जाट शब्द जुबान पर
आते ही एक आम जन के दिमाग में ऐसी जाति की छवि बनती है, जिसमें एक अजीबोगरीब अल्हड़पन, शारीरिक बलवंता,
मंदबुद्धि, तीखे तेवर और तल्ख आवाज की मौजूदगी
हो । दरअसल, ऐतिहासिक रूप से जाटों ने अन्य लोगों के मन में
अपनी जीवनशैली के कारण एक ख़ास तरह की पहचान भी बनाई है और खास विचारों को बढ़ावा
भी दिया है। उदाहरण के लिए 18वीं शताब्दी के पंजाबी कवि वारिस शाह ने जाटों की
व्याख्या नासमझ और गंवार लोगों के तौर पर की थी। लेकिन इस जाति की खास बात यह है
कि उनके बीच उच्च स्तर की गुटबंदी होती है जो उनके परिवारों के बीच आपसी संवाद में
भी दिखाई पड़ती है और जो राज्य की राजनीति तक जाती है। ये गुट सत्ता के लिए आपस
में प्रतिस्पर्धा करते हैं और निरंतर एक दूसरे से उलझते भी रहते हैं। लेकिन किसी
बाहरी तत्व के लिए वह एकजुट भी हो जाते हैं।
दरअसल, जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति के रूप में जाने जाते है। लेकिन अतीत को
टटोलें तो औरंगजेब के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य
शक्ति का रूप दे दिया । मुग़लिया सल्तनत के अंत से अंग्रेज़ों के शासन तक ब्रज
मंड़ल में जाटों का प्रभुत्व रहा। इन्होंने ब्रज के राजनीतिक और सामाजिक जीवन को
बहुत प्रभावित किया। यह समय ब्रज के इतिहास में 'जाट काल'
के नाम से जाना जाता है । मुग़ल सल्तनत के आखरी समय में जो शक्तियाँ
उभरी, जिन्होंने ब्रजमंडल के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभाई, उन जाट सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर भी हैं
।
वर्तमान दौर में देश
में जाटों की गिनती आम तौर पर बड़ी या मध्यम जोत वाले संपन्न किसानों के रूप में
होती है। दिल्ली-एनसीआर और राजस्थान के भरतपुर-धौलपुर जिलों समेत कई इलाकों में
जी-तोड़ मेहनत के बलबूते उन्होंने समाज में अपनी बेहतर जगह बनाई है। कई इलाकों में
जाट सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से काफी सक्षम हैं,
लेकिन सरकारी नौकरियों में उनकी नुमाइंदगी अब भी उनकी हैसियत वाले
समुदाय के अनुरूप नहीं है। उच्च शिक्षा के मामले में भी उनकी स्थिति कमोबेश पिछड़े
या अति पिछड़े जैसी ही है। यही वजह है कि राजस्थान, हरियाणा
और पश्चिमी उत्तर प्रदेश समेत दूसरे राज्यों में जाट आरक्षण की मांग के लिए लंबे
समय से आंदोलन भी होते रहे हैं। कई बार जाट आरक्षण को लेकर हिंसक आंदोलन भी हुए,
लेकिन यह मामला टलता रहा । जाट आरक्षण की मांग को लेकर सरकार पर जब
ज्यादा दवाब बढ़ा, तो उसने इस मांग पर विचार करने के लिए वित्त
मंत्री पी. चिदंबरम की अगुआई में गृह मंत्री, सामाजिक न्याय
व अधिकारिता मंत्री और कार्मिक, प्रशिक्षण व पीएमओ में
राज्यमंत्री को शामिल कर मंत्रियों का एक समूह (जीओएम) गठित किया, जिसने पिछले दिनों जाट आरक्षण पर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। जीओएम ने
अपनी रिपोर्ट में इस बाबत सरकार को दो विकल्प सुझाए थे। उन्हीं के आधार पर सामाजिक
न्याय व अधिकारिता मंत्रालय ने जाट आरक्षण का रोडमैप केंद्रीय कैबिनेट को
विचारार्थ भेजा । जिस पर कैबिनेट ने जाट कोटे के प्रस्ताव अपनी मंजूरी दे भी दी।
कैबिनेट के इस फैसले के बाद जाट समुदाय को केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सूची में
शामिल कर लिया जाएगा और उन्हें भी वे फायदे मिलने लगेंगे, जो
देश में पिछड़े वर्ग को मिलते हैं । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में
