Saturday 22 February 2014

मेरे देश की संसद मौन है! — दीपक कुमार

एक आदमी,रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है।
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं-
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है ।
धूमिल ने जब यह कविता लिखी होगी तब शायद उन्हें 15 वीं लोकसभा के अंतिम सत्र में एक सांसद द्वारा सदन में छिड़के गए पेपर स्प्रे का ना तो मतलब पता होगा और न ही इसके उपयोग का तरीका । क्योंकि उस दौर में न तो वैश्वीकरण का मायाजाल था और न ही आधुनिकता की परिकाष्टा थी। दरअसल, वह दौर समाजवादी सोच का भारत था, जहां रह रहकर अत्यंत आध्यात्मिक तौर पर समझाया जाता था कि प्रजा ही राजा है, वही असली मालिक है और संसद में बैठे नुमांइदे उनके नौकर हैं । जनता जैसे आदेश देगी वैसा ही होगा और उस दौर में नेताओं ने भी इस सच को स्वीकारा था। तभी तो एक बार जनरल डिब्बे में यात्रा कर रहे देश के सम्मानित व्यक्ति और समाजवादी सोच के संसद सदस्य डा. राममनोहर लोहिया ने रतलाम स्टेशन पर पीने वाले पानी के लिए ट्रेन की चैनपुलिंग कर दी थी। तब भी कार्यकर्ता थें, लेकिन आज की तरह नहीं । लोहिया ने उन कार्यकर्ताओं से कहा कि नेहरू को फोन लगाया जाए,उनसे यह कहा जाए कि जनरल बोगी में सफर करने वाले एक आम आदमी को अपने दिए हुए टैक्स के पैसे से पानी पीना है । तब तत्कालिन प्रधानमंत्री नेहरू ने बाकायदा माफी भी मांगी थी और तब के रेलमंत्री जॉन मथाई को देश के तमाम ट्रेनों और रेलवे स्टेशनों पर पानी की पर्याप्त व्यवस्था करने का तुरंत आदेश दिया था।
उस दौर में चुनावी प्रक्रिया के अर्थ भी अलग होते थे। उस दौर में भी विपक्ष होता था लेकिन आज की तरह नहीं । उस दौर का विपक्ष उंगलियों पर गिन लिया जाता था, बावजूद इसके सत्ता पक्ष का सम्मानित होता था। इतना ही नहीं वह संक्षिप्त विपक्ष समय समय पर सत्ता के जनविरोधी कदमों का विरोध भी करता था, लेकिन आज की तरह नहीं । तभी तो नेहरू ने जब विपक्ष में बैठे उस दौर के कांग्रेसी नेता राममनोहर लोहिया से अनुरोध किया कि आप भी सत्ता पक्ष के साथ आ जाईए, तब लोहिया ने कहा कि हम जब आपके साथ आ जाएंगे तब इस देश का भला कौन करेगा । मतलब यह कि सिर्फ सत्ता पक्ष ही रहेगा तब वह तानाशाह बन जाएगा। चलिए हम आपके उंट होंगे और आप हमारे हाथी। उस वक्त बात को नेहरू जी ने मजाकिया अंदाज में जरूर लिया लेकिन बाद में उन्ही ने लोहिया के इस कदम को एतिहासिक बताया था। यानि की सत्ता और विपक्ष में एक बेहद सहयोग से भरा माहौल होता था। बावजूद इसके धूमिल ने अपनी कविता में लोकतंत्र की जो रेखाचित्र खींच डाली उसमें सत्ता और जनता के बीच साफ तौर पर एक दूरी दिखाई दे रही थी। यह धूमिल की खासियत ही थी जो उन्हें लोकतंत्र के उस शुरुआती दौर में भी रोटी बनाने और उससे खेलने वाले में जमीन आसमान का अंतर दिखाई देता था, यह उनकी दृष्टि थी, जो छल को परत दर परत देख पाती थी।

