दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों के जारी होने के एक दिन बाद मैं संभवतः विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन गेट के बाहर दो लोगों की बातचीत सुन रहा था। वह निश्चित ही निम्म आय वर्ग के लोग थे। उन्होंने एक दूसरे से जीत का दंभ भरा। उनके आवाज में एक भारीपन और नशा था। वह भारीपन और नशा भावुकता का नहीं बल्कि अति आत्मविश्वास का था। दरअसल, दोष उनका भी नहीं था। उन्हें आम आदमी पार्टी द्वारा जिस तरह के सपने दिखाए गए उन सपनों के जरिए उन लोगों ने खुद को अंबानी -अदानी की श्रेणी में रखना शुरू कर दिया है। दिल्ली की जनता का केजरीवाल पर यह अति आत्मविश्वास निश्चित ही खतरनाक है। दिल्ली के चुनावी नतीजों का सबसे अहम पहलू यह है कि केजरीवाल प्रतीको की राजनीति करने में माहिर हैं। उन्हें मीडिया में खुद को बना कर रखना बखूबी आता है। अहम बात यह है कि उनके फौज में कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने कैमरा केंद्रित राजनीति ही की है। ऐसे में मीडिया में बने रहने के लिए एक बार फिर वह केंद्र के साथ आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलाएंगे। मीडिया उन पर और वे मोदी पर हमला करेंगे; फिर धरने को हथयार बनाएंगे। फिर कोई सोमनाथ भारती जैसा मंत्री पुलिस अधिकारी से लड़ जाएगा। असल में केजरीवाल की यह जीत उन्हें तुक्के में मिली है शायद इस जीत का अंदाजा उन्हें भी नहीं था। इस जीत को पचा पाना निश्चित ही उनके लिए आसान नहीं होगा। उनके इतिहास को देखते हुए हम कह सकते हैं कि उनका अहंकार चरम पर जाना तय है। हालांकि जीत के बाद से ही केजरीवाल और उनकी पार्टी के दूसरे नेता लगातार कह रहे हैं कि उनके कार्यकर्ताओं को अहंकार से दूर रहना होगा, लेकिन देखना अहम होगा कि कितना अमल कर पाते हैं। इस 67 विधायकों में अधिकतर वो हैं जो केजरीवाल को कभी भी 'गच्चा' दे सकते हैं।यह भी सच है कि 'आरोप रनर' केजरीवाल काम की बजाए सत्ता सुख लेने में दिलचस्पी रहेगी और राज्य में नाकामी का ठिकरा हर वक्त केंद्र पर ही फोड़ेंगे।
नतीजों का एक पहलू यह भी है कि केजरीवाल की टीम में ज्यादातर खिलाड़ी राजनीति की पिच पर लंबा अनुभव नहीं रखने वाले हैं। ऐसे में केजरीवाल को खुद के अलावा चुने गए 66 विधायकों की लंबी-चौड़ी फौज भी संभालनी होगी जो अनुभव हीन केजरीवाल नहीं कर सकते हैं। दिल्ली चुनाव के नतीजों का बड़ा नुकसान यह है कि विधानसभा में विपक्ष की मौजूदगी न के बराबर होगी। 67 सत्ताधारी विधायकों के बीच तीन विपक्षी विधायकों की आवाज सुनना कई बार बहुत मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में विधानसभा में होने वाली बहसों और कामों के एकतरफा हो जाने का डर बना रहेगा और संयोग यह है कि केजरीवाल अपने आगे किसी की सुनते भी नहीं है। राजनीति में वादे कमोबेश उसी तरह होते हैं, जैसे किसी पक्षी के लिए पंख। राजनीति की उड़ान के लिए भी वादों के पंखों की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन जब पंख ज़रूरत से ज्यादा बड़े हो जाएं, तो दूर तक उड़ना मुश्किल हो जाता है, इसलिए केजरीवाल सरकार जिन वादों के पंखों के सहारे इस वक्त सातवें आसमान पर है, उसे वे वादे जल्द पूरे भी करने होंगे, वरना जनता पर कतरने में भी वक्त नहीं लगाएगी। अब पांच साल के लिए मंच सज गया है, बवाल मचेगा, जनता पछताएगी औरहर दिन नया कांड होगा, इंतजार कीजिए।
दीपक तिवारी