आयोजित कैबिनेट के इस फैसले के बाद केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षण संस्थानों
में पिछड़े वर्ग के तहत जाटों को आरक्षण मिलने का रास्ता साफ हो गया है। इसका सीधा
फायदा लगभग उत्तर और मध्य भारत के नौ करोड़ जाटों को मिलेगा।
लेकिन सवाल यह है कि
क्या आज के दौर में जाटों के लिए आरक्षण का यह लॉलीपॉप सार्थक है? क्योंकि जाटों का एक सच यह भी है कि वे अपने मेहनत और तरक्की के नए—नए आयाम तलाशते हैं। आज जाट समुदाय के युवा हर मोर्चे पर अपनी उपस्थिति
दर्ज करा रहे हैं। विदेशों में रहने वाले अधिकांश पंजाबी लोगों में जाटों की एक
बड़ी संख्या है। खेल से लेकर राजनीति तक या फिल्म से लेकर व्यापार तक जाट छाए हुए
हैं। पंजाबी पत्रिका 'लकीर' के एक
सर्वेक्षण के अनुसार लेखकों का एक बड़ा हिस्सा जाट जाति से है। साहित्य में ढेर
सारी छोटी कहानियां और उपन्यास जाट किसानों से संबंधित है। इन मापदंडों के आधार पर
जाटों को पिछड़ा नहीं कहा जा सकता है।
अगर इन बातों को नजरअंदाज करते हुए राष्ट्रीय
पिछड़ा वर्ग आयोग(एनसीबीसी) द्वारा केंद्र सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट की भी मानें
तो,
जाट ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल होने की कसौटी और मापदंडों पर
खरे नहीं उतरते । एनसीबीसी का कहना है कि जाट न तो सामाजिक और न ही आर्थिक या अन्य
किसी लिहाज से पिछड़े हैं, हालांकि कुछ राज्यों ने अपने यहां
जाटों को आरक्षण दिया है, लेकिन केंद्र सरकार के स्तर पर
उन्हें यह सुविधा देना गलत होगा । अपने फैसले पर पहुंचने से पहले आयोग ने 450
प्रस्तुतियों का जायजा लिया। इसके अलावा खुली जन सुनवाई रखी गई और देश भर में
जाटों की स्थिति को लेकर विभिन्न अध्ययनों के बाद ही उन्हें आरक्षण देने के खिलाफ
4-0 से फैसला दिया। बावजूद इसके सरकार ने यदि जाट आरक्षण पर मुहर लगा दी है,
तो इसके पीछे जाटों के पिछड़ेपन को दूर करने से ज्याद चिंता आगामी
लोकसभा चुनाव में जाट वोटरों को लुभाने की चिंता है। जिन राज्यों में जाट समुदाय
की बहुतायत है, वहां उनके वोट तकरीबन 100 लोकसभा सीटों पर
फैसले को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। यही वजह है कि सरकार, जाट आरक्षण पर एनसीबीसी की सिफारिशों को दरकिनार कर आगे बढ़ी । इतना ही नहीं
सरकार ने अदालत के उन सभी फैसलों को भुला कर यह फैसला लिया है, जिनमें पिछड़ेपन के आंकड़े जुटाए बिना आरक्षण देने की मनाही की गई है। शायद
ही अदालत में सरकार का यह फैसला टिक पाए।
क्योंकि यह बात सच है
कि संविधान ने, सरकार को सामाजिक व शैक्षणिक रूप से
पिछड़ों के लिए विशेष उपबंध बनाने का हक दिया है । लेकिन इसकी पहली शर्त यह है कि
लाभ पाने वाला समुदाय सामाजिक और आर्थिक रूप से आंकडों के साथ पिछड़ा हो,अन्यथा अदालत के सामने संविधान में दिए समानता के अधिकार को झुठलाना
मुश्किल होगा। यह बात भी देखना जरूरी है कि सरकारी नौकरियों में उनका कितना
प्रतिनिधित्व है? सिर्फ जाति और धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं
दिया जा सकता। जाहिर है इन सब मापदंडों से इतर आरक्षण की जो भी कोशिश होगी,
उसे अदालत में चुनौती मिलना तय है।
कहीं सरकार के इस
फैसले का हश्र भी अल्पसंख्यक आरक्षण जैसा न हो। अगर याद हो तो यूपीए सरकार ने
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए केंद्र
सरकार की नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में अल्पसंख्यक आरक्षण की घोषणा की थी, लेकिन वह फैसला आज तक अमल में नहीं आ पाया है। अल्पसंख्यक आरक्षण का
