Sunday 23 March 2014

दबाव के दौर में नरेंद्र मोदी- दीपक कुमार

वैसे तो नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे प्रगतिशिल और विकसित राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में है जिससे कभी हाराना नहीं सीखा। अतीत का एक चाय वाला 'छोटू ' अब भावी प्रधानमंत्री बनने के काफी करीब आ चुका है। माहौल नरेंद्र मोदी के पक्ष में है, भाजपा भी उत्साहित है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से जिस कान्फिडेंस के दौर से भाजपा गुजर रही है, कहीं उसका हश्र भी 2004 के लोकसभा चुनाव की तरह न हो जाए,इससे सचेत रहने की आवश्यकता है। अतीत के आईने में नरेंद्र मोदी को एक बार देखना ही होगा, क्योंकि मोदी की असली जंग अब शुरू होने वाली है। लोकसभा चुनाव 2014 का काउंटडाउन शुरू हो चुका है और तकरीबन साफ हो चुका है कि देश मोदी लहर के प्रभाव में है, बावजूद इसके पीएम पद की कुर्सी कुछ दूर दिख रही है। क्योंकि एक बात साफ है कि मोदी के लिए चुनौतियां बाहरी से ज्यादा भीतरी हैं और गांधीनगर से दिल्ली तक के अपने सफर में मोदी को कई बाधा अभी भी पार करने बाकी हैं।

मोदी के पक्ष में माहौल को देखते हुए एक बात तो साफ है कि चुनावी मैदान में अन्य राजनीतिक पार्टियों से लड़ना शायद उनके लिए आसान हो, लेकिन उनकी अपनी ही पार्टी के अंदर की पार्टियों से लड़ना बहुत ही मुश्किल है। हालिया लालकृष्ण आडवाणी सहित दूसरे बुजुर्ग नेताओं की नाराजगी मोदी के लिए चुनौती बन सकती है। मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, हरिन पाठक की हालिया नाराजगी भी फिक्रमंद करती है। जसवंत सिंह और हरिन पाठक दोनों ने पार्टी से बाहर होने का लगभग फैसला कर लिया है। किसी जमाने में दोनों ही बीजेपी के हनुमान कहे जाते थें । जहां जसवंत सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी के हनुमान तो हरिन पाठक लाल कृष्ण आडवाणी के हनुमान। एनडीए की छह साल की सरकार में हर संकट में वाजपेयी को जसवंत सिंह याद आते थे। इसी तरह, आडवाणी की गांधीनगर सीट के सारे काम पास की अहमदाबाद पूर्व सीट से सांसद हरिन पाठक करते थे। आडवाणी के रूठने के पीछे भी यही माना गया कि वो पार्टी पर पाठक के टिकट के लिए दबाव बना रहे थे। लेकिन नरेंद्र मोदी, हरिन पाठक के टिकट के लिए तैयार नहीं हैं। 2009 के चुनाव में भी मोदी पाठक का टिकट काटने पर अड़ गए थे। तब भी आडवाणी की बेहद सख्ती के बाद ही उन्हें टिकट मिल पाया था। फिलहाल स्थिति यह है कि आडवाणी मान गए हैं।
   लेकिन राज्यों में ऐसे नेताओं की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है जो नरेंद्र मोदी की राह में बाधा बन सकते हैं। मसलन, लालकृष्ण आडवाणी खेमे के सुषमा स्वराज और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मोदी की मुसीबत बन सकते हैं। आखिर सुषमा भी प्रधानमंत्री की दौड़ में खुद को पीछे नहीं मानतीं, वहीं उन्हें शिवसेना का समर्थन पहले से है। और शिवराज की छवि मोदी के बराबर तो नहीं, लेकिन सर्वमान्य नेता की बन सकती है, मप्र में उनकी छवि भी मजबूत है। इसके अलावा अकालियों के ज्यादा नजदीक अरुण जेटली लोकसभा चुनाव लड़कर अपना अपना समर्थन बढ़ा रहे हैं। हालांकि वे मोदी समर्थक माने जाते हैं, लेकिन विकल्प बन सकते हैं। वहीं मौजूदा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की निगाहें भी पीएम की कुर्सी पर जमी हैं। ऐसा कहा जाता है कि