत्री डाकिक ने बताया कि तब ट्रंप 15 मिनट तक इवानोविच और उनकी खूबसूरती के बारे में ही बात करते रहे। इवानोविच ने हाल ही में जर्मनी के फुटबॉलर बास्टियन श्वांटाइगर से शादी की है। टाइगर ने हाल ही में अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल को अलविदा कह दिया है। बास्टियन श्वांटाइगर 2014 में विश्व चैंपियन बनी जर्मनी की टीम के अहम सदस्य थे।


फिर भी महिलाओं की पसंद ट्रंप!
यौन उत्पीड़न के तमाम आरोपों के बावजूद बड़ी संख्या में महिला वोटरों ने डोनाल्ड ट्रंप को व्हाइट हाउस पहुंचने में मदद की। ‘सीएनएन’ के एक्जिट पोल के मुताबिक अपनी प्रतिद्वंद्वी डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन को 54 प्रतिशत महिला वोट हासिल होने के साथ ट्रंप को 42 प्रतिशत महिला वोटरों का साथ मिला जिससे उनकी जीत का रास्ता मजबूत हो गया। वहीं 53 प्रतिशत श्वेत महिला वोटरों ने रिपब्लिकन उम्मीदवार का समर्थन किया उनमें अधिकतर (62 प्रतिशत) कॉलेज नहीं पहुंची हैं। चुनाव के नतीजों ने पूर्वानुमानों को खारिज कर दिया कि महिलाओं के खिलाफ ट्रंप की लिंगभेदी और अभद्र टिप्पणी से महिला वोटर दूर हो जाएंगी।







Thursday 27 October 2016

इस लड़ाई में ऑस्ट्रेलिया कहां?


अगर कोई आपसे सवाल पूछे - लंबे समय तक क्रिकेट की बादशाहत किस टीम के पास रही है ? निश्चित ही आपका जवाब ऑस्ट्रेलिया होगा। और इस जवाब में दम भी है क्योंकि ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट ने लगभग तीन दशक तक विश्व क्रिकेट पर एकछत्र वर्चस्व बनाए रखा। जीत की जो बयार ऑस्ट्रेलियाई टीम में चली उस टीम को एलन बॉर्डर और स्टीव वॉ से लेकर रिकी पोटिंग तक ने संभाला।  हालांकि समय - समय पर उन्हें हार भी मिली लेकिन इससे कंगारूओं की ख्याति पर असर नहीं पड़ा। वह अपने अग्रेसन और जुझारू क्रिकेट को हमेशा ही निखारते रहे। चार बार वनडे क्रिकेट की विश्व चैंपियन कोई देश बन जाए और टेस्ट क्रिकेट की रैंकिंग में करीब एक दशक तक नंबर वन रह जाए तो समझ लीजिए उस टीम में जो भी खिलाड़ी आ रहा है अपना बेस्ट देकर जा रहा है। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। अब ऑस्ट्रेलियाई टीम हर बार हार के नए रिकॉर्ड बनाती है। अभी हाल ही में दक्षिण अफ्रीका ने वनडे में 5-0 से हराकर ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट के अच्छे दिन की ताबूत में आखिरी कील दे मारी है। दरअसल, ऑस्ट्रेलियाई टीम अभी एक त्रासदी के दौर से गुजर रही है। टीम में कप्तान स्टीवन स्मिथ को छोड़ दें तो कोई ऐसा खिलाड़ी नहीं नजर आ रहा है जो ऑस्ट्रेलिया को नई संजीवनी दे सके। कंगारू टीम की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि उसके अनुभवी पूर्व खिलाड़ी भी वर्तमान खिलाड़ियों को क्रिकेट की बारीकियां सीखाने की बजाए आपस में ही भिड़े हैं। मसलन, अभी कुछ दिनों पहले ही पूर्व ऑस्ट्रेलियाई कप्तान माइकल क्लार्क ने एक टीवी इंटरव्यू में साथी खिलाड़ी और ऑलराउंडर शेन वॉटसन को टीम का 'ट्यूमर' बताया था तो अब वॉटसन के दोस्त और तेज गेंदबाज मिशेल जॉनसन ने क्लार्क को ही जहरीला बता दिया है। हालांकि वॉटसन ने इस पूरे मामले पर अभी कुछ ऐसा नहीं बोला है जिससे, सुर्खियां बन जाएं।  तर्क देने वाले यह कह सकते हैं कि जॉनसन की आत्मकथा आ रही है शायद इसलिए वह ऐसा बयान दे रहे हैं। लेकिन सच यह है कि 73 टेस्ट मैच खेल चुके जॉनसन और पूर्व कप्तान माइकल क्लार्क के रिश्तों मेंं 2013 के बाद से ही खटास आ गई थी। बहरहाल, जॉनसन ने दावा किया है कि
माइकल क्लार्क की अगुवाई में कंगारू टीम जहरीली हो गई थी। जॉनसन ने साथ ही कहा कि टीम के कई खिलाड़ी क्लार्क के नेतृत्व में नहीं खेलना चाहते थे। 2013 में भारत दौरे से पहले कोच मिकी आर्थर द्वारा दिए गए टास्क को नहीं कर पाने की वजह से प्रतिबंधित होने वाले चार खिलाड़ियों में से एक जॉनसन ने बताया कि 2011 में रिकी पोंटिंग के कप्तान छोड़ने के बाद से ऑस्ट्रेलियाई टीम खंडित हो गई थी।  जॉनसन ने कहा,  यह निश्चित ही शानदार बदलाव था लेकिन यह एक टीम नहीं थी। टीम गुटों में बंट गई थी और यह बेहद जहरीला था। यह धीरे-धीरे तैयार हो रहा था लेकिन सभी इसको देख सकते थे। टीम का हर सदस्य इसको महसूस कर रहा था। उस वक्त कुछ भी नहीं किया जा सका। उन्होंने आगे कहा कि यह सुखद नहीं था लेकिन जब आप अपने देश के लिए खेलते हैं तो माना जाता है कि आप एंन्जॉय करेंगे। जॉनसन ने आगे कहा कि हम सब के लिए यह बेहद ही खराब अनुभव और समय रहा। जॉनसन और क्लार्क के रिश्तों में 2013 के बाद खटास आ गई। इस पर जॉनसन ने कहा कि मुझे इस बारे में नहीं पता कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन हां मैं भी अन्य लोगों की तरह महसूस कर रहा था। 35 वर्षीय जॉनसन ने अपनी बायोग्राफी रीजिलिएन्ट में क्लार्क संग अपने रिश्तों का जिक्र किया है।  यह लड़ाई किस हद तक जाएगी और इसमें अभी और कौन-कौन से किरदार कूदेगा, यह देखना दिलचस्प होगा।  बहरहाल, इन सब के बीच यह तो स्पष्ट हो गया है कि ऑस्ट्रेलिया के पूर्व खिलाड़ी अभी अपनी सारी एनर्जी आपसी लड़ाई में लगा रहे हैं और टीम की तरक्की से किसी को कोई वास्ता नहीं रह गया है।

Sunday 23 October 2016

ट्रंप में हमारी दिलचस्पी क्यों?

अमेरिका में किसकी सरकार बनेगी, इस पर जितनी बहस वहां हो रही है उससे कहीं ज्यादा चर्चा भारतीय सोशल मीडिया पर है। भारतीय सोशल मीडिया पर आए दिन हिलेरी क्लिंटन और डोनाल्ड ट्रंप ट्रेंड कर रहे हैं।  एक सर्वे में पता चला है कि इन दिनों भारत का हर चौथा यूजर अमेरिका चुनाव से संबंधित ट्वीट कर रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से अस्सी फीसदी ट्वीट या फेसबुक पोस्ट रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के लिए हो रहे हैं। ऐसे में सवाल है कि क्या सच में भारतीय सोशल मीडिया के धुरंधर अमेरिका की राजनीति में इतनी दिलचस्पी रख रहे हैं या फिर इसका कुछ और हीं खेल है? आइए हम समझाते हैं इस गणित को। दरअसल, चुनाव को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी मीडिया मुगल डोनाल्ड ट्रंप ने सोशल मीडिया पर कब्जा जमा रखा है और उन्होंने इसका जाल भारत तक फैलाया है। डोनाल्ड ट्रंप ने करीब साल भर पहले ही इसकी शुरुआत कर दी थी। यहां तक कहा जाने लगा था कि डोनाल्ड ट्रंप किसी पार्टी के नहीं, ट्विटर के उम्मीदवार हैं। बहरहाल, भारत में ट्रंप के लिए काम उत्तर प्रदेश के नोएडा से साइबर टीम कर रही है। “जनमत कॉनेक्ट” नाम की इलेक्शन कैंपेन मैनेजमेंट करने वाली ये टीम अमेरिकी प्रवासी भारतीयों को ट्रंप के पक्ष में समर्थन देने के लिए कॉंटेंट डेवलपमेंट का काम कर रहे हैं। इस टीम के क्रिएटिव हैड गिरीश पाण्डेय के मुताबिक “जनमत कॉनेक्ट” की टीम इंडिया सपोर्ट ट्रंप, ट्रस्ट ट्रंप और गियर अप ट्रंप तीन तरह के अभियान के लिए कॉन्टेंट डेवलपमेंट कर रही है।  इस काम को करने के लिए डोनाल्ड ट्रंप की समर्थक मेरिमा विचर भी सहयोग दे रही हैं। वह ट्रंप के ऊपर एक किताब लिख चुकी हैं और उनके चुनावी अभियान प्रबंधन की टीम का अहम हिस्सा हैं।  इस टीम का मकसद अमेरिका में रह रहे प्रवासी भारतीय वोटरों को लुभाना होता है। अमेरिकी चुनाव के दौरान डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ और जिक्र करना इसी रणनीति का हिस्सा है। यहां से टीम कई तरह के सलाह देती है।

सोशल फ्रेंडली हैं अमेरिकी युवा
एक अमेरिकी संगठन के शोध में पता चला कि वहां 18 से 24 साल तक के युवाओं के बीच सोशल मीडिया एक बहुत बड़ा संपर्क सूत्र है। यह वर्ग सबसे पहले सोशल मीडिया पर कोई भी जानकारी हासिल करता है। इस आयु वर्ग के मतदाताओं की संख्या 34 प्रतिशत बताई जाती है। अमेरिका में हुई एक अन्य रिसर्च के अनुसार 15 से 25 वर्ष की आयु के लोग 41 प्रतिशत हैं और वह अपने किसी भी राजनीतिक कार्य के लिए सोशल मीडिया पर ही चर्चा करना उचित समझते हैं। ये युवा सोशल वेबसाइट पर तो अपने विचारों को प्रकट करते ही है, साथ ही मोबाइल के एप्स पर भी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बारे में टिप्पणियां और उनके वीडियो शेयर करते है।



Tuesday 13 September 2016

साहेब के खौफ का भ्रम...

