Sunday 23 March 2014

दबाव के दौर में नरेंद्र मोदी- दीपक कुमार

वैसे तो नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे प्रगतिशिल और विकसित राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में है जिससे कभी हाराना नहीं सीखा। अतीत का एक चाय वाला 'छोटू ' अब भावी प्रधानमंत्री बनने के काफी करीब आ चुका है। माहौल नरेंद्र मोदी के पक्ष में है, भाजपा भी उत्साहित है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से जिस कान्फिडेंस के दौर से भाजपा गुजर रही है, कहीं उसका हश्र भी 2004 के लोकसभा चुनाव की तरह न हो जाए,इससे सचेत रहने की आवश्यकता है। अतीत के आईने में नरेंद्र मोदी को एक बार देखना ही होगा, क्योंकि मोदी की असली जंग अब शुरू होने वाली है। लोकसभा चुनाव 2014 का काउंटडाउन शुरू हो चुका है और तकरीबन साफ हो चुका है कि देश मोदी लहर के प्रभाव में है, बावजूद इसके पीएम पद की कुर्सी कुछ दूर दिख रही है। क्योंकि एक बात साफ है कि मोदी के लिए चुनौतियां बाहरी से ज्यादा भीतरी हैं और गांधीनगर से दिल्ली तक के अपने सफर में मोदी को कई बाधा अभी भी पार करने बाकी हैं।

मोदी के पक्ष में माहौल को देखते हुए एक बात तो साफ है कि चुनावी मैदान में अन्य राजनीतिक पार्टियों से लड़ना शायद उनके लिए आसान हो, लेकिन उनकी अपनी ही पार्टी के अंदर की पार्टियों से लड़ना बहुत ही मुश्किल है। हालिया लालकृष्ण आडवाणी सहित दूसरे बुजुर्ग नेताओं की नाराजगी मोदी के लिए चुनौती बन सकती है। मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, हरिन पाठक की हालिया नाराजगी भी फिक्रमंद करती है। जसवंत सिंह और हरिन पाठक दोनों ने पार्टी से बाहर होने का लगभग फैसला कर लिया है। किसी जमाने में दोनों ही बीजेपी के हनुमान कहे जाते थें । जहां जसवंत सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी के हनुमान तो हरिन पाठक लाल कृष्ण आडवाणी के हनुमान। एनडीए की छह साल की सरकार में हर संकट में वाजपेयी को जसवंत सिंह याद आते थे। इसी तरह, आडवाणी की गांधीनगर सीट के सारे काम पास की अहमदाबाद पूर्व सीट से सांसद हरिन पाठक करते थे। आडवाणी के रूठने के पीछे भी यही माना गया कि वो पार्टी पर पाठक के टिकट के लिए दबाव बना रहे थे। लेकिन नरेंद्र मोदी, हरिन पाठक के टिकट के लिए तैयार नहीं हैं। 2009 के चुनाव में भी मोदी पाठक का टिकट काटने पर अड़ गए थे। तब भी आडवाणी की बेहद सख्ती के बाद ही उन्हें टिकट मिल पाया था। फिलहाल स्थिति यह है कि आडवाणी मान गए हैं।
   लेकिन राज्यों में ऐसे नेताओं की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है जो नरेंद्र मोदी की राह में बाधा बन सकते हैं। मसलन, लालकृष्ण आडवाणी खेमे के सुषमा स्वराज और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मोदी की मुसीबत बन सकते हैं। आखिर सुषमा भी प्रधानमंत्री की दौड़ में खुद को पीछे नहीं मानतीं, वहीं उन्हें शिवसेना का समर्थन पहले से है। और शिवराज की छवि मोदी के बराबर तो नहीं, लेकिन सर्वमान्य नेता की बन सकती है, मप्र में उनकी छवि भी मजबूत है। इसके अलावा अकालियों के ज्यादा नजदीक अरुण जेटली लोकसभा चुनाव लड़कर अपना अपना समर्थन बढ़ा रहे हैं। हालांकि वे मोदी समर्थक माने जाते हैं, लेकिन विकल्प बन सकते हैं। वहीं मौजूदा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की निगाहें भी पीएम की कुर्सी पर जमी हैं। ऐसा कहा जाता है कि सरकार बनाने के लिए अगर तीसरे मोर्चे की जरुरत पड़ी, तो संघ मोदी की जगह राजनाथ को आगे करेगा। इसीलिए उन्हें बीजेपी अध्यक्ष भी बनाया गया है। इसके अलावा दूसरे दलों से बीजेपी में आए नए और भ्रष्ट नेताओं को मिल रहा महत्व भी मोदी के लिए तकलीफ बढ़ा सकता है। जमीनी कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज किया जा रहा है, वहीं कल तक मोदी को नकार रहें नेताओं को आंखो पर बिठाया जा रहा है। ऐसे में पार्टी के अंदर विरोध होना स्वभाविक है, जो अब बाहर आने लगा है।