मुद्दा सुप्रीम कोर्ट की संविधानपीठ के समक्ष विचाराधीन है । उधर हैदराबाद के
न्यायालय ने भी धर्म,जाति आधारित आरक्षण पर अपना कड़ा रूख
अख्तियार कर चुका है।
अब जाटों के बारे में
भी एक सच जानना जरूरी है कि वह अहं, तानाशाही,
संकीर्णता से साराबोर होते हैं । जाटों ने पंजाब राज्य या दिल्ली
जैसे मेट्रो सिटी पर अपना कब्जा कर लिया है । पंजाब में अधिकांश कृषि भूमि पर
जाटों का नियंत्रण है और वे राज्य में हर जगह मौजूद हैं। वर्तमान समय में पंजाब की
कुल आबादी में जाट 35 से 40 फ़ीसदी है
और वे सबसे बड़े जाति आधारित समूह हैं। अगर दिल्ली के संदर्भ में बात करें तो वह
दिल्ली के स्वयंभू मालिक बन बैठे हैं। जिस वजह से बाहर से आ रहे लोगों को दिल्ली
में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इस बात से सभी वाकिफ हैं कि दिल्ली की
नींव रिफ्यूजी समाज पर टिकी है। ऐसे में सवाल उठता है कि इन्हें दिल्ली का मालिक
बनने की अनुमति कौन देता है? और फिर जब इनमें मालिक बनने की
हैसियत है तो फिर यह पिछड़े कहां हैं? पिछड़े या अति पिछड़े
तो वो होते हैं जिन्हें मालिक नहीं बल्कि नौकर बनकर रहना पड़ता है। ऐसे में जाटों
में शोषित होने या शोषित रहने जैसी कोई बात दिखती नहीं है। हां, इतना जरूर है कि इनमें बाहरी लोगों को शोषित करने की स्फुर्ति और हुनर
जरूर दिखती है।
एक बात कि कुछ
परिवारों की ग़रीबी किसी जाति को पिछड़ा नहीं बनाती। पिछड़ापन साबित करने के लिए
कुछ निश्चित महत्वपूर्ण मानक होने चाहिए। अब इसका मतलब यह नहीं की अन्य किसी
पिछड़ेपन की वजह से भी आरक्षण की मांग हो । उदाहरण के तौर पर हरियाणा और पश्चिमी
उत्तर प्रदेश में खाप पंचायतों की निरंतर मौजूदगी पिछड़ेपन का महत्वपूर्ण सूचक है, तो इसमें आरक्षण की जरूरत है भी नहीं। यह तो बौद्धिक पिछड़ेपन, संकीर्ण मानसिकता, तानाशाही प्रवृत्ति का सूचक है
दूसरी बात कि अब तक हमारे संविधान में इन सब चीजों को लेकर कोई आरक्षण का प्रावधान
नहीं है। तो ऐसे में यह क्यों न मान लिया जाए कि मनमोहन सरकार द्वारा जाटों के
आरक्षण की जो चाल चली गई है, उसकी बिसात में जाट फंस गए हैं।
अगर इस जाति में आरक्षण देनी ही है तो जाट
समुदाय के महिलाओं को दी जाए। क्योंकि इस जाति में महिलाओं का सच यह है कि शिक्षा, समाजिक सरोकार से दूर हैं। आज भी उनकी स्थिति दासी जैसी है,
यानि
यहां महिलाओं को जुते की नोंक पर रखा जाता है। तभी तो गोत्र विवाह,कन्या भू्ण हत्या, बलात्कार के नंगे तमाशे जाट बहुल
इलाकों में ज्यादा पाए जाते हैं। यहां की महिलाएं शारीरिक रूप से कमजोर होने के
बावजूद भी बाहरी काम काज को संभालती है। वहीं इस समुदाय के मर्दो का काम सिर्फ
हुक्का गुड़गुड़ाना और ताश के पत्तों पर जवानी को दर्ज कराना होता है। बेशर्मी और
अपराध की संकीर्णता भी इस समुदाय में प्रबल है। इसका मतलब यह नहीं कि इस जाति में
सभी एक जैसे हैं, लेकिन अधिकांश सच यही है। इनकी समस्या यह
है कि इनमें अपराध बोध और क्षमा बोध जैसी भावना नहीं है, खुद
को आजाद पंछी समझते हैं।
बहरहाल, इस समुदाय की जरूरत यह है कि यह अपनी सोच और उम्मीद को जिंदा रखें और अपने
दम और दंभ को थकने न दें,साथ ही इंसानियत को भी सींचे , तब शायद ही उन्हें किसी आरक्षण की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि इस समुदाय का
दूसरा नाम पराक्रम और मेहनत है।
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