शहाबुद्दीन की रिहाई के कुछ ही घंटों बाद मेरे एक मित्र ने कॉल कर मुझसे पूछा, क्या सच में 'साहेब' की वापसी से सीवान सहम गया है? चूंकि मैं सीवान से हूं तो संभवतः मेरे मित्र ने मुझमें ग्राउंड रिर्पोटर जैसा कुछ देखा होगा। हालांकि मेरे लिए इस सवाल का जवाब देना मुश्किल नहीं था फिर भी बोलने से पहले काफी वक्त लिया। दरअसल, इस सवाल ने एक ही झटके में होश संभालने के बाद के उस 15 साल के काल को सामने लाकर रख दिया, जिसका मैं किसी से कभी जिक्र करना पसंद नहीं करूंगा। वो 15 साल, जिसमें मैंने हत्या और रंगदारी के रोज नए-नए किस्से सुने और हर दिन हत्या करने के तरीकों के बारे में अखबारों में पढ़ा। वो 15 साल, जिसमें मैं क्या,कोई भी शहाबुद्दीन को उनके नाम से नहीं बल्कि 'साहेब' से जानता और संबोधित करता था और अगर किसी ने गलती से शहाबुद्दीन  बोल दिया फिर तो उसकी खैर नहीं। घर वालों से लेकर बाहर वाले तक खामोश रहने की नसीहत देते रहे।  यह जितना सच है उससे कहीं अधिक सच यह है कि अब सीवान में वैसी स्थिति नहीं है। यह अलग बात है कि कुछ लोग साहेब रिहाई के  बाद भय का दंभ भर रहे हों लेकिन उन्हें भी बखूबी एहसास है कि यहां अब बच्चा- बच्चा शहाबुद्दीन को साहेब नहीं बल्कि शहाबुद्दीन को नाम से बोलने का माद्दा रखता है।  इससे भी इंकार नहीं कर सकते कि भय का माहौल अगर शहाबुद्दीन ने बनाया तो वह सिर्फ सीवान शहर तक ही सीमित था। शहाबुद्दीन इसलिए रॉबिनहुड बना क्योंकि लालू यादव जैसे स्वार्थसाधक राजनीतज्ञ की शरण में था और दूसरी खास बात उसके साथ रही कि वह  मुसलमान है।
  अगर उसके भय की बात करें तो जो लोग सीवान को जानते हैं उन्हें बखूबी पता है। सच तो यह है कि सीवान का पड़ोसी जिला गोपालंगज है और वहां कभी सतीश पांडे के आगे साहेब का 'स्पार्क' नहीं चला तो जिले में ही सुरेश चौधरी, गुड्डु पंडित, अयुब-रईस और अजय सिंह जैसों अपराधियों ने चुनौती दी। यह बात 11 साल पहले की थी ।

यह तब की बात है जब साहेब की खूब चलती थी और जंगलराज के वह मुख्य किरदार थे।  अब तो ऐसा कुछ है भी नहीं। शहाबुद्दीन का कथित आतंक भी खत्म हो चुका है। मीडिया से लेकर सोशल मीडिया की आवाज भी मुखर हो चली है। ललकारने वाले बहुत हैं।ऐसे में जो लोग यह समझ रहे हैं कि 11 साल बाद एक बार फिर से उसका भय सीवान के लोगों में आ गया है तो निश्चित ही वह भ्रम में हैं। जिन लोगों में भय का जो भ्रम है वह जितनी जल्द हो सके इस पट्टी को उतार लीजिए।     


हिंदी दिवस पर खासः सिंहासन की सीढ़ियों पर बैठी राजभाषा

गांधीजी ने हिंदी को जनमानस की भाषा कहा था, तो इसी हिंदी की खड़ी बोली को अमीर खुसरो ने अपनी भावनाओं को प्रस्तुत करने का माध्यम बनाया था, लेकिन दुर्भाग्य है कि जिस हिंदी को लेखकों ने अपनाया, जिसे स्वतंत्रता सेनानियों ने देश की शान बताया, उसे देश के संविधान में राष्ट्रभाषा नहीं, सिर्फ राजभाषा का दर्जा दिया गया। हालांकि मौजूदा दौर में हिंदी का वर्चस्व देश-विदेश में बढ़ा है। देश की राजभाषा अब धीरे-धीरे, पर दृढ़ता से, राष्ट्रभाषा के सिंहासन की सीढ़ियां चढ़ती दिख रही है..

किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्र पहचान उसके साथ जुड़ी एक ऐसी भाषा से भी होती है, जो उस पूरे राष्ट्र में आसानी से बोली, सुनी और समझी जाती है। भारत जैसे विविध भाषा-भाषी राष्ट्र में निर्विवाद एक ऐसी भाषा, जो देश के अधिकांश हिस्सों मे बोली और समझी जाती हो और जिसे राष्ट्रभाषा का दर्जा देकर देश की स्वतंत्र पहचान से जोड़ा जाए, यह बड़ा कठिन कार्य था। 14 सितंबर 1949 को एक महत्वपूर्ण निर्णय के द्वारा देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली हिंदी को राजभाषा का सम्मानित दर्जा दिया गया। उस दौरान भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा में 13 सितंबर, 1949 के दिन बहस में भाग लेते हुए तीन महत्वपूर्ण बातें कही थीं। पहली, किसी विदेशी भाषा को अपनाकर कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता।
दूसरी, कोई भी विदेशी भाषा आम लोगों की भाषा नहीं हो सकती। और तीसरी, भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने, अपनी आत्मा को पहचाने के लिए हमें हिंदी को अपनाना चाहिए। गांधी जी ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। 1918 में हिंदी साहित्य सम्मलेन की अध्यक्षता करते हुए गांधी जी ने कहा था कि हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। 1949 में जब हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था तब तय किया गया था कि 26 जनवरी, 1965 से सिर्फ हिंदी ही भारतीय संघ की एकमात्र राजभाषा होगी। लेकिन 15 साल बीत जाने के बाद जब इसे लागू करने का समय आया तो तमिलों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। बकायदा 13 अक्तूबर 1957 को हिंदी विरोध दिवस के रूप में मनाया। उस समय तमिलनाडु, मद्रास, केरल और अन्य जगह हिंदी के विरुद्ध फैल रहे आंदोलन दंगों का रूप लेने पर आमादा हो गए थे। पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने फैसला लिया कि जब तक सभी राज्य हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप मे स्वीकार नहीं करेंगे, अंग्रेजी हिंदी के साथ राजभाषा बनी रहेगी। इसका परिणाम यह निकला कि आज भी हिंदी अस्तित्व के लिए लड़ रही है। जानकार मानते हैं कि अगर आज भी पूरा हिंदुस्तान एक होकर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए राजी हो जाए, तो संविधान में उसे यह स्थान मिल सकता है।
अमीर खुसरो की हिंदी
अमीर खुसरो ने हिंदी को अपनी मातृभाषा कहा था। इसके बाद हिंदी का प्रसार मुगलों के साम्राज्य में भी हुआ। हिंदी के प्रचार-प्रसार में संत संप्रदायों का भी विशेष योगदान रहा, जिन्होंने इस जनमानस की बोली की क्षमता और ताकत को समझते हुए अपने ज्ञान को इसी भाषा में देना सही समझा। भारतीय पुनर्जागरण के समय भी राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन और महर्षि दयानंद जैसे महान सामाजिक नेताओं ने हिंदी का प्रसार किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी गद्य को मानक रूप प्रदान किया। महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और सुमित्रानंदन पंत जैसे रचनाकारों ने भी हिंदी का प्रसार किया।

हिंदी सिनेमा का योगदान
गीतकार गुलजार का दावा है कि हिंदी के प्रसार-प्रचार में सबसे बड़ा योगदान हिंदी सिनेमा का है। हिंदी फिल्मों की वजह से ही पूरे हिंदुस्तान में हिंदी संपर्क की भाषा मानी जाती है। अमेरिका में हिंदी पढ़ा रहीं अनिल प्रभा कुमार का कहना है कि वह अपने छात्रों को हिंदी सिखाने के लिए हिंदी गानों का सहारा लेती हैं। बताया कि कैसे वह भविष्काल पढ़ाने के लिए हिंदी गानों को इस्तेमाल करती हैं, जैसे हर दिल जा प्यार करेगा का प्रयोग होता है। इसी को एक्टिव वॉयस में पढ़ाने को वह कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है गाने का सहारा लेती हैं।

उज्ज्वल भविष्य के लिए अपनी भाषा जरूरी
महावीर प्रसाद द्विवेदी लका कहना था, ‘अपने देश, अपनी जाति का उपकार और कल्याण अपनी ही भाषा के साहित्य की उन्नति से हो सकता है।’ महात्मा गांधी का कहना रहा, ‘अपनी भाषा के ज्ञान के बिना कोई सच्चा देशभक्त नहीं बन सकता। समाज का सुधार अपनी भाषा से ही हो सकता है। हमारे व्यवहार में सफलता और उत्कृष्टता भी हमारी अपनी भाषा से ही आएगी।’ कविवर बल्लतोल कहते हैं, ‘आपका मस्तक यदि अपनी भाषा के सामने भक्ति से झुक न जाए तो फिर वह कैसे उठ सकता है।’ डॉ. जॉनसन की धारणा थी, ‘भाषा विचार की पोशाक है। भाषा सभ्यता और संस्कृति की वाहन है और उसका अंग भी।’

हिंदी मीडिया घर-घर
आज भारत में हिंदी के अखबारों की प्रसार संख्या सबसे अधिक है।  यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, यानी हिंदी का अधिक प्रसार हो रहा है, इसमें कुछ हद तक विज्ञापन व बाज़ार की भी भूमिका है। आज तमाम विज्ञापन हिंदी या हिंग्लिश में जारी होते हैं, क्योंकि उपभोक्ता तो हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में ही सबसे अधिक हैं।  टीवी न्यूज चैनलों ने भी हिंदी को बढ़ावा दिया है। जबसे कार्टून नेटवर्क, डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफिक, एनिमल प्लेनेट आदि ने अपने कार्यक्रम हिंदी में देना शुरू किए हैं, उन्हें देखनेवालों की तादाद दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ रही है।

परदेस में हिंदी की जलवा
मॉरिशस में 1834 से बिहार के छपरा, आरा और उत्तर प्रदेश के गाजीपुर, बलिया, गोंडा आदि जिलों से कईं सैंकड़ों की तादाद में बंधुआ मजदूरों का आगमन हुआ। महात्मा गांधी जब 1901 में मॉरिशस आए तो उन्होंने भारतीयों को शिक्षा तथा राजनीतिक क्षेत्रों में सक्रिय भाग लेने के लिए प्रेरित किया। धार्मिक तथा सामाजिक संस्थाओं के उदय होने से यहां हिंदी को व्यापक बल मिला। फिजी में पांच मई 1871 में गिरमिट प्रथा के अंतर्गत आए प्रवासी भारतीयों ने इस देश को जहां अपना खून-पसीना बहाकर आबाद किया, वहीं हिंदी भाषा की ज्योति भी प्रज्जवलित की। फिजी के संविधान में हिंदी भाषा को मान्यता प्राप्त है। कोई भी व्यक्ति सरकारी कामकाज, अदालत तथा संसद में भी हिंदी भाषा का प्रयोग कर सकता है। नेपाल में हिंदी प्रेम हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए काफी है। श्रीलंका में भारत से आई हिंदी पत्र-पत्रिकाएं जैसे बाल भारती, चंदा मामा, सरिता आदि बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं। यहां के विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाई जा रही है। संयुक्त अरब अमीरात में एफएम रेडियो के कई ऐसे चैनल हैं, जहां चौबीसों घंटे नए अथवा पुराने हिंदी गाने बजते हैं। ब्रिटेन के लंदन, कैंब्रिज तथा यार्क विश्वविद्यालयों में हिंदी पठन-पाठन की व्यवस्था है। बीबीसी से हिंदी कार्यक्रम प्रसारित होते हैं। अमेरिका में येन विश्वविद्यालय में सन 1815 से ही हिंदी की व्यवस्था है।

हिंदी का नया बाजार
यह सम्भावना जताई जा रही है कि 2017 तक भारत में इंटरनेट के उपयोगकर्ता 50 करोड़ हो जाएंगे, जिसमें से 49 करोड़ लोग मोबाइल फोन के माध्यम से इंटरनेट का उपयोग करेंगे। इस समय भारत में हर पांचवां उपयोगकर्ता हिंदी वाला है। यह हिंदी का नया बाजार है। ब्लॉगिंग, वेबसाइट्स के बाद फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल साइट्स ने बड़े पैमाने पर हिंदी समाज को जोड़ा, लोगों के बीच हिंदी में संवाद को संभव बनाया। सोशल मीडिया में हिंदी धीर-धीरे अपनी धाक जमाने में सफल हो रही है। इसके सकारात्मक संकेत दिखाई देने लगे हैं। इसने सबसे बड़ा मिथ यह तोड़ा है कि हिंदी में पाठक नहीं हैं। आज कईं ऐसी साहित्यिक वेबसाइट्स हैं, ब्लॉग हैं जिनकी पाठक संख्या लाखों में है। वह भी बिना किसी सनसनी के, बिना अश्लीलता परोसे। जबकि यह आम धारणा रही है कि जो मूल्यहीन साहित्य होता है, जो लोकप्रियता के मानदंडों के ऊपर आधारित होता है उसका ही बड़ा पाठक वर्ग होता है। उदाहरण के रूप में जासूसी, रूमानी साहित्य की धारा का जिक्र किया जाता रहा है। लेकिन सोशल मीडिया ने यह दिखा दिया है कि अच्छे और बुरे साहित्य के सांचे अकादमिक ही हैं. फेसबुक जैसे माध्यम हों या ब्लॉग्स, वेबसाइट्स तथाकथित गंभीर समझे जाने वाले, वैचारिक कहे जाने वाले साहित्य के लिए पाठक कम नहीं हैं बल्कि बढे़ ही हैं। यह बात कही जा सकती है कि टीवी क्रांति के दौर में जो पाठक हिंदी से जुदा हो गया था, सोशल मीडिया ने उसकी वापसी करवा दी है। यह कहना अतियशयोक्ति नहीं होगी कि तरंग पर सवार हिंदी सही मायने में आज एक गांव से उठकर वैश्विक धरातल पर पहुंच गई है।