एक बात यह भी है कि अगर नरेंद्र मोदी आने वाले समय में गठबंधन की राजनीति में प्रवेश करते हैं तो उसके लिए उन्हें पहले से ही अपने कुनबे का विस्तार करना होगा। 1999 में एनडीए में 24 से ज्यादा दल थे, लेकिन 2004 के बाद से बीजेपी का कुनबा बुरी तरह बिखरा है। फिलहाल बड़ी पार्टियों की शक्ल में शिवसेना और अकाली दल ही साथ हैं, तीसरा बड़ा दल जेडीयू बीजेपी से अलग हो चुका है। तृणमूल की ममता बनर्जी फिलहाल किसी गठबंधन में नहीं है। संभव है कि वे अपनी शर्तों के साथ मोदी का साथ दें, लेकिन इसके लिए वे चुनाव नतीजों का इंतजार करेंगी। लेकिन एक सच यह भी है कि बीजेपी ममता बनर्जी जैसे तुनुकमिजाजी नेताओं से बचेगी। वहीं मोदी के करीब रहीं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का मूड भांपना संभव नहीं। खुद पीएम बनने का सपना रखने वाली 'अम्मा' तीसरे मोर्चे के ज्यादा नजदीक दिख रही हैं, क्योंकि शायद वहां उनका सपना पूरा हो सकता है। ओडिशा में नवीन पटनायक जैसे पुराने साथियों की वापसी का फिलहाल तो कोई संकेत नहीं है। एनडीए का कुनबा बढ़ाने के साथ बीजेपी को लोकसभा में अपनी ताकत भी बढ़ानी होगी, तीन बार केंद्र की सत्ता पर काबिज़ हो चुकी बीजेपी का सच यह है कि उन्हें आजतक लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिला है। हालांकि 272+ के लिए मोदी लगे तो हुए हैं, लेकिन तमाम ओपिनियन पोल और सर्वे अब भी बीजेपी को 272 से ही दूर कर रहे हैं और तीसरे मोर्चे को मिलने वाली बड़ी कामयाबी के संकेत दे रहे हैं। यह मोदी के लिए राह मुश्किल कर सकता है। इसके अलावा पहली बार लोकसभा चुनावों में हिस्सा ले रही आम आदमी पार्टी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। हालांकि बीजेपी पार्टी की सदस्यता लेने वाले नेताओं के साथ नए दलों से गठजोड़ रोजाना हो रहा है। लेकिन ध्यान में यह रहे कि उनके आने से अंदरूनी छति न हो। मसलन, रामविलास पासवान और रामकृपाल यादव के भाजपा में शामिल होने से बिहार भाजपा में जोरशोर से नाराजगी है। 
इस बार नरेंद्र मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती अपनी सांप्रदायिक छवि से बाहर निकलना है। गुजरात दंगों में उनकी भूमिका और अक्सर लगते आरोपों पर देश का मतदाता क्या सोचता है, यह उसके वोट से ही पता चलेगा। यदि इन चुनावों में मोदी अपनी सांप्रदायिक छवि पर मतदाताओं का भरोसा पा गए, तो यह आरोप भी सदा के दम तोड़ देगा। हालांकि अल्पसंख्यकों को मोदी द्वारा उनकी टोपी न पहनना आज भी याद है और वे यह देख भी रहे हैं कि क्षेत्र के हिसाब से मोदी पगड़ी, साफा और स्थानीय बोली खूब बोल रहे हैं। ऐसे में मोदी पर भारी दवाब होगा कि वह मुस्लिम वोटरों को कैसे हैंडल करते हैं।
राज्यों में भी बीजेपी के सिमटते जनाधार को फैलाना मोदी की चुनौती है। दक्षिण में अपना एकमात्र गढ़ यानी कर्नाटक बीजेपी गंवा चुकी है। उत्तराखंड और हिमाचल भी बीजेपी के हाथ से फिसल पर कांग्रेस की झोली में जा चुके हैं। यूपी जैसे बड़े राज्य में पार्टी दहाई का आंकड़ा छूने को तरसती है। आंध्र में टीडीपी से पुराने गठबंधन के बाद भी सत्ता दूर है। मप्र, छग, राजस्थान और गोवा छोड़ दें, तो इनके सिवा किसी बड़े राज्य में राहत नहीं। ओडिशा, बंगाल, महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर के राज्य जैसे- सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय पर मोदी का फोकस तो है, तो लेकिन जनाधार बढ़ेगा, इसकी गुंजाइश भी कम है। जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रीय दल हावी हैं, तो