सरकार बनाने के लिए अगर तीसरे मोर्चे की जरुरत पड़ी, तो संघ मोदी की जगह राजनाथ को आगे करेगा। इसीलिए उन्हें बीजेपी अध्यक्ष भी बनाया गया है। इसके अलावा दूसरे दलों से बीजेपी में आए नए और भ्रष्ट नेताओं को मिल रहा महत्व भी मोदी के लिए तकलीफ बढ़ा सकता है। जमीनी कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज किया जा रहा है, वहीं कल तक मोदी को नकार रहें नेताओं को आंखो पर बिठाया जा रहा है। ऐसे में पार्टी के अंदर विरोध होना स्वभाविक है, जो अब बाहर आने लगा है।
एक बात यह भी है कि अगर नरेंद्र मोदी आने वाले समय में गठबंधन की राजनीति में प्रवेश करते हैं तो उसके लिए उन्हें पहले से ही अपने कुनबे का विस्तार करना होगा। 1999 में एनडीए में 24 से ज्यादा दल थे, लेकिन 2004 के बाद से बीजेपी का कुनबा बुरी तरह बिखरा है। फिलहाल बड़ी पार्टियों की शक्ल में शिवसेना और अकाली दल ही साथ हैं, तीसरा बड़ा दल जेडीयू बीजेपी से अलग हो चुका है। तृणमूल की ममता बनर्जी फिलहाल किसी गठबंधन में नहीं है। संभव है कि वे अपनी शर्तों के साथ मोदी का साथ दें, लेकिन इसके लिए वे चुनाव नतीजों का इंतजार करेंगी। लेकिन एक सच यह भी है कि बीजेपी ममता बनर्जी जैसे तुनुकमिजाजी नेताओं से बचेगी। वहीं मोदी के करीब रहीं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का मूड भांपना संभव नहीं। खुद पीएम बनने का सपना रखने वाली 'अम्मा' तीसरे मोर्चे के ज्यादा नजदीक दिख रही हैं, क्योंकि शायद वहां उनका सपना पूरा हो सकता है। ओडिशा में नवीन पटनायक जैसे पुराने साथियों की वापसी का फिलहाल तो कोई संकेत नहीं है। एनडीए का कुनबा बढ़ाने के साथ बीजेपी को लोकसभा में अपनी ताकत भी बढ़ानी होगी, तीन बार केंद्र की सत्ता पर काबिज़ हो चुकी बीजेपी का सच यह है कि उन्हें आजतक लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिला है। हालांकि 272+ के लिए मोदी लगे तो हुए हैं, लेकिन तमाम ओपिनियन पोल और सर्वे अब भी बीजेपी को 272 से ही दूर कर रहे हैं और तीसरे मोर्चे को मिलने वाली बड़ी कामयाबी के संकेत दे रहे हैं। यह मोदी के लिए राह मुश्किल कर सकता है। इसके अलावा पहली बार लोकसभा चुनावों में हिस्सा ले रही आम आदमी पार्टी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। हालांकि बीजेपी पार्टी की सदस्यता लेने वाले नेताओं के साथ नए दलों से गठजोड़ रोजाना हो रहा है। लेकिन ध्यान में यह रहे कि उनके आने से अंदरूनी छति न हो। मसलन, रामविलास पासवान और रामकृपाल यादव के भाजपा में शामिल होने से बिहार भाजपा में जोरशोर से नाराजगी है। 
इस बार नरेंद्र मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती अपनी सांप्रदायिक छवि से बाहर निकलना है। गुजरात दंगों में उनकी भूमिका और अक्सर लगते आरोपों पर देश का मतदाता क्या सोचता है, यह उसके वोट से ही पता चलेगा। यदि इन चुनावों में मोदी अपनी सांप्रदायिक छवि पर मतदाताओं का भरोसा पा गए, तो यह आरोप भी सदा के दम तोड़ देगा। हालांकि अल्पसंख्यकों को मोदी द्वारा उनकी टोपी न पहनना आज भी याद है और वे यह देख भी रहे हैं कि क्षेत्र के हिसाब से मोदी पगड़ी, साफा और स्थानीय बोली खूब बोल रहे हैं। ऐसे में मोदी पर भारी दवाब होगा कि वह मुस्लिम वोटरों को कैसे हैंडल करते हैं।