हिंदी आती है 80 करोड़ की समझ में
दुनिया में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी तीसरे नंबर पर है। लेकिन इसे भारतीय कूटनीति की विफलता कहें या कुछ और, हिंदी संयुक्त राष्ट्र में प्रयोग की जानी वाली 6 अधिकारिक भाषाओं में शामिल नहीं हैं। जबकि दुनिया में तकरीबन 80 करोड़ लोग इस भाषा को समझ सकते हैं। साफ तौर पर बात करने वाले लोगों का आंकडा देखे तो हिंदुस्तान में 45 करोड़ नागरिक इसी में बात करते हैं। इस भाषा की वर्णमाला में 56 अक्षर हैं, जबकि शब्दों की संख्या बहुत अधिक।



Thursday 8 September 2016

उसके ठुमकों से टूटती हैं बेड़ियां


जब वह मंच पर ठुमके लगाती है तो पीछे बैठे 'मर्द' घूरते रहते हैं, उस पर वो पैसे सिर्फ इसलिए लुटाते हैं ताकि वह झुके और उसके स्तन का ऊपरी हिस्सा दिख सके या फिर उस ब्रा की स्ट्रिप ही दिख जाए, जिसके लिए घंटों से 'मर्द' उतावले हैं। वह जब दुपट्टा उतार कर बेफिक्र हो डांस करती है तब मोबाईल से वीडियो बनाने वाले मंच के करीब पहुंच जाते हैं। दबंग तो उसको जानबूझकर छु भी लेते हैं। जी हां, ये वो 'मर्द' हैं जो बेटियों के पैदा होने से बेहतर अपनी बीवी को बांझ रखना समझते हैं। ये वही 'मर्द' हैं जिन्हें अपने बेटे के लिए बहू आयात करनी पड़ती है। इसी समाज ने उस ठुमके लगाने वाली सपना चौधरी को जिंदगी और मौत के बीच में लाकर पटक दिया था। दरअसल, उन्हें इसका अंदाजा भी नहीं होगा कि इस बंजर जमीं पर बेड़ियां तोड़ने वाली सपना जैसी बेटियां भी पैदा होती हैं। सपना सिर्फ रागिनी गाने वाली गायिका या डांसर ही नहीं है, वह हर बेड़ियों को अपने अंदाज में तोड़ने वाली महिला भी है। सपना ने उस खोखले समाज को अपने ठुमके पर नचाया, जिसमें बुजुर्ग से लेकर बच्चे तक 'लड़की' के नाम पर हवस की लार टपका लेते हैं। सच तो यह है कि वहां के लोगों ने कभी न सपना को स्वीकारा और न ही उनके जैसी लड़कियों को, जो उनकी सोच से इतर बिंदास हो मंच पर आती हैं । जब समाज के ठेकेदारों को लग रहा था कि सपना समाज को गंदा कर रही हैं उसी दौर में उनके एक प्रशंसक ने ऐसे ही मजाक में पूछ लिया, अगर आपका पति आपको डांस करने से रोके तो क्या करेंगी? इस पर सपना ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, तब अपने पति नू छोड़ दूंगी और तुझसे ब्याह रचा लूंगी। सपना के इस जवाब ने एक ही झटके में तब उन आलोचकों को शांत कर दिया जो अब तक उनके मंच पर भड़काऊ डांस और गानों पर आंखें तो सेंक रहे थे लेकिन मुंह भी बिचका रहे थे। दरअसल, सपना को ऐसा ढोंगी समाज मंजूर नहीं है। वह अपने डांस की तरह बोल्ड और बेफिक्र रहना चाहती हैं। उन्हें यह नहीं परवाह की समाज क्या कहेगा? तभी तो एक इंटरव्यू में जब सपना से पत्रकार ने पूछा कि आप कैसी जिंदगी जीना पसंद करेंगी। इस पर उन्होंने तपाक से जवाब दिया, 'म्हारी जिंदगी का फंडा से,  जो भी अच्छा लाग्ये, करो। जो दिल नू सही लाग्ये, करो। जिंदगी का कोई भरोसा नहीं। एक-एक मिन्ट को एक-एक साल की तरह जियो। बस किसी ना दिल मत दुखाओ और अगर गलती से ऐसा हो तो माफी भी मांग लो। ' वाकई सपना ऐसी ही जिंदगी जीती आ रही हैं। जब सपना को पता चला कि उनके एक गाने से खास जाति का दिल दुख गया तब उन्होंने माफी भी मांग ली लेकिन जो समाज बेटियों को पचा नहीं पाता है वह भला सपना के माफीनामे को क्यों सुने? उनके खिलाफ कानून से लेकर सोशल मीडिया तक अभियान छेड़ा गया। मां की गाली, बहन की गाली, वेश्या  और न जाने क्या-क्या... सपना के बारे में कहा गया। जिस 'मोर' के लिए वह नाचती रहीं उसने भी सपना का साथ छोड़ दिया। वह क्या कोई भी महिला सबकुछ बर्दाश्त नहीं कर सकती है। ऐसे में उन्हें शायद आत्महत्या का रास्ता ही नजर आया। बहरहाल, उन्होंने यहाँ भी मौत को नचाया और जिन्दगी की जंग जीत ली है। उम्मीद है उन बेड़ियों को तोड़ने के लिए वो फिर तैयार हैं।

इसलिए आहत हैं लोग
सपना के रागिनी ' बावली जात चमारा की' गाने से हरिजन जाति के लोग आहत हैं। दरअसल, इसमें 'चमार' और 'बावला' शब्द का इस्तेमाल किया गया है। गांव की भाषा में चमार हरिजन को कहते हैं। जबकि बावला मतलब पागल होता है।


वह गाना भी सुन लीजिए, जो बन गई है सपना के गले की फांस



ये है सपना के लिए सभ्य समाज के लोगों के विचार
किराय की औरत अपनी ओकात भूल गई ।
-सपना पंडित कहिए चौधरी नहीं हरियाणा जाट बहुल क्षेत्र है हरियाणा में प्रसिद्ध होने तथा अपनी अश्लील हरकतो से जाटों को बदनाम करने के लिए सपना पंडित अपने नाम के साथ चौधरी शब्द लगाती है बावली जात चमारां की रागनी पंडित लखमी चंद ने बाबा भीमराव के और दलितों पिछड़े वर्ग के लोगों का अपमान करने के लिए लिखी थी इन दोनों पर मुकद्दमा दर्ज किया जाए

भददे कमेंट देखने के लिए https://www.youtube.com/watch?v=nSEe7NWlRXw लिंक के कमेंट में जाएं



यह है वह 'सॉलिड बॉडी' गाना, जिससे मशहूर हुईं सपना




इसके साथ यह जरूर पढ़ें - सबकी अपनी-अपनी भावना 

  http://deepak06154.blogspot.in/2016/01/blog-post.html

Sunday 4 September 2016

मदर टेरेसाः एक शिक्षिका, जिंदगी सिखाने वाली


कोलकाता में ग़रीबों के लिए काम करने वाली रोमन कैथोलिक नन मदर टेरेसा को संत घोषित किया गया।  वेटिकन सिटी में उन्हें यह उपाधि मिली।
शिक्षा को पेशे के दायरे से हटकर देखा जाए तो सीखने की शुरुआत घर से होती है। मदर टेरेसा ने कोलकाता को अपना घर बनाया और 68 साल तक गरीबों और लाचार वर्ग की सेवा कर दुनिया को मानवता की शिक्षा दी। उनकी स्थापित की हुई संस्था, मिशनरीज ऑफ चैरिटी दुनिया के 123 देशों में 4500 सिस्टर के जरिए लोगों की सेवा निरंतर जारी रखे हुए है। 1910 में मैसेडोनिया के कोसोवर में जन्मीं टेरेसा 1950 में कोलकाता का रुख किया। यहां आने से पहले वह ऑटोमन, सर्बिया, बुल्गेरिया और युगोस्लाविया की नागरिक रह चुकी थीं। भारत उनका पांचवां और सबसे पसंदीदा घर बना। उन्होंने नन के पारंपरिक परिधानों से इतर नीले बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहनकर खुद को लोगों से जोड़ा। वह भारतीय जनमानस की नब्ज को जानती थीं। समझती थीं कि कोलकाता भी उन्हें तभी अपनाएगा, जब वह इसे अपनाएंगी। टेरेसा की संस्था ने यहां कई आश्रम, गरीबों के लिए रसोई, स्कूल, कुष्ठ रोगियों के लिए बस्ती, अनाथों के लिए घर आदि बनवाए। उनके आलोचक भी कम नहीं थे। गंदी बस्तियों में सेवा करने के कारण पश्चिमी जनमानस ने उन्हें ‘गटर की संत’ तक कहा था, लेकिन वह कहतीं थीं कि जख्म भरने वाले हाथ प्रार्थना करने वाले होंठ से कहीं पवित्र होते हैं। दुनिया का सर्वोच्च सम्मान नोबेल शांति पुरस्कार, भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न और दुनिया के ढेरों अवॉर्ड पाकर भी 1997 में उन्होंने कोलकाता में ही आखिरी सांस ली। 1979 में जब टेरेसा नोबेल का शांति पुरस्कार लेकर देश लौटी थीं तो तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने कहा था आजतक आप भारत की मां थीं और अब पूरी दुनिया की मां बन गई हैं, जो आपसे जिंदगी जीने की शिक्षा लेगी।  मदर टेरेसा का व्यक्तित्व इतना प्रभावी था कि पोप जॉन पॉल द्वितीय भी उनके मुरीद थे। वैसे वह उनके अच्छे दोस्त भी थे। टेरेसा की मौत के बाद उन्हें संत घोषित करने की प्रक्रिया को पोप ने तेजी से पूरा करवाया। वेटिकन की नजर में संत की उपाधि उसे ही दी जाती है, जिसके दो चमत्कारों की पुष्टि हो जाए। टेरेसा की मौत के पांच साल बाद उनका पहला चमत्कार स्वीकार किया गया था। एक बंगाली आदिवासी महिला मोनिका बेसरा के पेट का अल्सर तब ठीक होने का दावा किया गया, जब उसके पेट पर टेरेसा की तस्वीर रखी गई। इसके बाद ब्राजील के एक व्यक्ति ने अपनी दिमागी बीमारी के टेरेसा के चमत्कार से ठीक होने की बात स्वीकार की। आखिरकार पोप फ्रांसिस ने टेरेसा को संत की उपाधि देने का निर्णय लिया।   

विज्ञान पर आस्था की जीत
वेटिकन के अनुसार साल 2002 में मदर टेरेसा से प्रार्थना करने के बाद एक भारतीय महिला मोनिका बेसरा के पेट का ट्यूमर चमत्कारिक ढंग से ठीक हो गया था। इसी तरह वेटिकन ने टेरेसा से जुड़े एक और चमत्कार की पुष्टि की थी। 2008 में ब्राज़ील की एक महिला का ब्रेन ट्यूमर ठीक हो गया। इसे पोप फ्रांसिस ने मदर टेरेसा के दूसरे चमत्कार के रूप में मान्यता दे दी. इसके बाद अगले साल यानी साल 2009 में उन्हें संत बनाए जाने का रास्ता साफ़ हो गया था।

Friday 2 September 2016

यही हाल रहा तो कंधे पर कई और जिंदगियां दम तोड़ेंगी


बीते दो हफ्तों में देश के अलग-अलग इलाकों से मानवता को शर्मसार कर देने वाली तस्वीरें सामने आईं। फिर चाहे वह ओडिशा के कालाहांडी में पत्नी की लाश को कंधे पर रखकर मीलों चलने वाला माझी हो या कानपुर में इलाज के लिए बेटे को कंधे पर रखकर एक अस्पताल से दूसरे तक दौड़ता पिता। देश में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली और खत्म होती इंसानियत खुलकर सामने आई। आंकड़े तो और भी भयावहता दिखाते हैं। 