लेकिन ऐसा नहीं है कि संसदीय मर्यादाओं और सहयोग की भावनाएं उसी दौर में होती थी। कभीकभी लगता है कि वह दौर आज भी जिंदा है, तभी तो 15 वीं लोकसभा का अंत जिस भावनाओं और प्यार के साथ हुआ उसने पिछले लोकसभा के सारे गिलेशिकवे को एक ही झटके में खत्म कर दिया । संसद में मौजूद लगभग हर राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि ने एक दूसरे को जिस अंदाज में अगले लोकसभा सत्र में मौजूद रहने की शुभकामनाएं दी उससे एक समय के लिए लगा की जी नहीं.. अभी संसद जिंदा है, यहां मौजूद जनप्रतिनिधि के दिल में प्यार जज्बात जैसे शब्द जिंदा हैं । सबने किसी न किसी रूप में अपनी भावनाएं जाहिर की लेकिन इन सब के केंद्र में संसद के बुजूर्ग सदस्य लालकृष्ण आडवानी रहें  तो बाद में आडवानी ने भी अपनी आसुंओं और शुक्रिया को संसद के पटल पर रख दिया । एक बार के लिए ऐसा लगा की हमारे संसद सदस्यों में कमाल की भावनाएं हैं। कोई चुटकी भी लेता है तो उसमें भी उसकी संवेदनाएं झलकती हैं और झलके भी क्यों न? क्योंकि 15 वीं लोकसभा का आखिरी सत्र जो था, या यूं कहें आखिरी दिन भी था। न जाने कौन आए 16 वीं लोकसभा में, इसलिए बहने दो आंसुओं को, कहने दो जमाने को..सहने दो सितम को.. जैसे जुमले याद आने लगें।
अब अगर बात की जाए अतीत यानि 15 वीं लोकसभा की, तो 15 वीं लोकसभा का आख़िरी सत्र बेहद हंगामेदार साबित हुआ। इस लोकसभा के आख़िरी सत्र में मिर्च के स्प्रे, सदस्यों के निलंबन और लगातार शोर-गुल ने संसदीय कर्म में गिरावट का जो परिचय दिया, उसे देर तक याद रखा जाएगा। वहीं अंतरिम रेल बजट पेश करते वक्त रेल मंत्री का भाषण सदन के पटल पर रखकर काम चलाया गया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, जब केंद्रीय मंत्री अपनी सरकार का विरोध व्यक्त करते हुए 'वेल' में उतरे हों। आम बजट और रेल बजट बगैर चर्चा के पास हो गए। इस सत्र में लोकसभा के सीधे प्रसारण को रोककर तेलंगाना विधेयक को पारित किए जाने को आपातकाल से जोड़कर देखा गया । इस फ़ैसले को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी अपने विदाई भाषण में काफी मुश्किल भरा बताया। बतौर प्रधानमंत्री वे सदन में आख़िरी बार नज़र आए थे, इसलिए उन्होंने संसद के सभी सदस्यों का शुक्रिया भी अदा किया।
लेकिन अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के शासनकाल में आर्थिक उदारीकरण से जुड़े अनेक विधेयकों को पास नहीं किया जा सका। जीएसटी और डायरेक्ट कोड जैसे काम अधूरे रह गए । बांग्लादेश के साथ सीमा को लेकर समझौता नहीं हो पाया। लोकसभा में पड़े सत्तर के आसपास बिल लैप्स हो गए । इतनी बड़ी संख्या में बिल पहले कभी लैप्स नहीं हुए । सन 2010 के लोकसभा का छठा सत्र लगभग पूरी तरह 2जी 'घोटाले' को लेकर संयुक्त संसदीय समिति बनाने की माँग के कारण ठप रहा । हद तो तब हुई जब फरवरी 2012 में तत्कालीन रेल मंत्री व तृणमूल कांग्रेस के सांसद दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट पेश किया, जिसमें किराया-भाड़ा बढ़ाने का प्रस्ताव था। तृणमूल कांग्रेस की प्रधान ममता बनर्जी ने न सिर्फ उस घोषणा की निंदा की, बल्कि रेल मंत्री को पद से हटाने का फैसला भी सुना दिया। ऐसा पहली बार हुआ जब रेल बजट एक मंत्री ने पेश किया और उसे पास करते वक्त दूसरे मंत्री थे। संसदीय राजनीति के लिए ऐसी घटनाएं अटपटी थीं ।