दिल्ली से लगे हरियाणा में भी कांग्रेस सरकार है। पंजाब से उम्मीद है, लेकिन अगर फायदा हुआ, तो भी श्रेय अकालियों को जाएगा। यही हाल महाराष्ट्र में है, शिवसेना से गठबंधन और मनसे के वादे के बावजूद बहुत फायदा होगा, यह नहीं कह सकते। दिल्ली में सत्ता की दहलीज तक पहुंचने के बाद भी कसक बाकी रह गई। पार्टी सरकार नहीं बना पाई। बिहार में नीतीश की जेडीयू से गठबंधन खत्म करना बड़ा नुकसान कर सकता है। पार्टी सिर्फ रामविलास पासवान की एलजेपी के भरोसे है, जो खुद पिछले चुनाव में महज एक सीट तक सिमट गई थी। मोदी की सबसे बड़ी चुनौती रैलियों की भीड़ को वोटों में तब्दील करने की है वर्ना उनकी छवि भी राहुल गांधी की रोबोट मैन की हो जाएगी।
बहरहाल, नरेन्द्र मोदी के सामने आज जिस तरह की परिस्थितियां हैं, उनका अनुमान पहले से ही लगाया जा रहा था। उनके विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उनके राजनीतिक भविष्य को लेकर आकलन भी शुरू हो गए थे। लेकिन पिछले दो सालों में कट्टरवाद और उदार विकासवाद के बीच जो अनूठा सामंजस्य नरेंद्र मोदी ने बैठाया है, उसका फायदा भाजपा को मिल सकता है। उनकी छवि और अपने आप से लड़ाई बहुत बड़ी और अहम है।  गुजरात में लगातार तीसरी बार स्वीकारे जाने के बाद अब उनकी छलांग बहुत लंबी है और रोड़े अटकाने वाले भी बहुत। पर अगर वो अपने आप से लड़ाई जीत लेंगे तो इस छलांग के लिए ख़ुद को तैयार पाएंगे।  हालांकि चुनावी रणनीति बनाने में नरेंद्र मोदी को उनका संघ प्रचारक होने का अनुभव काम आता है। एक तपे-तपाए, मंजे हुए जमीनी कार्यकर्ता के रूप में वो हर मोर्चे पर अपनी पकड़ बनाए रखते हैं। मोदी की एक ख़ासियत यह है कि अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि के बावजूद वे अपने नेतृत्व को केवल फतवों तक या हिंदूवाद से जुड़े भावनात्मक ज्वार तक ही सीमित नहीं रखते बल्कि उसे विकासवाद की नई परिभाषा से भी जोड़ते हैं। मोदी को ये ठीक-ठीक पता है कि राजनीति, महत्वाकांक्षा और जनछवि के इस घोल में कब कितनी मात्रा में कट्टरता मिलानी है, कितना और कहां विकास करना है और वो कौन से जमीनी मुद्दे हैं, जिनके मूल से ये घोल तैयार होता है। उन्होंने काम भी किया और काम का प्रचार भी किया। लोगों ने उन्हें वोट दिया और जिताया। इसका पूरा श्रेय तो उन्हें देना ही होगा।
बावजूद उन्हें असली श्रेय तब मिलेगा जब वह जनता का विश्वास जीत लेते हैं। बहरहाल,  नरेंद्र मोदी भी बखूबी जानते हैं कि दिल्ली अभी दूर है। इस दूरी को वो किस तरह पार कर पाते हैं, अपने आप और इन समस्याओं से कैसे और कितना लड़ पाते हैं, देखना दिलचस्प होगा।
लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।

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Thursday 20 March 2014

सोशल मीडिया के सहारे 2014 का आम चुनाव- दीपक कुमार

      
    वैसे तो फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल साइट्स पर मेरी मौजूदगी बहुत कम ही रहती है, लेकिन इन दिनों जब भी मैं अपने ट्विटर या फेसबुक अकांउट को साईन-इन करता हूं चुनावी प्रचार के पोस्टरों की भरमार देखने को मिलती है, साथ हीं कुछ दिलचस्प पॉलिटिकल जोक्स पॉलिटिकल वीडियो भी देखने को मिलती है। जिससे मुझे बार-बार अपने एकाउंट को ओपन करने का को साईन-इन करने का मन करता है। दरअसल, यह भीड़ चुनाव के तारीख घोषित होने के बाद से अचानक बढ़ गई है। इनके चक्कर में मेरे फ्रेंड लिस्ट में मौजूद लोगों की बात या विचार हाशिए पर चली जाती है।