- 01 हजार लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए डब्ल्यूएचओ के मानकों के अनुसार, लेकिन भारत में 03 हजार लोगों पर एक है।
- 14 लाख डॉक्टरों की कमी है देश में। यह संख्या आगे और बढ़ेगी क्योंकि हर साल सिर्फ 5500 डॉक्टर ही तैयार हो पा रहे हैं।
- 50 फीसदी डॉक्टरों की कमी है सर्जरी, स्त्री रोग और शिशु रोग जैसे चिकित्सा के बुनियादी क्षेत्रों में। 
- 82 फीसदी सर्जरी, स्त्री रोग और शिशु रोग के डॉक्टरों की कमी है देश के ग्रामीण क्षेत्रों में।

विदेशों में नौकरी की चाहत
- 56 हजार भारतीय डॉक्टर विदेशों में कार्यरत थे साल 2000 में। 2010 में यह संख्या 55 फीसदी बढ़कर 86,680 पहुंच गई।
- 60 फीसदी भारतीय डॉक्टर सिर्फ अमेरिका में ही सेवाएं दे रहे हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा भारतीय डॉक्टर विदेशों में कार्यरत हैं।

मेडिकल कॉलेजों का हाल
- 412 मेडिकल कॉलेज हैं इस समय देश में। 45 फीसदी सरकारी और 55 प्रतिशत प्राइवेट।
- 640 जिलों में से देश के 193 जिलों में ही मेडिकल कॉलेज हैं।
- 447 जिलों में चिकित्सा की पढ़ाई के लिए कोई बुनियादी व्यवस्था नहीं है।
- 02 करोड़ रुपये तक पहुंच चुका है प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में दाखिले का डोनेशन।

बेहिसाब बढ़ा स्वास्थ्य खर्च
- 1947 से 2015 के बीच प्राइवेट अस्पतालों में 93 फीसदी महंगा हुआ इलाज।
- 58 फीसदी ग्रामीण और 68 फीसदी शहरी जनता प्राइवेट अस्पतालों में इलाज को मजबूर।
- 3.9 करोड़ लोग हर साल बीमारी पर होने वाले बेहिसाब खर्च से गरीबी में चले जाते हैं।

- सरकार की मंशा भी कमजोर
- 04 फीसदी खर्च करती है भारत सरकार अपने राष्ट्रीय बजट का स्वास्थ्य के क्षेत्र में। अमेरिका 18 फीसदी खर्च करता है। 

स्रोत: विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ), राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, एसोचैम, इंटरनेशनल माइग्रेशन आउटलुक  2015

Monday 22 August 2016

दुश्मन ने दिखाया आईना

आखिरकार रियो ओलंपिक से भारत की विदाई मेडल के साथ हो ही गई है। पूरा देश खुशी में डूबा है,  यह और बात है कि जितने मेडल हमें मिले हैं उससे अधिक जमैका के धावक उसैन बोल्ट अकेले ही लेकर स्वदेश लौटे हैं। वहीं अमेरिकी तैराक माइकल फेलेप्स की बात करें तो भारत के ओलंपिक इतिहास को ही खंगालना पड़ेगा।  बहरहाल, भारत और फेल्प्स की इस तुलना को यहीं रोकते हुए हमें साक्षी मलिक का शुक्रिया अदा करना चाहिए। 58 किलो वर्ग कुश्ती में कांस्य पदक जीतने वाली इस 'हरियाणा की शेरनी' ने हमें 1992 के बार्सिलोना ओलंपिक वाली शर्मिंदगी से बचा लिया, जहां से हम बिना मेडल के वापस आए थे। मलिक के मेडल के बाद तो बैडमिंटन की सनसनी पीवी सिंधू का मेडल हमारे लिए बोनस जैसा लगने लगा है। लेकिन इन सबके बीच में हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश की आबादी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी है और दुनिया ये सवाल पूछ रही है कि 132 करोड़ लोगों के देश में मेडल का ऐसा अकाल क्यों पड़ा हुआ है?  ये कहानी किसी एक ओलंपिक की नहीं है, बल्कि ये हर बार की पीड़ा है, हर बार का दर्द है। इस बार हमारे 118 एथलीट ओलंपिक के लिए रवाना हुए थे लेकिन जैसे-जैसे दिन निकलते गए, दिल बैठता गया और आखिरी दिनों में सभी ने पदक की उम्मीदें छोड़ दी थीं। बहरहाल, सबसे बड़ा सवाल है कि जो खिलाड़ी ओलंपिक के अलावा दूसरी जगहों पर अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वो अगर ओलंपिक में नहीं खेल पा रहे हैं तो इसकी वजह क्या हैं? हमारे देश में मंथन हो, इससे पहले चीन ने इस बदहाली का विश्लेषण कर लिया है।  चीन के मीडिया ने भारत को पदक न मिलने के जो कारण बताए हैं उनके मुताबिक भारतीय खिलाड़ियों को सरकार उचित संसाधन नहीं दे रही है। जिससे खिलाड़ी बेहतर अभ्यास न कर पाने के कारण एथलेटिक्स जैसे खेलों में आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। इस तथ्य को मजबूती तब मिलती है जब दूतीचंद जैसी एथलीट को रियो रवाना होने से पहले जूते के लिए गुहार लगानी पड़ती है तो बॉक्सर मनोज को प्रमोशन के लिए राजनेताओं के दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं। खेलों पर सरकारें कितना ध्यान देती हैं इसकी बानगी आंकड़े बताते हैं।  एक आंकड़े के मुताबिक भारत ने चार साल पर आने वाले ओलंपिक की तैयारियों पर 120 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। जबकि बेंगलुरू के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस पर इस साल 120 करोड़ रुपये और इग्नू पर 107 करोड़ रुपये एक साल में खर्च किए गए हैं। यानी सरकार का खेलों से ज्यादा जोर पढ़ाई पर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में राज्य और केन्द्र सरकारें मिलकर एक एथलीट पर प्रतिदिन सिर्फ तीन पैसे खर्च करती हैं। जबकि अमेरिका अपने हर खिलाड़ी पर एक दिन में 22 रुपये खर्च करता है। इसी तरह इंग्लैंड रोज 50 पैसे हर खिलाड़ी पर खर्च करता है और जमैका जैसा गरीब देश भी अपने खिलाड़ियों पर 19 पैसे खर्च करता है। चीन की मीडिया ने भारतीय युवाओं की सेहत पर भी सवाल खड़े किए हैं। उसका कहना है कि भारतीय युवा स्वास्थ्य मानकों को लेकर जागरूक नहीं हैं। शारीरिक कमजोरियों के कारण वह बाजुओं के दमखम वाले खेलों में विदेशी खिलाड़ियों का मुकाबला नहीं कर पाते। काफी हद तक यह बात भी सही है क्योंकि हमारे देश में फास्ट फूड एक स्टेटस सिंबल माना जाता है और पैदल चलना, दौड़ना और भागना एक अजूबे की तरह देखा जाता है। चीनी मीडिया का कहना है कि भारतीय लोग लड़कियों को लेकर आज भी प्रगतिवादी सोच नहीं रखते।  इस कड़वी सच्चाई को हरियाणा के आंकड़े से समझ सकते हैं। यह कांस्य पदक लेने वाली साक्षी मलिक का गृह राज्य है लेकिन यह कुख्याात है उस मानसिकता के लिए जो बेटों को बेटियों से ज्यादा तरजीह देती है।

2011 की जनगणना के आंकड़े इस बात का सबूत देते हैं (1000 लड़कों पर सिर्फ 879 लड़कियां)। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि हरियाणा में लड़कों की शादी के लिए दूसरे राज्यों ही नहीं, दूसरे देशों से दुल्हनें लानी पड़ रही हैं। चीन ने ये विश्लेषण भी किया है कि भारतीय माता-पिता बच्चों के कैरियर के मामले में आज भी ज्यादा विकल्प नहीं रखते। वह परंपरागत रूप से डॉक्टर और इंजीनियर के अलावा अन्य विकल्पों के बारे में ज्यादा नहीं सोचते। चीन ने भारत की इस परफॉर्मेंस के लिए एक कारण क्रिकेट और गरीबी को भी बताया है। आईपीएल में जहां युवराज सिंह जैसे खिलाड़ी को 16 करोड़ रुपये एक सीजन के लिए मिल जाते हैं वहीं हॉकी में श्रीजेश जैसे बड़े स्टार दो साल में इतनी कमाई कर पाते हैं। चीन की मीडिया ने भारत में स्टेडियम और पार्क की कमियों को भी रेखांकित किया है। बहरहाल, भारत के खेलों की ये समीक्षा भले ही चीन ने की हो, लेकिन चीन के मीडिया के इस विश्लेषण में दम तो है। कई बार खुद में सुधार करने के लिए सामने खड़े दुश्मन की बात भी ध्यान से सुननी चाहिए ताकि अपने अंदर सुधार किए जा सकें।

Thursday 18 August 2016

ये मेडल नहीं, अपमान है

रियो ओलंपिक में साक्षी मलिक और पीवी सिंधू के मेडल के साथ भारत का खाता खुला, इससे क्या आप खुश हैं? अगर हां, तो आप रहिए खुश, यही आपकी नियति है। साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  ने पदक दिलाया, यह उनकी व्यक्तिगत लगन है और उसकी सराहना होनी चाहिए लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हम उन्हें देश की 'शान' मानने की गलती कर बैठे। साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  की सराहना होनी चाहिए तो सिर्फ इसलिए कि उन्होंने जाते जाते पदक तालिक में भारत का नाम अंकित करा दिया और खत्म हो चुके सपनों को अगले ओलंपिक तक के लिए फिर से जगा दिया। अब आप बुनते रहिए सपने, गिनते रहिए अगले ओलंपिक के मेडल। अगर साक्षी मलिक और पीवी सिंधू  के मेडल को देखकर सुकून की निंद्रा में हैं तो जाग जाइए क्योंकि यह मेडल नहीं अपमान है। यह अपमान है, देश की 125 करोड़ की आबादी के भरोसे का। यह धोखा है, करोड़ों रुपये खर्च करने वाली सरकारों के साथ। अगर खिलाड़ियों के लिए हमदर्दी है तो आप दोष सिस्टम को भी दे लीजिए  लेकिन मुझे ताो शर्म आती है उन खिलाड़ियों पर जिन्होंने रियो के खेल सागर में भारत की साख को डूबोया है। 118 एथलीट्स की फौज को रियो भेजते वक्त हमारे प्रधानमंत्री ने भरोसे के साथ कहा था कि हर खिलाड़ी पर डेढ़ करोड़ खर्च किया गया है और इस बार पुराने सारे रिकॉर्ड टूटेंगे। साईं की रिपोर्ट में भी भारत को रियो ओलंपिक में 12 से 19 मेडल मिलने का सपना दिखाया गया था। लेकिन जैसे-जैसे दिन निकलते गए, दिल बैठता गया और अब आलम ये है कि पेस, सानिय, जीतू और साइना जैसे दिग्गजों की मौजूदगी के बावजूद हम ओलंपिक के आखिरी दिनों में तांबे और चांदी का एक-एक मेडल लिए घूम रहे हैं।  दुनिया के सबसे अनुभवी टेनिस स्टारों में से एक पेस से बहुत उम्मीद थी लेकिन वह लड़े तो सिर्फ कमरे के लिए, मेडल के लिए नहीं। वहीं सानिया की बात करें तो, खेल से ज्यादा पोकोमॉन गो गेम और सोशल मीडिया पर समय बिताने में व्यस्त थीं। हॉकी खिलाड़ी तो मानों रियो, पदक के लिए नहीं बल्कि किट के लिए गए थे। बॉक्सर विकास ने तो स्वीकार कर ही लिया कि मैं क्वार्टर फाइनल में ही अपना सौ फीसदी दे चुका हूं, अब और नहीं हो सकता। दीपा के प्रदर्शन से खुशी जरूर मिली लेकिन 'चूक' तो हम यहां भी गए। अबकी स्थिति यह रही कि बीजिंग ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीतने वाले अभिनव बिंद्रा जब आठ साल बाद चौथे पोजीशन पर आए तो हम आहें भरते रहे और ये कहकर अपने दिल को तसल्ली देते रहे कि पदक आते-आते रह गया। लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि पदक आते-आते नहीं रह गया बल्कि हमारे एथलीट दुनिया के टॉप एथलीटों के सामने इतने बौने हैं कि वह पोडियम तक पहुंच ही नहीं पाते।  सवाल है कि जो खिलाड़ी ओलंपिक के अलावा दूसरी जगहों पर अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वो अगर ओलंपिक में नहीं खेल पा रहे हैं तो इसकी वजह क्या हैं? रियो में जीतू जैसे कई अच्छे खिलाड़ी भी दबाव में खेलते नजर आए। एक अनुमान के मुताबिक सरकार ने ओलंपिक की तैयारियों के लिए सौ करोड़ से ज्यादा रुपये खर्च किए लेकिन नतीजा क्या निकला हमारे सामने है। कुल आंकड़ों पर गौर करें तो 116 साल के ओलंपिक इतिहास में रियो से पहले भारत ने 23 ओलंपिक में हिस्सा लेकर कुल 26 मेडल हासिल किए। यानी औसत निकाले तो हर ओलंपिक में सवा मेडल भी नहीं बनता। वहीं दूसरी तरफ अमेरिका के तैराक माइकल फेलप्स अकेले ही 28 ओलंपिक मेडल जीत चुके हैं जिसमें 23 गोल्ड मेडल शामिल हैं। ये आंकड़े बताने के लिए काफी है कि हमारे एथलीट खेलों के इस महाकुंभ में अन्य देशों के खिलाड़ियों से कितना कम दमखम दिखा पाते हैं।

