Friday 6 March 2015

अरविंद तुम तो ऐसे ना थे...


एक नई राजनीतिक संस्कृति के निर्माण का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी, जिसकी ओर परंपरागत राजनीतिक दलों से निराश लोग बड़ी उम्मीदों के साथ देख रहे थे, में चल रहा विवाद निराश करने वाला है। पहले योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण पर कार्रवाई और अब मयंक गांधी के ब्लॉग के जरिए आप पर हमले से स्पष्ट है कि विवाद के केंद्र में केजरीवाल ही हैं। अभी यह मान लेना कि विवाद खत्म हो गया है, नासमझी होगी। इस विवाद ने ‘आप’ के बीच की वैचारिक दरार को खुलकर सामने ला दिया है। साथ ही कहीं न कहीं इस तथ्य को भी स्थापित किया है कि पार्टी के भीतर के झगड़ों को भीतर ही निपटाने की सलाहियत अभी शीर्ष नेतृत्व के पास नहीं है।  आप से उम्मीद की जा रही थी कि वह करिश्माई और वर्चस्वशाली नेताओं पर आधारित पार्टी होने के बजाय अंदरूनी लोकतंत्र के आधार पर चलने वाली एक आधुनिक पार्टी के रूप में उभरेगी, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि वह भी दूसरी पार्टियों की ही तरह अंतर्कलह व वर्चस्व की राजनीति से ग्रस्त है। अरविंद ने जनता से जुड़ने की तो अद्भुत क्षमता का प्रदर्शन किया है, लेकिन अपनी ही पार्टी के लोगों को जोड़कर रखने की क्षमता वे कभी नहीं दिखा सके।
 वे अपने अहंकार से ऊपर उठ पाने में नाकाम रहे। इससे किसी को इंकार नहीं होना चाहिए कि आज के केजरीवाल पहले वाले विनम्र, साहसी, आदर्शवादी केजरीवाल से बहुत भिन्न् हैं, जो कि सार्वजनिक जीवन में निजी निष्ठा की रक्षा के लिए ऊंचे और रसूखदार लोगों से भिड़ जाने में भी संकोच नहीं करते थे। लेकिन अब वे अपने आदर्शों से समझौता करने को तैयार हैं। उन्होंने दूसरी पार्टी से आए लोगों का भी अपनी पार्टी में स्वागत किया है और अनुचित स्रोतों से प्राप्त होने वाले धन की भी चिंता नहीं की है। प्रशांत भूषण को इसी से आपत्ति है। उनकी आपत्ति जायज भी है।  एक तथ्य यह भी है कि मामला बहुत बढ़ जाने के बाद 'आप" के संयोजक पद से इस्तीफे की पेशकश और पार्टी की बैठक में शामिल नहीं होने के केजरीवाल के निर्णय से हालात और खराब हुए हैं। केजरीवाल से इससे अधिक जिम्मेदाराना व्यवहार की उम्मीद की जाती है।  केजरीवाल को इस अवसर पर यादव और भूषण पर अपने विश्वस्तों से हमला करवाने के बजाय खुद उनके साथ बैठकर उनसे बात करनी चाहिए थी और उनके दृष्टिकोण का सम्मान करना चाहिए था। ऐसा नहीं हो सकता कि एक तरफ तो आप लोकतांत्रिक समावेश की बात करें और दूसरी तरफ पार्टी में केवल अपने मन की चलाते रहें।  अगर 'आप" को अपने द्वारा जगाई गई उम्मीदों पर खरा उतरना है तो उसे सबसे पहले तो नेताओं की एक दूसरी सशक्त पंक्ति तैयार करनी होगी। उसे अपने शीर्ष नेता का कार्यकाल निर्धारित करना होगा और एक व्यक्ति-एक पद के सिद्धांत पर सख्ती से अमल करना होगा। अब भी देर नहीं हुई है। केजरीवाल को चाहिए कि वे अपने अहंकार को ताक पर रखते हुए अपने साथियों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाएं। 

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