मेरे कहने का मतलब यह है कि 2014 के लोकसभा में पहली बार ऐसा होगा जब चुनावी सरगर्मी में मंच और माईक से ज्यादा सोशल साइट्स के इस्तेमाल और प्रभाव हो रहे हैं या होंगें। क्योंकि जिस रफ्तार से सोशल साइट्स के जरिए चुनाव प्रचार किया जा रहा है, उससे एक बात तो तय है कि यह हाइटेक भारत के दौर का आम-चुनाव बन चुका है। क्योंकि एक सच यह भी है कि 2009 लोकसभा चुनाव तक सोशल साइट्स का इतना महत्व नहीं था। लेकिन 2009 में जितने लोगों का वोट पाकर कांग्रेस ने सरकार बनाई थी, इस बार करीब-करीब उतनी ही संख्या भारत में सोशल मीडिया का उपयोग करने वालों की हो चुकी है। इस बार लोकसभा इलेक्शन में 80 करोड़ से ज्यादा वोटर्स हैं। खास बात यह है कि पहली बार वोट का अधिकार प्राप्त करने वालों की संख्या 10 करोड़ से अधिक है। देश में 9 करोड़ से कहीं ज्यादा लोग सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं। ऐसे में यह क्यों न मान लिया जाए कि ये 9 करोड़ लोग इस इलेक्शन में बड़ा रोल निभा सकते हैं।

 एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक 2009 लोकसभा इलेक्शन में कांग्रेस के खाते में गई 75 सीटें ऐसी हैं, जिनका फ्यूचर सोशल मीडिया के असर से अछूता नहीं रह सकता। इसी प्रकार से बीजेपी के कब्जे वाली 44 सीटें सोशल मीडिया की मुट्ठी में हैं। यह भी माना जा रहा है कि इलेक्शन से ठीक 48 घंटे पहले जब चुनाव प्रचार पर रोक लग जाएगी, तब सोशल मीडिया बड़ी भूमिका निभाएगा। यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा ने सोशल मीडिया के लिए भारी-भरकम टीम जुटा रखी है। मसलन, भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी खुद ट्विटर पर एक्टिव हैं और करीब 9 भाषाओं में ट्वीट करते हैं। इतना ही नहीं, कांग्रेस ने अधिक से अधिक युवाओं को पार्टी से जोड़ने के लिए सोशल मीडिया वेबसाइट्स पर कट्टर सोच नहीं युवा जोश अभियान चलाया हुआ है। इस अभियान के जरिये पार्टी न सिर्फ अपने उपाध्यक्ष राहुल गांधी की छवि को चमकाने में लगी है, बल्कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर करारा कटाक्ष भी कर रही है। वहीं भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव 2014 के लिए देश भर में 272 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य बना रखा है। इसके मद्देनजर वह सोशल मीडिया साइट्स पर जोरदार अभियान चला रही है। भाजपा से जुड़े लोग नरेंद्र मोदी को नमो नाम से भी संबोधित करते हैं। इसलिए इस नाम से भी भाजपा का अभियान चल रहा है। इस अभियान के तहत नरेंद्र मोदी के गुजरात के विकास मॉडल को जनता को समझाया और बताया जा रहा है। वहीं आपके केजरीवाल भी अपनी नाकामीयों को छुपाने और प्रभुत्व बढ़ाने में लगे हैं।
हालांकि 2014 के चुनाव को लेकर सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग और इसके प्रभाव पर चुनाव आयोग भी अपनी नजर रखने का फैसला लिया है। आयोग के मुताबिक सोशल मीडिया पर होने वाला खर्च भी संबंधित राजनीतिक दलों के खर्च में जोड़ा जाएगा। जिसके लिए 2004 में आए अदालत के फैसलों को एक विस्तृत गाइड लाइन का आधार बनाया है, जिसमें यह सुनिश्चित करना भी शामिल है कि सोशल वेबसाइट के जरिये होने वाले खर्च को संबंधित राजनीतिक पार्टी के खर्च में शामिल किया जाए। इसके लिए चुनाव आयोग ने इन वेबसाइट्स पर निगरानी भी बढ़ा दी है। इसके लिए कुछ टीमें भी बनाई गई हैं, जो राजनीतिक दलों और इनके नेताओं की गतिविधियों पर नजर रखेंगी। यह फैसला एक खुलासे के बाद लिया गया है जिसमें यह दावा किया गया था कि गूगल हैंगआउट के जरिये हर पार्टी के नेता अपनी बात मतदाताओं तक पहुंचाने के साथ-साथ पार्टी के लिए फंड जुटाने में भी लगे हैं। सियासी दलों के कई नेता माइक्रो ब्लॉगिंग वेबसाइट ट्विटर पर भी मौजूद हैं और इसके जरिये भी वह अपनी बातें समय-समय पर लोगों तक पहुंचाते रहते हैं। यूट्यूब के माध्यम से भी राजनेता अधिक से अधिक मतदाताओं के करीब पहुंचने की कवायद में लगे रहते हैं।