      अब तो आलम यह है कि पदक के लिए हम खिलाड़ियों से ज्यादा भगवान पर भरोसा करते हैं। आबादी के नए रिकॉर्ड को छूने वाले हमारे देश में ओलंपिक कांस्य पदक जीतने के लिए भी लोग पूजा-पाठ पर बैठ जाते हैं। नतीजा यह होता है कि हम कांस्य से भी 'चूक' जाते हैं।  वहीं अमेरिका और चीन जैसे देश अपने खिलाड़ियों को लेकर निश्चिंत होते हैं कि वह तीन पदकों में से कोई एक तो आसानी से हथिया ही लेंगे क्योंकि उनका हर खिलाड़ी गोल्ड पाने के लिए जी-जान लगा देता है।  जिस देश में सोना और सम्मान को जान से भी ज्यादा प्यार किया जाता हो वहां मेडल के इस सूखे पर अगर शोभा डे जैसे लोगों का गुस्सा फूटता है तो वह स्वाभाविक सा लगता है।  बहरहाल, अगर इक्के-दुक्के मेडल हाथ लग भी गए तो इस पर इतराने की जरूरत नहीं है बल्कि पूरा देश ये सोचे कि इतने बड़े देश में खिलाड़ी खेल के साथ अपमान क्यों कर रहे हैं?


Saturday 30 July 2016

डायन से कम नहीं है डोपिंग

वैसे तो हाल में सबसे ज्यादा चर्चा ओलंपिक में हिस्सा लेने जा रहे 387 रूसी खिलाड़यों के दल की रही है, जिनमें से 105 खिलाड़ी प्रतिबंधित दवाओं के सेवन की जांच करने वाले डोप टेस्ट में पकड़े गए। पर इस विदेशी किस्से के साथ कदमताल करती पहलवान नरसिंह यादव और शॉटपुटर इंदरजीत राव के रूप में खबरें हमारे देश से भी सामने आई हैं। डोपिंग का इतिहास बहुत पुराना है और इसके किस्से भी कम रोचक नहीं हैं...

साल 1968 में मैक्सिको ओलंपिक के लिए भारतीय खिलाड़ियों का ट्रायल चल रहा था। ट्रायल के दौरान दिल्ली के रेलवे स्टेडियम में कृपाल सिंह 10 हजार मीटर दौड़ में भागते समय ट्रैक छोड़कर सीढ़ियों पर चढ़ गए। उस दौरान कृपाल सिंह के मुंह से झाग निकलने लगा था और वे बेहोश हो गए थे। जांच में पता चला कि कृपाल ने नशीले पदार्थ ले रखे थे, ताकि मैक्सिको ओलंपिक के लिए क्वालिफाई कर पाएं। यह पहली बार था जब भारत में डोपिंग का मामला सामने आया। इस घटना के बाद दुनियाभर में भारत की फजीहत हुई।  संयोग देखिए, मैक्सिको ओलंपिक में ही पहली बार डोप टेस्ट अमल में भी लाया गया और धीरे-धीरे ऐसा करने वाले खिलाड़ियों पर शिकंजा कसना शुरू हो गया। वैसे 1904 ओलंपिक में सबसे पहले डोपिंग का मामला सामने आया था, लेकिन इस संबंध में प्रयास 1920 से शुरू हुए। शक्तिवर्धक दवाओं के इस्तेमाल करने वाले खिलाड़ियों पर नकेल कसने के लिए सबसे पहला प्रयास अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक्स महासंघ ने किया और 1928 में डोपिंग के नियम बनाए गए।  लेकिन इस दिशा में बड़ा प्रयास उस वक्त हुआ जब 1998 में प्रतिष्ठित साईकिल रेस टू-डी-फ्रांस के दौरान खिलाड़ी डोप टेस्ट में असफल होते पाए गए। ऐसे में यह महसूस किया गया कि डोप टेस्ट को लेकर अभी तक प्रयास बहुत ही बौना साबित हुआ है। लिहाजा अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने 1999 में विश्व एंटी डोपिंग संस्था (वाडा) की स्थापना की। इसके बाद प्रत्येक देश की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर डोपिंग रोधी संस्था ( नाडा) की स्थापना की जाने लगी। बावजूद इसके डोपिंग में फंसने वाले खिलाड़ियों की तादाद बढ़ती ही चली गई। अगर सिर्फ भारत के संदर्भ में बात करें तो  यहां डोपिंग के मामलों में लगातार इजाफा होता गया। नाडा के आंकड़े के मुताबिक 1 जनवरी 2009 से अभी तक कुल 687 एथलीट डोपिंग विवाद के चलते बैन हो चुके हैं। इस हिसाब से देखें तो औसतन हर साल करीब 100 एथलीट बैन हुए हैं। 2012 ओलंपिक में इस आंकड़े में काफी उछाल देखा गया जब 176 एथलीट डोपिंग के कारण बैन हो गए। हालांकि इसके बाद बरती गई सख्ती के कारण अगले दो साल में इस संख्या में भारी गिरावट देखी गई। इस साल भी 18 जुलाई तक 72 एथलीट डोपिंग संबंधी मामलों में फंस चुके हैं। 2009 से पहले के आंकड़े मौजूद नहीं थे। जानकारों की मानें तो  एक खिलाड़ी को पता होता है कि उसका कैरियर छोटा है और अपने सर्वश्रेष्ठ फॉर्म में होने के समय ही ये खिलाड़ी अमीर और मशहूर हो सकते हैं। इसी जल्दबाजी और शॉर्टकट तरीके से मेडल पाने की भूख में कुछ खिलाड़ी अक्सर डोपिंग के जाल में फंस जाते हैं। इसके अलावा बड़ी इनामी राशि भी एथलीट्स को शॉर्ट-कट अपनाने को उकसा रहा है। उदाहरण के लिए ओलंपिक में गोल्ड जीतने वाले खिलाड़ी को सरकार की ओर से 75 लाख रुपये, सिल्वर जीतने पर 30 लाख और ब्रान्ज जीतने पर 20 लाख रुपये मिलते हैं। एशियन गेम्स में गोल्ड जीतने वाले खिलाड़ी को 30 लाख रुपये की इनामी राशि मिलती है।


ऐसे होता है डोप टेस्ट
किसी प्रतियोगिता या प्रशिक्षण शिविर से पहले खिलाड़ियों का डोप टेस्ट अकसर किया जाता है। यह नाडा या वाडा या फिर दोनों की ओर से किए जा सकते हैं। इसके लिए खिलाड़ियों के यूरीन के सैंपल लिए जाते हैं। नमूना एक बार ही लिया जाता है। पहले चरण को ए और दूसरे चरण को बी कहते हैं। ए पॉजीटिव पाए जाने पर खिलाड़ी को प्रतिबंधित कर दिया जाता है। यदि खिलाड़ी चाहे तो एंटी डोपिंग पैनल से बी-टेस्ट सैंपल के लिए अपील कर सकता है। यदि खिलाड़ी बी-टेस्ट सैंपल में भी पॉजीटिव आ जाए तो उस संबंधित खिलाड़ी पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है।

कैसे होती है खिलाड़ियों पर कार्रवाई
वाडा और नाडा समय के साथ डोप तत्वों की पहचान करती है।  इसके बाद प्रतिबंधित तत्वों की सूची तैयार कर खिलाड़ियों को जानकारी मुहैया कराना, प्रयोगशालाएं स्थापित करना और उसका संचालन करना भी इनका प्रारंभिक दायित्व है। इन संस्थाओं को दंडात्मक शक्ति हासिल है। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ यानी आईओसी ने सदस्य देशों से बकायदा सशर्त समझौता किया है।

नाडा को प्रतिबंध करने का अधिकार
नाडा को यह अधिकार है कि वह खिलाड़ियों का औचक डोप टेस्ट करे और दोषी पाए जाने पर खिलाड़ियों पर दो साल से लेकर आजीवन प्रतिबंध लगाए। इसके लिए बकायदा एंटी डोपिंग अनुशासन पैनल और एंटी डोपिंग अपील पैनल की व्यवस्था की गई है जिससे किसी खिलाड़ी के साथ पक्षपात नहीं हो।  नाडा से मिली सजा के खिलाफ खिलाड़ी वाडा में अपील कर न्याय मांग सकता है। इतना ही नहीं खिलाड़ियों के खिलाफ किसी तरह अन्याय ना हो इसलिए विशेष खेल न्यायालय स्पोर्ट्स आर्बिटेशन कोर्ट भी बनाया गया है, जो सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय है।

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साल 2014 में एंटी डोपिंग एजेंसी वाडा की एक रिपोर्ट के अनुसार रूस और इटली के बाद भारत में सबसे ज्यादा डोपिंग के मामले सामने आए।

2014-15 में डोपिंग के मामले           
रुस        148
इटली      123
भारत        96

ट्रैक ऐंड फील्ड एथलीट्स सबसे आगे
भारत में ट्रैक ऐंड फील्ड एथलीट्स (266) में सबसे ज्यादा डोपिंग का उल्लंघन देखा जाता है। इसके बाद वेटलिफ्टिंग (169) का नाम आता है। नियमों का उल्लंघन करने वाले ज्यादातर जूनियर, सीनियर, स्कूल गेम्स और यूनिवर्सिटी स्तर पर भाग लेने वाले राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय के एथलीट्स होते हैं। इसके अलावा बॉक्सर, साइक्लिस्ट, पहलवान, पावरलिफ्टर, तैराक और कबड्डी खिलाड़ी भी डोपिंग में फंसे हैं। 2014 -15 में 29 एथलेटिक्स, पावरलिफ्टिंग  में  23 और वेटलिफ्टिंग में  22 खिलाड़ी फंसे हैं।

भारत में डोप के शिकार
2000 ः में डिस्कस थ्रोअर सीमा अंतिल को वर्ल्ड जूनियर चैंपियनशिप में मिला गोल्ड मेडल छीन लिया गया। उन पर डोपिंग का आरोप लगा।
2005 ः में दो डिस्कस थ्रोअर अनिल कुमार और नीलम जे सिंह नोरैंड्रोस्टेरॉन के सेवन करने के दोषी पाए गए। दोनों पर दो-दो साल की पाबंदी लगा दी गई।
2010 ः में शॉट पटर सौरव विज पर भी दो साल का बैन लगा। हालांकि देश की एंटी डोपिंग एजेंसी नाडा ने उन्हें क्लीन चीट दे दी।
2011 ः में नाडा ने छह महिला एथलीट पर एक-एक साल की पाबंदी लगाई। इसमें शामिल थे हरिकृष्णन, मनदीप कौर, सनी जोस और अश्विन अकुंजी।

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एक नजर खेल इतिहास के डोपिंग के रोचक मामलों पर :

करवाना पड़ा सेक्‍स चेंज
1986 में यूरोप की शॉटपुट (गोलाफेंक) चैंपियन बनीं हीदी क्रिगर डोपिंग की ऐसी शिकार हुईं कि उन्‍हें अपना सेक्‍स चेंज करवाना पड़ा। अब वह हीदी नहीं एंड्रियाज बन चुकी हैं। मात्र 16 साल की उम्र से उन्‍हें स्‍टेरॉयड वाले ड्रग्‍स दिए गए जिससे उनका शरीर विकृ‍त हो गया और वह मर्द की तरह दिखने लगी। खुद के शरीर को मर्द जैसे देखते हुए उन्‍होंने सेक्‍स चेंज करवा लिया। जर्मनी ने 30 साल लंबे अपने डोपिंग प्रोग्राम के जरिए उनसे कई मेडल्‍स हासिल किए।