राज्यों में भी बीजेपी के सिमटते जनाधार को फैलाना मोदी की चुनौती है। दक्षिण में अपना एकमात्र गढ़ यानी कर्नाटक बीजेपी गंवा चुकी है। उत्तराखंड और हिमाचल भी बीजेपी के हाथ से फिसल पर कांग्रेस की झोली में जा चुके हैं। यूपी जैसे बड़े राज्य में पार्टी दहाई का आंकड़ा छूने को तरसती है। आंध्र में टीडीपी से पुराने गठबंधन के बाद भी सत्ता दूर है। मप्र, छग, राजस्थान और गोवा छोड़ दें, तो इनके सिवा किसी बड़े राज्य में राहत नहीं। ओडिशा, बंगाल, महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर के राज्य जैसे- सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय पर मोदी का फोकस तो है, तो लेकिन जनाधार बढ़ेगा, इसकी गुंजाइश भी कम है। जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रीय दल हावी हैं, तो दिल्ली से लगे हरियाणा में भी कांग्रेस सरकार है। पंजाब से उम्मीद है, लेकिन अगर फायदा हुआ, तो भी श्रेय अकालियों को जाएगा। यही हाल महाराष्ट्र में है, शिवसेना से गठबंधन और मनसे के वादे के बावजूद बहुत फायदा होगा, यह नहीं कह सकते। दिल्ली में सत्ता की दहलीज तक पहुंचने के बाद भी कसक बाकी रह गई। पार्टी सरकार नहीं बना पाई। बिहार में नीतीश की जेडीयू से गठबंधन खत्म करना बड़ा नुकसान कर सकता है। पार्टी सिर्फ रामविलास पासवान की एलजेपी के भरोसे है, जो खुद पिछले चुनाव में महज एक सीट तक सिमट गई थी। मोदी की सबसे बड़ी चुनौती रैलियों की भीड़ को वोटों में तब्दील करने की है वर्ना उनकी छवि भी राहुल गांधी की रोबोट मैन की हो जाएगी।
बहरहाल, नरेन्द्र मोदी के सामने आज जिस तरह की परिस्थितियां हैं, उनका अनुमान पहले से ही लगाया जा रहा था। उनके विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उनके राजनीतिक भविष्य को लेकर आकलन भी शुरू हो गए थे। लेकिन पिछले दो सालों में कट्टरवाद और उदार विकासवाद के बीच जो अनूठा सामंजस्य नरेंद्र मोदी ने बैठाया है, उसका फायदा भाजपा को मिल सकता है। उनकी छवि और अपने आप से लड़ाई बहुत बड़ी और अहम है।  गुजरात में लगातार तीसरी बार स्वीकारे जाने के बाद अब उनकी छलांग बहुत लंबी है और रोड़े अटकाने वाले भी बहुत। पर अगर वो अपने आप से लड़ाई जीत लेंगे तो इस छलांग के लिए ख़ुद को तैयार पाएंगे।  हालांकि चुनावी रणनीति बनाने में नरेंद्र मोदी को उनका संघ प्रचारक होने का अनुभव काम आता है। एक तपे-तपाए, मंजे हुए जमीनी कार्यकर्ता के रूप में वो हर मोर्चे पर अपनी पकड़ बनाए रखते हैं। मोदी की एक ख़ासियत यह है कि अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि के बावजूद वे अपने नेतृत्व को केवल फतवों तक या हिंदूवाद से जुड़े भावनात्मक ज्वार तक ही सीमित नहीं रखते बल्कि उसे विकासवाद की नई परिभाषा से भी जोड़ते हैं। मोदी को ये ठीक-ठीक पता है कि राजनीति, महत्वाकांक्षा और जनछवि के इस घोल में कब कितनी मात्रा में कट्टरता मिलानी है, कितना और कहां विकास करना है और वो कौन से जमीनी मुद्दे हैं, जिनके मूल से ये घोल तैयार होता है। उन्होंने काम भी किया और काम का प्रचार भी किया। लोगों ने उन्हें वोट दिया और जिताया। इसका पूरा श्रेय तो उन्हें देना ही होगा।
बावजूद उन्हें असली श्रेय तब मिलेगा जब वह जनता का विश्वास जीत लेते हैं। बहरहाल,  नरेंद्र मोदी भी बखूबी जानते हैं कि दिल्ली अभी दूर है। इस दूरी को वो किस तरह पार कर पाते हैं, अपने आप और इन समस्याओं से कैसे और कितना लड़ पाते हैं, देखना दिलचस्प होगा।
लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।

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