दूसरी बात यह भी है कि सोशल साइट्स पर प्रचार प्रसार के बाद युवाओं के बीच चुनावों में सहभागिता या भागीदारी का क्रेज भी बढ़ा है। मतलब यह कि अगर यंगस्तिान बर्गर-पिज्जे और हंसी-मजाक से उपर उठकर चुनावों में दिलचस्पी दिखा रहा है तो उसका सीधा असर वोटिंग प्रतिशत पर भी पडेगा, जिसका उदाहरण हाल ही में पांच राज्यों में सम्पन्न हुए आम चुनाव हैं। यानि पहली बार युवा सोशल साइट्स के जरिए देश के मुद्दों को जानने या समझने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं, वर्ना कुछ दिन पहले तक की स्थिति यह थी कि युवा या तो रोमांस में बिजी रहते थे, या फिर क्लब में।
तो क्यों न यह मान लिया जाए कि यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है, क्योंकि एक सच यह भी है कि जब तक चुनावों में भागीदारी युवाओं की नहीं होगी तब तब देश की जनता को सही सेवक नहीं मिल सकता है। यही वजह है कि पिछले कुछ सालों से फेसबुक और सोशल साइट्स के जरिए नरेंद्र मोदी का कद बढ़ा भी है या बढ़ाया भी गया है। वर्ना आज तक न तो भाजपा नरेंद्र मोदी के क्रेज को लेकर जनमत संग्रह करवाई है और न ही कराना उचित समझा भी। क्योंकि उन्हें पता था कि जिस रफ्तार से नरेंद्र मोदी सोशल साइट्स पर अपनी दखल बढ़ा रहे हैं उसका सीधा असर 2014 के लोकसभा चुनाव में होना ही है, और हुआ भी ऐसा ही।   
वहीं दूसरी तरफ जब भाजपा के नरेंद्र मोदी का क्रेज बढ़ रहा था लगभग उसी दौरान कांग्रेस-सोनिया मनमोहन सरकार का क्रेज घटा भी। खासकर सोनिया के त्रिमुर्ति- कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद की खूब छिछालेदर हो चुकी है। दरअसल, कांग्रेस यह मान चुकी थी कि आने वाले समय में सोशल साइट्स न तो कोई भूमिका निभाएगी और न ही हम इसको अपना हथियार बनाएंगे। लेकिन इसके इतर हुआ उल्टा, 2014 का चुनावी साल नजदीक आते- आते सोशल साइट्स ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है तभी तो कांग्रेस को भी सोशल साइट्स सुहाने लगें। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी जल्दी-जल्दी में अपनी सोशल साइट्स टीम तैयार करने लगें, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
इसका मतलब यह नहीं कि सोशल साइट्स के जरिए ही नरेंद्र मोदी का क्रेज बना या जमा है, लेकिन इसका अधिकांश सच यही है। दरअसल, जिस दौर में सोशल साइट्स भारत में एक्टिव हो रहे थें उस दौर में यानि 2010 के बाद कांग्रेस की यूपीए-2 करप्शन से सराबोर थी लेकिन उसी दौरान ही नरेंद्र मोदी ने अपने विकास और गुजरात मॉडल के जरिए अपनी एक खास पहचान बनानी शुरू कर दी। उस वक्त सोशल साइट्स पर न तो कोई उनकी टक्कर देने के के लिए आसपास था और नही किसी को कोई दिलचस्पी थी। ऐसे में अगर कोई कहे कि नरेंद्र मोदी सोशल साइट्स के प्रधानमंत्री हैं तो उस बात को मजाक में लेने की गलती नहीं की जा सकती है।
इनमें अब अन्य राजनीतिक दलों और राजनेताओं ने भी दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी है। यानि की सोशल मीडिया राजनीतिक प्रचारों में अहम भूमिका अदा करने लगी हैं। ये भूमिका पहले से अधिक व्यापक होती जा रही है। मसलन, सोशल साइट्स पर चल रहे आधिकारिक विज्ञापन राजनीतिक पार्टियों की सकारात्मकता और उपलब्धियों पर तो केंद्रित होते ही हैं, साथ में उनमें जबरदस्त पॉलिटिकल व्यंग्य भी देखने को मिलता है। ये विज्ञापन डिजिटल मीडिया पर खूब लोकप्रियता बटोरते हैं और तेजी से विस्तार पाते हैं।