खेल इतिहास की सबसे गंदी दौड़
बेन जॉनसन कनाडा के तेज धावक हैं। सियोल ओलंपिक में 1988 में 100 मीटर रेस को 9.79 सेकेंड में रेस पूरी कर वर्ल्ड रिकॉर्ड बना दिया था लेकिन तीन दिन बाद यह साफ हो गया कि बेन जॉनसन ने डोपिंग की। उनके खून से स्टैनोजोलोल नाम का स्टेरॉयड मिला। जॉनसन के साथ दौड़े आठ में से छह धावक डोपिंग के दोषी पाए गए। इस दौड़ में दूसरा स्‍थान पा‍ने वाले यूएस एथलीड कार्ल लुईस पर भी दाग लग गया था। इसे खेलों के इतिहास की सबसे गंदी दौड़ कहा गया। कांस्य मेडल पाने वाले कल्‍विन स्मिथ डोपिंग टेस्‍ट में पास हुए थे।

जेल की खानी पड़ी हवा
अमेरिका की स्टार एथलीट मारियन जोन्‍स कई युवा लड़कियों की हीरो थीं। ट्रैक एंड फील्ड वर्ल्ड चैंपियन और ओलंपिक की गोल्ड विजेता मारियन जोन्स से साल 2000 के सारे मेडल्‍स छिन लिए गए। 2007 में मारियन ने माना कि उसने उन मुकाबलों के दौरान डोपिंग की थी। मारियन ने इस मामले में ग्रैंड ज्यूरी के सामने झूठ बोलने की बात स्वीकारी और तब उन्हें छह महीने की जेल की सजा सुनाई गई।

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..और डोप ने बनाया विलेन

शारापोवा: टेनिस की सनसनी मारिया शारापोवा इसी साल ऑस्ट्रेलियन ओपन के दौरान हुए डोप टेस्ट में शारापोवा नाकाम रहीं और उन पर इंटरनेशनल टेनिस फेडरेशन ने दो साल का बैन लगा दिया।

लांस आर्मस्ट्रॉन्ग:  लांस ने 1996 में कैंसर से जंग जीती और साइकलिंग की दुनिया में दोबारा कदम रखा जिससे उनकी सुरपहीरो की छवि बन गई थी। लेकिन डोपिंग में फंसने के कारण उन पर जिंदगी भर का प्रतिबंध लगाया गया है। उनसे सभी खिताब छीन लिए गए।

शेन वॉर्न: 2003 वर्ल्ड कप शुरू होने से एक दिन पहले शेन वॉर्न प्रतिबंधित दवा पाने के दोषी पाए गए थे। इसके बाद ऑस्ट्रेलियन बोर्ड ने एक साल का बैन लगाया था।

शोएब अख्तर: वहीं, कभी दुनिया के सबसे तेज गेंदबाजों में शुमार रहे अख्तर को 2006 में डोपिंग का दोषी पाए जाने के बाद दो साल के लिए निलंबित किया गया था।

मार्टिना हिंगिस: टेनिस की पूर्व नंबर एक खिलाड़ी मार्टिना हिंगिस पर भी डोपिंग का दाग लग चुका है। 2008 में डोपिंग के कारण हिंगिस पर दो साल का बैन लगाया गया था।

डिएगो माराडोना: फुटबॉल के इस दिग्गज को 1991 में कोकिन के इस्तेमाल की वजह से 15 महीने का बैन झेलना पड़ा था। इसके बाद 1994 के फीफा वर्ल्ड कप के दौरान भी वह दोषी पाए गए और उन्हें दोबारा बैन किया गया।

टाइसन गे ः बोल्ट के बाद सबसे तेज धावक माने जाने वाले वाले अमेरिकी स्प्रिंटरगे को 2013 में स्‍टेरॉयड लेने का दोषी पाए जाने पर अमेरिकी एंटी-डोपिंग एजेंसी ने एक साल के लिए बैन कर दिया। उनसे 2012 लंदन ओलंपिक में जीता सिल्वर मेडल भी छिन गया।

ली चोंग वीः मलेशिया के बैडमिंटन खिलाड़ी ली चोंग वी भी डोपिंग की बदनाम गली का हिस्सा रह चुके हैं। उन पर आठ महीने का प्रतिबंध लगा। वी 2008 और 2012 के ओलंपिक खेलों में सिल्वर मेडल जीत चुके हैं और तीन बार विश्व चैंपियन भी रहे हैं।


86 साल पहले इलाज के लिए खोजा गया
स्टेरॉयड बना बॉडी बनाने करने का जरिया



नरसिंह यादव मामले में एक चीज जो बार-बार जेहन में घूमती है कि आखिर स्टेरॉयड होते क्या हैं। 86 साल पहले जिस कृत्रिम हार्मोन की खोज पुरुषों के सेक्स हार्मोन को विकसित करने और शरीर के विकास को लेकर की गई थी, वह आज बॉडी बनाने का जरिया बन चुकी है। एक रिपोर्ट...

क्या है स्टेरॉयड
स्टेरॉयड एनाबॉलिक एंड्रोजेनिक स्टेरॉयड का छोटा नाम है। 1930 में इसकी खोज ऐसे लोगों के इलाज के मकसद से हुई थी, जिनके अंडकोष (टेस्टिल्स) जरूरी मात्रा में ग्रोथ हार्मोन नहीं बना पाते। फिर कई जानलेवा बीमारियों में इसका उपयोग होने लगा। लेकिन चीजें तब बदलीं, जब खिलाड़ियों के बीच जब बॉडी बनाने के लिए लोकप्रिय हुआ।

एनाबॉलिक और एंड्रोजेनिक स्टेरॉयड
एनाबॉलिक स्टेरॉयड मसल्स बनाने के लिए उपयोग किए जाते हैं। वहीं, एंड्रोजेनिक को मर्दानगी बढ़ाने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है।

कैसे होता है इस्तेमाल
इंजेक्शन, गोली के रूप में और आजकल जैल के तौर पर भी स्टेरॉयड का उपयोग हो रहा है। दुनिया के ज्यादातर देशों में स्टेरॉयड के बिना डॉक्टरी सलाह इस्तेमाल पर बैन है।

बॉडी बिल्डिंग में उपयोग होने वाले चर्चित स्टेरॉयड
गोली के रूप में
- एंड्रोल
- ऑक्सेंडिन
- डेनाबोल
- मिंस्ट्रोल

इंजेक्शन के जरिए
- डेका ड्योरोबलीन
- टेस्टोस्टेरोन
- इक्विपोज
- टीएचजी


तीन तरह से होता है कोर्स
1. पिरामिड- इसमें पिरामिड की तरह डोज ली जाती है। पहले थोड़ी और फिर धीरे-धीरे डोज बढ़ाई जाती है और एक समय के बाद खत्म कर दी जाती है।
2. स्टैकिंग - जब कई स्टेरॉयड को एक साथ मिलाकर लिया जाए तो इसे स्टैकिंग कहते हैं। कई बार तो गोली और इंजेक्शन तक साथ लिया जाता है।
3. साइकिल  - इसमें एक तयशुदा समय के दौरान स्टेरॉयड की अलग-अलग डोज लेकर बंद कर दी जाती है, फिर कुछ समय बाद इसे शुरू किया जाता है।
- पिरामिड कोर्स को स्टेरॉयड लेने का सबसे सही तरीका माना गया है। यह कोर्स 6 से 12 सप्ताह में पूरा हो जाता है।

क्या है मेथेडिनन
नरसिंह यादव के शरीर में जिस मेथेडिनन के अंश पाए गए, वह बाजार में डेनाबोल के नाम से बिकता है और एक एनाबॉलिक स्टेरॉयड है। बात 1953 की है। रूस के खिलाड़ियों ने वर्ल्ड चैंपियनशिप में टेस्टोस्टेरोन नाम के स्टेरॉयड का उपयोग किया था, जिसके बाद बाद अमेरिकी डॉक्टरों ने अपने खिलाड़ियों को रूसी खिलाड़ियों से टक्कर लेनेे के लिए मेथेडिनन को ईजाद किया। 1956 में यह तैयार हुई और खिलाड़ियों ने ही इसे डेनाबोल नाम दिया।

काम और साइकिल
डेनाबोल गोली के रूप में आती है। यह व्यक्ति की चर्बी बढ़ाती है। बॉडी बिल्डर एक बार में इसकी 75 ग्राम डोज तक ले लेते हैं। छह से आठ सप्ताह तक इसका कोर्स चलता है। यह लिवर और किडनी को नुकसान पहुंचाती है और महिलाएं इस्तेमाल कर लें तो उनमें मर्दाना लक्षण पैदा कर देती है।

फैक्ट
- 32 तरह के स्टेरॉयड मौजूद हैं इस समय बाजार में। इनमें कई बॉडी बिल्डिंग में उपयोग हो रहे हैं।
- 15 से 18 दिन तक रहता है शरीर में ओमनाड्रेन स्टेरॉयड का असर, सबसे लंबा अवधि का स्टेरॉयड।
- 06 घंटे तक असर रहता है डेनाबोल की एक डोज का शरीर में असर।


Saturday 23 July 2016

कबूतरबाजी से ट्रांसजेंडरों की एंट्री तक ओलंपिक

खेलों का महाकुंभ यानी ओलंपिक पांच अगस्त से ब्राजील के शहर रियो में शुरू हो जाएगा। इस साल 206 देश ओलंपिक में हिस्सा ले रहे हैं। 116 साल पहले इस आयोजन में जहां कबूतरों को मारने पर मेडल मिलता था, वहीं आज ट्रांसजेंडर भी ओलंपिक जीतने का सपना देख रहे हैं।

बतौर पुुरुष जन्मे और अब ट्रांसजेंडर बन चुके दो ब्रिटिश एथलीटों के इस साल रियो ओलंपिक में भाग लेेने की उम्मीद है। उनके नाम का खुलासा नहीं किया गया है। ऐसा इसलिए ताकि खेल के दौरान वह शर्मिंदगी का शिकार न हों। अगर दोनों प्रतियोगिता का हिस्सा बनते हैं तो ऐसा पहली बार होगा, जब ओलंपिक खेलों में ट्रांसजेंडर भाग लेंगे। दोनों महिला प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेंगे। दौड़, मुक्केबाजी और कुश्ती ओलंपिक के वह खेल हैं, जो कोई 1200 साल से खेले जा रहे हैं। हालांकि तब ओलंपिक को आधिकारिक दर्जा नहीं मिला था। उस समय योद्धाओं के बीच प्रतिस्पर्धा के तौर पर खेलों का आयोजन किया जाता था, जो 776 ईसा पूर्व अपने आधिकारिक अस्तित्व में आए। लेकिन 394 ईस्वी के बाद रोम के सम्राट थियोडोडिस ने ओलंपिक को मूर्ति पूजा का उत्सव करार देते हुए प्रतिबंधित कर दिया। 19वीं शताब्दी में यूरोप में यह परंपरा फिर जिंदा हुई। फ्रांस के रहने वाले बैरो पियरे डी कुवर्तेन ने इसे शुरू करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने दो लक्ष्य रखे। पहला खेल को लोकप्रिय बनाना दूसरा, शांतिपूर्ण प्रतिस्पर्धा। 1896 में पहली बार ग्रीस की राजधानी एथेंस में ओलंपिक आयोजित हुए। करीब 34 साल तक ओलंपिक लोकप्रिय होने के लिए जूझता रहा। वजह थी, भव्यता की कमी और कई अटपटे खेल। अब 1900 में हुए पेरिस ओलंपिक को ही जानिये, कबूतरों को मारने की प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। 300 कबूतर मारे गए थे। बेल्जियम के लिओन डी इसके चैंपियन बने थे, लेकिन 1930 में सब बदल गया। बर्लिन ओलंपिक को राजनीतिक और सामाजिक समर्थन मिला। अटपटे खेल बंद किए गए और ओलंपिक चल निकला। 1950 के दशक में सोवियत संघ और अमेरिका ने भी इस खेल में हिस्सा लेना शुरू किया। इसके बाद तो ओलंपिक खेलों का महाकुंभ बन गया। 