हालांकि दूसरी ओर इस लोकसभा के कार्यकाल के दौरान सरकार ने कई अहम विधेयकों को पारित भी किया। जिसमें 'लोकपाल बिल' का जिक्र होना जरूरी है। अगर थोड़ा पिछे चले जाएं तो 2009 में जब 15वीं लोकसभा आई तो सरकार ने आते ही शिक्षा का अधिकार क़ानून पास करा दिया था। फिर महिलाओं के आरक्षण बिल को 2010 में राज्यसभा में पास करा लिया गया। लेकिन उसी दौरान 2 जी स्कैम,कॉमनवेल्थ गेम्स में हुई घोटालेबाजी ने 2010 के शीतकालीन सत्र से संसद के कामकाज में ठहराव लानी शुरू कर दिया। बावजूद इसके 2013 में खाद्य सुरक्षा विधेयक, भूमि अधिग्रहण बिल, और दिसंबर आते-आते लोकपाल विधेयक भी पास हो गया।
यह बात अलग है कि इन विधेयकों को पास कराने के दौरान उन पर कभी राजनीतिक सहमति नहीं बन पाई । मसलन, जब महिला आरक्षण बिल पास हो रहा था तो समाजवादी पार्टी के 7-8 सांसदों को सस्पेंड करना पड़ा, तब जाकर बिल पास हो पाया था। उसी तरह तेलंगाना बिल पास कराने के लिए लोकसभा और राज्यसभा से सांसदों को सस्पेंड करना पड़ा। सदन में चर्चा कम और हंगामा ज़्यादा हुआ, कभी कोई दल संसद को वॉक आउट करता तो कभी कोई । यानि की संसद अब मौन नहीं था, और न ही मौन होना चाहता था, उसे तो बस अपनी जिद मनवानी थी।
लेकिन संसद की गरिमा को बचाने के लिए यह जरूरी है कि आपस में राजनीतिक समझ बनाई जाए। एक बात यह भी है कि संसद सदस्यों की गरिमा कम हुई है , इसके लिए संसद सदस्य ही जिम्मेवार हैं । अब लोगों के अंदर संसद के प्रति यह इमेज बन चुकी है कि यहां सिर्फ तू-तू, मैं-मैं ही होती है । उपराष्ट्रपति जी ने दुखी होकर एक सत्र में कहा भी था कि हम लोगों के बीच क्या इमेज दे रहे हैं। हालांकि कई लोग मानते हैं कि संसद के कार्यवाही को जब मीडिया ने फोकस करना शुरू किया तभी से हंगामें बढ़े हैं शायद यह भी कारण हो सकता है लेकिन एक सच यह भी है कि आज कोई सदस्य कोई विषय उठाना चाहते हैं और उन्हें मौका नहीं मिलता तो वे सदन की कार्यवाही में रूकावट डाल कर अपनी बात कहना चाहते हैं। दूसरी बात यह भी है कि राजनीतिक कारणों से सदन में रुकावट डालना स्क्रिप्टेड होने लगा है । यानि संसद में हंगामें तय हैं, तो मौन का कोई सवाल ही नहीं है, और जब हंगामें होंगे तो जनता से जुड़े सवालों का क्या होगा? यह भी सोच कर डरावना लगता है।
ऐसे में धूमिल की यह कविता कहीं न कहीं सार्थक भी है। क्योंकि इसी लोकसभा में भ्रष्टाचार के मुददे पर जिस तरीके से अन्नारामदेव के आंदोलन के जरिए जनता सड़क पर उतरी उससे देश के भविष्य और लोकतंत्र को कठघरे में खड़ा कर दिया है। यानि जन का जो तंत्र है वह अब जन का नहीं रह गया है। ऐसे में यहां अब जनजनार्दन केवल रोटी बेलता है, खाते तो देश के हंगामेंदार संसद के जनप्रतिनिधि ही हैं। बहरहाल, लोकसभा के अगले सत्र में कुछ नए चेहरे भी होंगें और कुछ पूराने भी, सब्र कीजिए वो क्या करते हैं।
 लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।
9555403291




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