मसलन, इन दिनों कांग्रेस के हर हाथ शक्ति हर हाथ तरक्कीके नारे को हर हाथ लॉलीपॉप हर हाथ रेवड़ी जैसे बच्चों के व्यंगात्मक वीडियो पैरोडी को जारी किया गया है, वहीं अरविंद केजरीवाल पॉलिटिक्स की दुनिया में हिट होने के साथ- साथ वीडियो पैरोडी की दुनिया में भी हिट हो गए हैं। उनपर कई पैरोडी अबतक बन चुके हैं जो बेहद लोकप्रिय हुए। मसलन, यो.यो केजरीवाल..’ ’ खॉसी-खुजली वाल। अब इसी कड़ी में एक और नयी पैरोडी आयी है जो यूट्यूब पर आजकल खूब हिट्स बटोर रहा है। इस पैरोडी में दूरदर्शन स्टाइल में ख़बरें पढते हुए अरविंद केजरीवाल की खबर ली गयी है। एंकर मरिया सुल्तान का दुःखदर्शन टीवी पर खबर पढ़ने का अंदाज, जिसमें अरविंद केजरीवाल की खूब खिल्ली उडाई गयी है।
यानि एक बात तो साफ है कि 2014 का चुनाव मनोरंजन के साथ-साथ रोमांचक भी होता जा रहा है। अगर अब तक आप सोशल साइट्स पर एक्टिव नहीं हैं तो अब हो जाईए। यकीन मानिए, यह चुनाव आपको फुल एंटरनेटन करेगा।
       लेखक हिन्दुस्थान समाचार में कार्यरत हैं।
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Wednesday 12 March 2014

आरक्षण के भंवर में जाट!

जाट शब्द जुबान पर आते ही एक आम जन के दिमाग में ऐसी जाति की छवि बनती है, जिसमें एक अजीबोगरीब अल्हड़पन, शारीरिक बलवंता, मंदबुद्धि, तीखे तेवर और तल्ख आवाज की मौजूदगी हो । दरअसल, ऐतिहासिक रूप से जाटों ने अन्य लोगों के मन में अपनी जीवनशैली के कारण एक ख़ास तरह की पहचान भी बनाई है और खास विचारों को बढ़ावा भी दिया है। उदाहरण के लिए 18वीं शताब्दी के पंजाबी कवि वारिस शाह ने जाटों की व्याख्या नासमझ और गंवार लोगों के तौर पर की थी। लेकिन इस जाति की खास बात यह है कि उनके बीच उच्च स्तर की गुटबंदी होती है जो उनके परिवारों के बीच आपसी संवाद में भी दिखाई पड़ती है और जो राज्य की राजनीति तक जाती है। ये गुट सत्ता के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करते हैं और निरंतर एक दूसरे से उलझते भी रहते हैं। लेकिन किसी बाहरी तत्व के लिए वह एकजुट भी हो जाते हैं।     
      दरअसल, जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति के रूप में जाने जाते है। लेकिन अतीत को टटोलें तो औरंगजेब के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया । मुग़लिया सल्तनत के अंत से अंग्रेज़ों के शासन तक ब्रज मंड़ल में जाटों का प्रभुत्व रहा। इन्होंने ब्रज के राजनीतिक और सामाजिक जीवन को बहुत प्रभावित किया। यह समय ब्रज के इतिहास में 'जाट काल' के नाम से जाना जाता है । मुग़ल सल्तनत के आखरी समय में जो शक्तियाँ उभरी, जिन्होंने ब्रजमंडल के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन जाट सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर भी हैं ।
वर्तमान दौर में देश में जाटों की गिनती आम तौर पर बड़ी या मध्यम जोत वाले संपन्न किसानों के रूप में होती है। दिल्ली-एनसीआर और राजस्थान के भरतपुर-धौलपुर जिलों समेत कई इलाकों में जी-तोड़ मेहनत के बलबूते उन्होंने समाज में अपनी बेहतर जगह बनाई है। कई इलाकों में जाट सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से काफी सक्षम हैं, लेकिन सरकारी नौकरियों में उनकी नुमाइंदगी अब भी उनकी हैसियत वाले समुदाय के अनुरूप नहीं है। उच्च शिक्षा के मामले में भी उनकी स्थिति कमोबेश पिछड़े या अति पिछड़े जैसी ही है। यही वजह है कि राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश समेत दूसरे राज्यों में जाट आरक्षण की मांग के लिए लंबे समय से आंदोलन भी होते रहे हैं। कई बार जाट आरक्षण को लेकर हिंसक आंदोलन भी हुए, लेकिन यह मामला टलता रहा । जाट आरक्षण की मांग को लेकर सरकार पर जब ज्यादा दवाब बढ़ा, तो उसने इस मांग पर विचार करने के लिए वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की अगुआई में गृह मंत्री, सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री और कार्मिक, प्रशिक्षण व पीएमओ में राज्यमंत्री को शामिल कर मंत्रियों का एक समूह (जीओएम) गठित किया, जिसने पिछले दिनों जाट आरक्षण पर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। जीओएम ने अपनी रिपोर्ट में इस बाबत सरकार को दो विकल्प सुझाए थे। उन्हीं के आधार पर सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय ने जाट आरक्षण का रोडमैप केंद्रीय कैबिनेट को विचारार्थ भेजा । जिस पर कैबिनेट ने जाट कोटे के प्रस्ताव अपनी मंजूरी दे भी दी। कैबिनेट के इस फैसले के बाद जाट समुदाय को केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सूची में शामिल कर लिया जाएगा और उन्हें भी वे फायदे मिलने लगेंगे, जो देश में पिछड़े वर्ग को मिलते हैं । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में आयोजित कैबिनेट के इस फैसले के बाद केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्ग के तहत जाटों को आरक्षण मिलने का रास्ता साफ हो गया है। इसका सीधा फायदा लगभग उत्तर और मध्य भारत के नौ करोड़ जाटों को मिलेगा।

लेकिन सवाल यह है कि क्या आज के दौर में जाटों के लिए आरक्षण का यह लॉलीपॉप सार्थक है? क्योंकि जाटों का एक सच यह भी है कि वे अपने मेहनत और तरक्की के नएनए आयाम तलाशते हैं। आज जाट समुदाय के युवा हर मोर्चे पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। विदेशों में रहने वाले अधिकांश पंजाबी लोगों में जाटों की एक बड़ी संख्या है। खेल से लेकर राजनीति तक या फिल्म से लेकर व्यापार तक जाट छाए हुए हैं। पंजाबी पत्रिका 'लकीर' के एक सर्वेक्षण के अनुसार लेखकों का एक बड़ा हिस्सा जाट जाति से है। साहित्य में ढेर सारी छोटी कहानियां और उपन्यास जाट किसानों से संबंधित है। इन मापदंडों के आधार पर जाटों को पिछड़ा नहीं कहा जा सकता है। 
 अगर इन बातों को नजरअंदाज करते हुए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(एनसीबीसी) द्वारा केंद्र सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट की भी मानें तो, जाट ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल होने की कसौटी और मापदंडों पर खरे नहीं उतरते । एनसीबीसी का कहना है कि जाट न तो सामाजिक और न ही आर्थिक या अन्य किसी लिहाज से पिछड़े हैं, हालांकि कुछ राज्यों ने अपने यहां जाटों को आरक्षण दिया है, लेकिन केंद्र सरकार के स्तर पर उन्हें यह सुविधा देना गलत होगा । अपने फैसले पर पहुंचने से पहले आयोग ने 450 प्रस्तुतियों का जायजा लिया। इसके अलावा खुली जन सुनवाई रखी गई और देश भर में जाटों की स्थिति को लेकर विभिन्न अध्ययनों के बाद ही उन्हें आरक्षण देने के खिलाफ 4-0 से फैसला दिया। बावजूद इसके सरकार ने यदि जाट आरक्षण पर मुहर लगा दी है, तो इसके पीछे जाटों के पिछड़ेपन को दूर करने से ज्याद चिंता आगामी लोकसभा चुनाव में जाट वोटरों को लुभाने की चिंता है। जिन राज्यों में जाट समुदाय की बहुतायत है, वहां उनके वोट तकरीबन 100 लोकसभा सीटों पर फैसले को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। यही वजह है कि सरकार, जाट आरक्षण पर एनसीबीसी की सिफारिशों को दरकिनार कर आगे बढ़ी । इतना ही नहीं सरकार ने अदालत के उन सभी फैसलों को भुला कर यह फैसला लिया है, जिनमें पिछड़ेपन के आंकड़े जुटाए बिना आरक्षण देने की मनाही की गई है। शायद ही अदालत में सरकार का यह फैसला टिक पाए।
क्योंकि यह बात सच है कि संविधान ने, सरकार को सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ों के लिए विशेष उपबंध बनाने का हक दिया है । लेकिन इसकी पहली शर्त यह है कि लाभ पाने वाला समुदाय सामाजिक और आर्थिक रूप से आंकडों के साथ पिछड़ा हो,अन्यथा अदालत के सामने संविधान में दिए समानता के अधिकार को झुठलाना मुश्किल होगा। यह बात भी देखना जरूरी है कि सरकारी नौकरियों में उनका कितना प्रतिनिधित्व है? सिर्फ जाति और धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। जाहिर है इन सब मापदंडों से इतर आरक्षण की जो भी कोशिश होगी, उसे अदालत में चुनौती मिलना तय है।