यूरोप की देन को 34 साल तक अमेरिका
व सोवियत संघ ने बनाया जंग का मैदान

बैरो पियरे डी कुवर्तेन ने ओलंपिक को शुरू करते समय शांतिपूर्ण आयोजन का जो लक्ष्य रखा, वह पूरा नहीं हो सका। 1968 में मैक्सिको ओलंपिक में अमेरिका से पदक तालिका में पीछे रहना सोवियत संघ को ऐसा अखरा कि 1972 में म्यूनिख ओलंपिक में सोवियत संघ ने अमेरिका से एक तिहाई ज्यादा पदक जीतकर इसका बदला लिया। 1980 में मास्को ओलंपिक में अमेरिका और पश्चिम के कई देशों ने हिस्सा नहीं लिया तो 1984 में सोवियत संघ ने भी लॉस एंजिलिस ओलंपिक का बहिष्कार कर दिया। 1988 के सियोल ओलंपिक में सोवियत संघ हावी रहा तो 1992 में विघटन के बावजूद एक साथ शामिल होकर सोवियत यूनियन ने बार्सिलोना ओलंपिक में शीर्ष स्थान हासिल किया। इसके बाद के आयोजनों में अमेरिका प्रथम स्थान पर रहा।

चीन ने की धमाकेदार शुरुआत
साल 2000 के बाद चीन भी ओलंपिक पदक तालिका में अच्छी जगह बनाने लगा। 2008 के बीजिंग ओलंपिक में उसने सबसे ज्यादा पदक जीते। इसे अब तक का सर्वश्रेष्ठ आयोजन माना जाता है। 


जब पेड़ की टहनी मेडल के तौर पर
मिलती थी तब भी वैसा ही जोश था

आज खिलाड़ी गोल्ड, सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल के लिए भिड़ते हैं, लेकिन ओलंपिक के शुरुआती दिनों में यह पदक नहीं मिलते थे। तब जीतने वाले को जैतून के पेड़ की टहनी और माला इनाम में दी जाती थी। लेकिन उस समय भी जीत का जज्बा और जोश वैसा ही था, जैसा आज है।

...जो एक बार ही खेले गए
भारत में सबसे लोकप्रिय क्रिकेट ओलंपिक में सिर्फ एक बार खेला गया। 1900 के पेरिस ओलंपिक के बाद 116 साल से यह महाकुंभ में शामिल होने की बाट जोह रहा है। रग्बी, गोल्फ, रस्साकसी, स्टैंडिंग हाईजंप भी एक बार ही खेले गए। 1904 और 1932 में सामूहिक झूला और जिमभनास्टिक प्रतियोगिता हुई फिर नहीं। 1912 में पिस्तौल युद्ध भी खेला गया था। इसमें एक डमी के गले पर निशाना लगाया गया।

80 साल में ओलंपिक मशाल के रंग
1936 में बर्लिन ओलंपिक में पहली बार मशाल यात्रा शुरू हुई। यूनान के प्राचीन शहर ओलंपिया स्थित हीरा के मंदिर से ओलंपिक मशाल का सफर शुरू होता है। 1952 में ओस्लो में हुए ओलंपिक में पहली बार विमान के जरिए मशाल को ले जाया गया। 1956 के स्टॉकहोम ओलंपिक में घोड़े की पीठ पर और 2000 के सिडनी ओलंपिक में ऊंटों पर ओलंपिक मशाल ले जाई गई। 1960 के रोम ओलंपिक में पहली बार मशाल यात्रा का टीवी पर सीधा प्रसारण हुआ। आज की मशाल गैस से जलती है।



भारत तो बहुत पीछे, लेकिन हॉकी में नाम कमाया
ओलंपिक में भारत का प्रदर्शन अब तक बेहद फीका रहा है। 100 साल में हम सिर्फ 20 पदक जीत पाए हैं। इसमें 11 हॉकी के हैं। भारतीय हॉकी टीम ने 28 साल तक ओलंपिक में राज किया। आठ स्वर्ण, एक रजत और दो कांस्य पदक जीते। 1980 में मास्को ओलंपिक में आखिरी बार स्वर्ण जीता। लेकिन इसके बाद पीछे रह गए। साल 2000 में सिडनी ओलंपिक में भारत की कर्णम मलेश्वरी ने भारोत्तोलन में कांस्य पदक जीतकर नाम रोशन किया। आजाद भारत के लिए पदक जीतने वाले केडी जाधव पहले खिलाड़ी थे। उन्होंने 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में फ्री स्टाइल कुश्ती में कांस्य पदक जीता था। हालांकि 1900 के पेरिस ओलंपिक में नार्मन प्रिटचार्ड ने भारत की ओर से हिस्सा लेते हुए एथलेटिक्स में दो पदक जीते थे।

रियो में भारत के सितारे
- 99 खिलाड़ियों के दल में 32 खिलाड़ी हॉकी से हैं। 16 पुरुष और 16 खिलाड़ी महिला टीम में हैं।
- 07 खिलाड़ी (चार महिलाएं और तीन पुरुष) बैडमिंटन में हिस्सा लेंगे। साइना नेहवाल भी इसमें शामिल।
- 12 निशानेबाज भी रियो ओलंपिक का हिस्सा बनेंगे। पिछली बार के पदक विजेता गगन नारंग से है उम्मीद।
- 19 भारतीय एथीलीट रियो ओलंपिक में भाग लेंगे। हॉकी के बाद यह देश का दूसरा सबसे बड़ा दल है।
...लेकिन दो बार के पदक विजेता सुशील कुमार की कमी खलेगी। इस साल ओलंपिक में आठ पहलवान शामिल हो रहे हैं।

- 194 देशों के 10,290 एथीलीट रियो ओलंपिक में भाग ले रहे हैं।
- 28 खेलों के लिए 306 आयोजन किए जाएंगे।
- 400 एथीलीट अकेले चीन के ओलंपिक में भाग लेने पहुंच रहे हैं।
- 1996 और 2000 में ओलंपिक से अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया को पांच अरब डॉलर की आय हुई थी।
- 35 हजार लोगों को रोजगार मिला था लंदन में हुए ओलंपिक के दौरान।



Sunday 17 July 2016

सड़े हुए समाज की अप्सरा थीं बलोच

सोशल मीडिया पर जो लोग सक्रिय रहते हैं शायद उनके लिए कंदील बलोच का नाम न तो अनजाना है और न ही उनके कारनामों से लोग अनजान हैं। बलोच अंधधर्म, आतंक और फतवों के साए में सड़ रहे पाकिस्तान की मॉडल जरूर थीं लेकिन उनमें से एक नहीं, उनसे जुदा थी। उन्हें न तो बुर्के में रहना पसंद था और न ही धर्मगुरुओं के कुरान की बातों में यकीन था। वह बदनाम जरूर थीं लेकिन पाकिस्तान की मूल समस्याओं से अनजान नहीं। दरअसल, कंदील ने उस तहजीब पर हमला बोला था, जिसकी दुहाई देने वालों की फौज गला दबाने को बैठी थी। यह अलग बात है कि उनके तरीकों ने उन्हें ड्रामा क्वीन बना दिया लेकिन सच यह है कि कंदील की मौत ने एक ही झटके में पाकिस्तान के सड़े हुए उस समाज की रूपरेखा खींच दी, जिसको देखने के लिए न तो वहां की हुकुमत तैयार है और न ही वहां का समाज। आपसी रंजिश, वाद- विवाद, सहमति- असहमति जैसे तमाम पहलू हैं जो इस संवेदनहीन समाज में हत्या के लिए काफी हैं लेकिन जब मौत सिर्फ इसलिए कर दी जाए कि लड़की ने परंपरा को नकारते हुए अपना अंग प्रदर्शन किया है तो समझ लीजिए, हर दिन आपका समाज और आप गर्त में जा रहे हैं।  


कंदील के कुछ चर्चित बयान हैं जो यह बताने को काफी हैं कि वह किस कदर हर दिन - हर पल पाकिस्तान के बुर्केधारी समाज को चुनौती दे रही थीं -  
- लोग कहते हैं कि मैं पाकिस्तान को बदनाम कर रही हूं। लेकिन मैं रूकूंगी नहीं, इतना तो तय है कि मै सर पर दुप्पटा ओढ़ने वाली नहीं हूं। पाकिस्तान के एक और इंटरनेट सेंसेशन ताहेर शाह से तुलना किया जाना मुझे पसंद नहीं। मैं मॉडल-एक्ट्रेस हूं और वह जोकर है।
- मैं पढ़ना चाहती थी, लेकिन मुझे पढ़ने नहीं दिया गया। अब मैं कामयाब हूं तो कई लोग मुझसे पैसे ऐंठने के लिए आने लगे हैं ।
 

उस वीडियो को देख लीजिए, जिसने ली बलोच की जान 

.. ऊंची थी उड़ान
खुद को कुंवारी बता कर फैशन इंडस्‍ट्री में दाखिल होने वाली बलोच के बारे में कहा जाता था कि उसकी एक नहीं, तीन शादियां हुईं और वो सात साल के एक बच्‍चे की मां भी थी। आशिक हुसैन नाम के एक शख्स ने बलोच का पति होने का दावा किया था। पेशावर में सिलाई-कढ़ाई की दुकान चलाने वाले शाहिद इकबाल ने भी कहा था कि उन दोनों ने करीब 13 साल पहले कंदील के परिवार से छुप कर शादी की थी। इकबाल ने ही बताया था कि 2008 में कंदील की पहली शादी हुई थी और उनका एक बेटा भी है। जिसे बाद में पैसों और शोहरत के लिए कंदील छोड़ कर चली गई। बाद में एक उर्दू चैनल से अपनी शादी के बारे में बात करते हुए कंदील ने माना कि आशिक हुसैन से उनकी शादी हुई थी और उनका एक बेटा भी है। इन बातों के बाद बलोच माना था कि उसने अपने बेटे की कस्‍टडी के लिए दावा भी किया था, पर उस समय आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण उसने बच्‍चे को उसके पिता को सौंप दिया और फिर कभी जाहिर नहीं किया कि वो उसकी मां हैं। कंदील के अनुसार उनकी ये शादी 18 साल की उम्र में उनके माता पिता ने जबरदस्‍ती कर दी थी, जबकि वे पढ़ना चाहती थी और उस गंवार इलाके में नहीं रहना चाहती थी, जहां पढ़ाई पर पाबंदी थी। वहीं आशिक का कहना है कि उसकी शादी किसी की जबरदस्ती के कारण नहीं हुई थी, बल्‍कि उनकी लव मैरिज थी। सबूत के तौर पर उन्‍होंने कंदील के खून से लिखे खत भी दिखाए थे, जो बेहद रोमांटिक थे।


पाकिस्तान में महिलाओं की हालत भी जान लीजिए
यह सच है कि पाकिस्तान में महिलाओं के साथ जानवरों जैसा व्यवहार होता है। पाकिस्तान के बनने के करीब साठ दशक बाद भी यहां महिलाएं दुनिया के किसी भी देश की तुलना में अधिक पिछड़ी हैं। यातना, प्रताड़ना, दुष्कर्म, वैवाहिक दमन और सम्मान के नाम पर हत्याएं आम बातें हैं, इसलिए इन पर बहुत शोर नहीं होता। पाकिस्तान ऐसे तत्वों को लेकर समझौतावादी हो गया है जो धर्म के नाम पर समाज पर अपनी दकियानूसी सोच थोपना चाहते हैं। मुख्तारन माई (सामूहिक दुष्कर्म की शिकार) और मलाला जैसी कुछ पीड़िताओं ने अपनी कोशिशों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति और सराहना पाई। लेकिन, इन्हें भी पाकिस्तान में जश्न मनाने की अनुमति नहीं। लैंगिक समानता के मामले में पाकिस्तान दुनिया का दूसरा सबसे बदतर देश है। हर साल 5 हजार से ज्यादा महिलाएं घरेलू हिंसा में मार दी जाती है। हैरानी की बात तो ये है कि पाकिस्तान में घरेलू हिंसा को क्राइम नहीं माना जाता है। वर्तमान में पकिस्तान में स्त्रियों की हालत का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि पिछले साल ही पाक में 1100 मामले महिलाओं की ऑनर किलिंग के थे तथा आत्महत्या के मामले भी कम नहीं थे। पिछले साल महिलाओं के खिलाफ 8 हजार मामले दर्ज किए गए। पुलिस स्टेशन, अदालत और शिकायत प्रकोष्ठों में दर्ज घटनाओं के अनुसार, वर्ष 2008 से 2011 के बीच महिलाओं के खिलाफ हिंसा की घटनाओं में 13 प्रतिशत वृद्धि हुई है।






Saturday 16 July 2016

संघर्ष की कहानी रितु रानी


जब आप बतौर कप्तान अपनी टीम को एक नए मुकाम पर ले जाते हों और उस मुकाम को सही दिशा देने की बारी आए तब आपकी कप्तानी छिन ली जाए, इससे बड़ी नाइंसाफी क्या हो सकती है। यही अन्याय भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान रहीं रितु रानी के साथ हुआ है। दरअसल, रितु रानी को रियो ओलंपिक टीम से बाहर कर दिया गया है।  रितु 2011 से भारतीय टीम की कमान संभाल रही थीं और उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि ये रही कि उन्हीं के नेतृत्व में महिला टीम ने 36 साल बाद ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया लेकिन अब अनुशासनहीनता और उनके फॉर्म को कारण बताकर टीम से बाहर कर दिया गया है।
रितु का आरोप है कि उनके साथ बेवजह ऐसा किया गया और वह राजनीति का शिकार हुई हैं। बहरहाल,  पीछे की कहानी क्या है, इस बारे में कुछ कह पाना बहुत मुमकिन नहीं है। वैसे ये भी दिलचस्प है कि करीब दो महीने पहले ही हॉकी इंडिया की ओर से रितु को 'अजीत पाल सिंह मिडफिल्डर अवॉर्ड' से नवाजा गया। साथ ही अर्जुन अवार्ड के लिए उनका नाम भेजा गया । यही नहीं कुछ ही दिन पहले जब पीएम नरेंद्र मोदी ओलंपिक में हिस्सा लेने वाले खिलाड़ियों से मिले तो उसमें भी रितु शामिल थीं और फिर अचानक इस फैसले ने लोगों को हैरान कर दिया है। सोशल मीडिया पर भी रितु के समर्थन में एक अभियान चल रहा है।  29 दिसंबर 1991 को हरियाणा में जन्मी रितु रानी ने अपनी पढ़ाई श्री गुरु नानक देव सीनियर हाइयर सकेंड्री स्कूल से की थी। महज 12 साल की उम्र में रितु ने शाहाबाद मारकंडा के शाहबाद हॉकी अकादमी में हॉकी के गुर सिखकर भारतीय महिला हॉकी के लिए इतिहास लिखने के लिए अपनी शुरुआत का आगाज किया था।  14 साल की उम्र में हॉकी की यह दिग्गज खिलाड़ी भारत की सीनियर टीम में शामिल हो गई थीं और साथ ही 2006 मैड्रिड में हुए वर्ल्ड कप में सबसे युवा खिलाड़ी के रूप में टीम का हिस्सा थीं। इसके बाद रितु रानी ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा और 2009 में रूस में आयोजित चैंपियन चैलेंजर्स में भारत के लिए सबसे ज्यादा गोल जमाने वाली खिलाड़ी के तौर पर उभरी थीं। रितु रानी के इस बेहतरीन परफॉर्मेंस का ही कारण था कि भारत की महिला टीम ने चैंपियन चैंलेंजर्स का खिताब अपने नाम कर लिया था। वह अद्भूत प्रतिभा के कारण साल 2011 में भारतीय महिला टीम की कप्तान बनीं। रितु रानी के नेतृत्व में भारत की महिला टीम ने कई रिकॉर्ड अपने नाम िकए ।  2013 में कुआलालम्पुर में हुए एशिया कप में ब्रांज मेडल सहित 2014, इंचियोन में एशियन गेम्स में ब्रांज मेडल हासिल कर भारत की टीम ने भारतीय महिला हॉकी को भारतीय प्रशंसकों के दिल में जगह बनाने में कामयाब रही थीं। पांच फुट दो इंच लंबी रितु रानी के करियर में सबसे एतिहासिक समय तब आया जब उनकी कप्तानी में भारतीय महिला टीम ने लगभग 36 साल बाद ओलंपिक में शामिल हुई है जो इस हॉकी खिलाड़ी के योगदान को अमर कर जाता है। रितु रानी ने अब तक 213 मैच भारतीय महिला टीम के लिए खेल चुकी हैं




हर्ष को बनाया हमसफर
इसी एक जुलाई को पटियाला के पंजाबी गायक हर्ष शर्मा उर्फ हैश से रितु रानी ने सगाई की थी। दोनों ने ओलिंपिक के बाद शादी करने का फैसला किया है। हर्ष शर्मा पटियाला के रहने वाले हैं। उनकी मां पूनम बाला पटियाला में एनआईएस (स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया) में हॉकी कोच हैं। रितु 2014 तक रेलवे की खेल कोटे से रेलवे की कर्मचारी रहीं और 2014 में उन्होंने हरियाणा पुलिस ज्वाइन किया।

Thursday 14 July 2016

पोर्न से ज्यादा खोजा गया ‘पोकेमॉन गो’


क्रैश हुए गूगल के सर्वर, टूट रहे रिश्ते

सिर्फ तीन देशों में रिलीज हुआ मोबाइल गेम ‘पोकेमॉन गो’ गूगल पर सबसे ज्यादा खोजी जानी वाली सामग्री बन गया है। लोगों में गेम की ऐसी दीवानगी है कि पोर्न वीडियो भी पोकेमॉन से कम सर्च हो रहा है। गूगल की मूल कंपनी का वह हिस्सा जो इस खेल के लिए सर्वर उपलब्ध करा रहा है, लगातार क्रैश हो रहा है। कई और दिलचस्प वाकये भी ‘पोकेमॉन गो’ के बहाने सामने आए हैं।

जिस आयु वर्ग में सबसे लोकप्रिय, वही तो देखता है पोर्न
‘पोकेमॉन गो’ 18 से 24 साल के लोगों के बीच सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में इस उम्र के लोग या कहें युवा पोर्न की गिरफ्त में हैं। लेकिन ‘पोकेमॉन गो’ ने बीते एक हफ्ते में सब बदलकर रख दिया है। गूगल ट्रेंड की मानें तो पिछले कुछ दिनों में ‘पोकेमॉन गो’ इतना ज्यादा सर्च किया गया कि इसने पोर्न वीडियो को कहीं पीछे छोड़ दिया है। ऐसा पहली बार है कि जब युवा पोर्नोग्राफी से ज्यादा एक मोबाइल गेम ढूंढ रहे हैं।

1990 में हुआ था जन्म, आज हर घर का हिस्सा है पोकेमॉन
जापानी कंपनी निन्टेंडो ने 1990 में पहली बार पोकेमॉन गेम लॉन्च किया था। हालांकि गेम को कामयाबी तब मिली जब इसने कार्ड के रूप में स्कूलों का रुख किया। तब कार्ड को आपस में बदलकर इसे खेला जाता है। इसके बाद टीवी पर पोकेमॉन की कार्टून सीरीज आई, जिसने बच्चों के बीच अपनी पैठ बनाई। 26 साल में पहली बार ऐसा हुआ है कि पोकेमॉन को स्मार्टफोन गेम के रूप में बाजार में उतारा गया है।

दो से तीन दिन में आएगा भारत में
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में ऐप स्टोर और गूगल प्ले स्टोर से गेम मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है। भारतीय उपभोक्ताओं को अभी इसके लिए इंतजार करना होगा। लेकिन ऐसी खबरें हैं कि अगले दो से तीन दिन में यह ऐप की शक्ल में यह गेम भारत में भी लॉन्च हो जाएगा।


ऐसे खेलिये
पोकेमॉन शब्द का पूरा अर्थ पॉकेट मॉन्स्टर (राक्षस) है। इस मोबाइल फोन गेम में लोग वर्चुअल दुनिया के ट्रेनर बनकर अलग-अलग शक्लों में मौजूद कई शैतानों को पकड़ते हैं, और फिर उन्हें एक-दूसरे से लड़ाते हैं। इसी आधार पर गेम में उनके ग्रेड और अंक बढ़ते हैं। पोकेमॉन गो पहले से चल रही पोकेमॉन सीरीज़ का नया गेम है, जिसे इस बार एंड्रायड और आईओएस डिवाइस में भी इंस्टाल किया जा सकता है। पोकेमॉन गो में आभासी दुनिया और असली दुनिया को मिला दिया गया है, जिससे खेल का रोमांच बढ़ जाता है। इस खेल से जुड़ा ऐप जीपीएस के जरिये आपकी लोकेशन और आपके फोन की घड़ी के आधार पर तय करता है कि कौन-सा पोकेमॉन आपके सामने आएगा। अगर आप घास के आसपास हैं तो कीड़े - मकोड़े जैसा, और अगर पानी के पास हैं जलजीवों जैसे पोकेमॉन पकड़ने होते हैं।

और प्रेमिका ने कहा, किसी एक को चुनना होगा
पोकेमॉन गो गेम की युवाओं को ऐसी लत लगी है कि रिश्ते टूटने की खबरें भी सामने आ रही हैं। अमेरिका की रहने वाली जूलिया वाकर ने अपने प्रेमी के लिए पोकेमॉन का पिकाचू गेम खरीदा, लेकिन वह उसका आदी हो गया। वहीं लिएन नाम के एक यूजर ने अपना ट्वीट शेयर करते हुए बताया कि उसकी प्रेमिका ने पोकेमॉन या उसमें से किसी एक को चुनने के लिए कहा है।

Saturday 2 July 2016

‘मौत की सेल्फी’ लेने का शौक क्यों?



कभी सेल्फी शौक हुआ करती थी। दायरा बढ़ा तो जुनून बनी और अब दुनियाभर में लोगों का पागलपन बनती जा रही है। जोखिम भरी जगहों पर एक क्लिक के जरिए हजारों लाइक्स की उम्मीद में युवा मौत के मुंह में समा रहे हैं। कानपुर में बीते दिनों सात बच्चे गंगा में डूबकर मर गए इसी सेल्फी के चक्कर में। कम से कम आप तो बचकर ही रहना।

सबसे आगे हम
- 49 मौतें हुईं साल 2014 में सेल्फी लेने के चक्कर में दुनियाभर में। सबसे ज्यादा 19 मौतें भारत में।
- 27 मौतें हुईं साल 2015 में सेल्फी के चक्कर में पूरी दुनिया में। इसमें आधी मौतें भारत में ही हुईं।
- भारत के अलावा अमेरिका और कनाडा क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं सेल्फी से हुई मौतों के मामले में।

युवा ही हैं चपेट में
- 21 साल है औसत उम्र सेल्फी लेने के चक्कर जान गंवाने वालों की। इसमें भी 75 फीसदी पुरुष थे।

मोबाइल से लगाव
27 सेकंड भी दूर नहीं रह पाते पुुरुष अपने मोबाइल से, महिलाएं 57 सेकंड की दूरी ही झेल पाती हैं।

ऐसा है नशा
10 लाख से ज्यादा सेल्फी ली जाती हैं दुनियाभर में 18 से 24 साल के युवाओं के बीच रोजाना।
05 करोड़ 84 लाख से ज्यादा तस्वीरें इंस्टाग्राम पर अपलोड हो चुकी हैं हैशटेग सेल्फी के साथ।
50 फीसदी कॉलेज पढ़ने वाले छात्र और 77 फीसदी छात्राएं अपनी सेल्फी स्नैपचैट पर अपलोड करते हैं।

हादसे या लापरवाही
- महाराष्ट्र के नागपुर की एक झील में सेल्फी लेने के बाद आधा दर्जन छात्र नदी में डूबे।
- ताजमहल के सामने जापानी पर्यटक सेल्फी लेने के दौरान सीढ़ियों पर फिसलकर घायल हुआ, बाद में मौत।
- अमेरिका के कैलिफोर्निया में बंदूक के साथ सेल्फी लेती महिला से दबा ट्रिगर, मौके पर मौत।
- बुल्गारिया में बुल रन के दौरान सांडों के साथ सेल्फी लेने की कोशिश में गई युवक की जान।

कोशिश
मुंबई पुलिस ने शहर भर में एक दर्जन से ज्यादा जगहों को नो सेल्फी जोन घोषित कर दिया है।

13 सितंबर 2002 को पहली बार ऑस्ट्रेलियाई इंटरनेट फोरम में सेल्फी शब्द का उपयोग हुआ था।
सेल्फी के साथ अब वेल्फी शब्द भी लोकप्रिय हो रहा है। इसमें फोटो की जगह वीडियो रिकॉर्ड किया जाता है।
सेल्फी खींचने के लिए बाजार में सेल्फी स्टिक भी मौजूद हैं। एंड्रायड उपभोक्ताओं के लिए ब्लूटूथ सेल्फी स्टिक भी आ गई है।