कहीं सरकार के इस फैसले का हश्र भी अल्पसंख्यक आरक्षण जैसा न हो। अगर याद हो तो यूपीए सरकार ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में अल्पसंख्यक आरक्षण की घोषणा की थी, लेकिन वह फैसला आज तक अमल में नहीं आ पाया है। अल्पसंख्यक आरक्षण का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट की संविधानपीठ के समक्ष विचाराधीन है । उधर हैदराबाद के न्यायालय ने भी धर्म,जाति आधारित आरक्षण पर अपना कड़ा रूख अख्तियार कर चुका है।
अब जाटों के बारे में भी एक सच जानना जरूरी है कि वह अहं, तानाशाही, संकीर्णता से साराबोर होते हैं । जाटों ने पंजाब राज्य या दिल्ली जैसे मेट्रो सिटी पर अपना कब्जा कर लिया है । पंजाब में अधिकांश कृषि भूमि पर जाटों का नियंत्रण है और वे राज्य में हर जगह मौजूद हैं। वर्तमान समय में पंजाब की कुल आबादी में जाट 35 से 40 फ़ीसदी है और वे सबसे बड़े जाति आधारित समूह हैं। अगर दिल्ली के संदर्भ में बात करें तो वह दिल्ली के स्वयंभू मालिक बन बैठे हैं। जिस वजह से बाहर से आ रहे लोगों को दिल्ली में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इस बात से सभी वाकिफ हैं कि दिल्ली की नींव रिफ्यूजी समाज पर टिकी है। ऐसे में सवाल उठता है कि इन्हें दिल्ली का मालिक बनने की अनुमति कौन देता है? और फिर जब इनमें मालिक बनने की हैसियत है तो फिर यह पिछड़े कहां हैं? पिछड़े या अति पिछड़े तो वो होते हैं जिन्हें मालिक नहीं बल्कि नौकर बनकर रहना पड़ता है। ऐसे में जाटों में शोषित होने या शोषित रहने जैसी कोई बात दिखती नहीं है। हां, इतना जरूर है कि इनमें बाहरी लोगों को शोषित करने की स्फुर्ति और हुनर जरूर दिखती है।
एक बात कि कुछ परिवारों की ग़रीबी किसी जाति को पिछड़ा नहीं बनाती। पिछड़ापन साबित करने के लिए कुछ निश्चित महत्वपूर्ण मानक होने चाहिए। अब इसका मतलब यह नहीं की अन्य किसी पिछड़ेपन की वजह से भी आरक्षण की मांग हो । उदाहरण के तौर पर हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खाप पंचायतों की निरंतर मौजूदगी पिछड़ेपन का महत्वपूर्ण सूचक है, तो इसमें आरक्षण की जरूरत है भी नहीं। यह तो बौद्धिक पिछड़ेपन, संकीर्ण मानसिकता, तानाशाही प्रवृत्ति का सूचक है दूसरी बात कि अब तक हमारे संविधान में इन सब चीजों को लेकर कोई आरक्षण का प्रावधान नहीं है। तो ऐसे में यह क्यों न मान लिया जाए कि मनमोहन सरकार द्वारा जाटों के आरक्षण की जो चाल चली गई है, उसकी बिसात में जाट फंस गए हैं।
 अगर इस जाति में आरक्षण देनी ही है तो जाट समुदाय के महिलाओं को दी जाए। क्योंकि इस जाति में महिलाओं का सच यह है कि शिक्षा, समाजिक सरोकार से दूर हैं। आज भी उनकी स्थिति दासी जैसी है, यानि यहां महिलाओं को जुते की नोंक पर रखा जाता है। तभी तो गोत्र विवाह,कन्या भू्ण हत्या, बलात्कार के नंगे तमाशे जाट बहुल इलाकों में ज्यादा पाए जाते हैं। यहां की महिलाएं शारीरिक रूप से कमजोर होने के बावजूद भी बाहरी काम काज को संभालती है। वहीं इस समुदाय के मर्दो का काम सिर्फ हुक्का गुड़गुड़ाना और ताश के पत्तों पर जवानी को दर्ज कराना होता है। बेशर्मी और अपराध की संकीर्णता भी इस समुदाय में प्रबल है। इसका मतलब यह नहीं कि इस जाति में सभी एक जैसे हैं, लेकिन अधिकांश सच यही है। इनकी समस्या यह है कि इनमें अपराध बोध और क्षमा बोध जैसी भावना नहीं है, खुद को आजाद पंछी समझते हैं।
बहरहाल, इस समुदाय की जरूरत यह है कि यह अपनी सोच और उम्मीद को जिंदा रखें और अपने दम और दंभ को थकने न दें,साथ ही इंसानियत को भी सींचे , तब शायद ही उन्हें किसी आरक्षण की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि इस समुदाय का दूसरा नाम पराक्रम और मेहनत है।