Wednesday 19 February 2014

इस 'आप' को क्या नाम दूं... दीपक कुमार

14 फरवरी को जिस वक्त देश के युवा वैलेंटाइन डे मना रहे थे लगभग उसी दौरान दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे ने अचानक ही देश की राजनीति में एक नया ड्रामा खड़ा कर दिया। केजरीवाल की सरकार ने कुछ खास फैसले, कुछ विवाद, कुछ नाटक-नौटंकी के बाद इस्तीफा तो दे दिया है लेकिन इस फैसले के बाद कई अहम सवाल खड़े हो गएं, जिन सवालों का जवाब देश की जनता को देना और समझाना जरूरी है, जो शायद अरविंद केजरीवाल नहीं कर सकते हैं । क्योंकि अब वक्त आ गया है यह जानने का कि क्या वाकई अरविंद केजरीवाल आम आदमी के शुभचिंतक हैं? क्या अरविंद भ्रष्टाचार मिटाकर आम आदमी की तकलीफ दूर करने की नीयत से राजनीति में आए थे? और अगर वाकई केजरीवाल का मकसद आम आदमी की तकलीफों को दूर करना था तो फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी को जन लोकपाल बिल की आड़ में क्यों छोड़ दिया?
दिल्ली के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में सात सप्ताह (49 दिन) की सरकार के मुखिया अरविंद केजरीवाल का जो रूप देश के सामने आया है उससे तो अरविंद केजरीवाल का मतलब आम आदमी से धोखा ही साबित हुआ। जिस आम आदमी की सहूलियत के लिए आम आदमी का मसीहा बनकर केजरीवाल दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुए थे, जनता को मुसीबत का लबादा ओढ़ाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी से अलग होने का फैसला कर लिया। अगर कुछ दिन पहले कि बात को ही याद करें तो केजरीवाल ने दिसंबर महीने में जनमत संग्रह से  दिल्ली की कमान संभाली थी, लेकिन यहीं से एक सवाल उठता है कि कुर्सी छोड़ने के लिए उन्होंने जनमत संग्रह क्यों नहीं किया? एक बात तो सच है कि अरविंद केजरीवाल के इस्तीफा देने के बाद कहीं न कहीं वो आम आदमी ठगा सा महसूस कर रहा है जिसने आम आदमी पार्टी से आस लगा रखी थी कि अब उसे उसके हिस्से की बिजली मिलेगी, पीने का पानी मिलेगा और रिश्वतखोरी का सामना नहीं करना पड़ेगा।

दरअसल, अरविंद ने जिस जनलोकपाल बिल के पास न होने के दर्द को मुददा बनाकर इस्तीफा दिया है उस दर्द का सच कुछ और ही है । अरविंद कभी ये चाहते ही नहीं थे कि स्वराज बिल और जनलोकपाल बिल पास हो जाए । क्योंकि अगर ऐसा होता तो वे मुद्दाविहीन हो जाते। इसलिए जनलोकपाल और स्वराज के मुद्दे को जीवित रखना इनकी मजबूरी है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी की भावनाओं को जिस तरह से आप ने अपने वायदों से कैश किया उसे सत्ता में आने के बाद पूरा करना केजरीवाल के लिए आसमान से तारे तोड़कर लाने जैसा हो गया था। ऐसे में उनके सामने दो ही विकल्प थे- सड़क पर उतरने के लिए विधानसभा में सियासी शहादत दें या फिर सरकार में बने रहकर जनता से किए गए अपने वादे को पूरा न करने का जोखिम लें। स्वभाविक था, केजरीवाल ने पहला विकल्प चुना। वह दोबारा जनता में जाने के लिए किसी ऐसे मुद्दे की तलाश में थे, जिससे यह माना जाए कि वह 'शहीद' हो गए हैं और अरविंद केजरीवाल की दृष्टि में जन लोकपाल से बड़ा कोई और मुद्दा नहीं था। इसीलिए वह इसी मुद्दे को आगे लेकर आ गए, ताकि दोबारा जनता के बीच जाकर यह कह सकें कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ने मिलकर उनकी सरकार नहीं चलने दी, लोगों में संदेश यह भी जाएगा कि केजरीवाल ने भ्रष्टाचार की लड़ाई के लिए सरकार की कुर्बानी दे दी। क्योंकि, कांग्रेस- बीजेपी उनकी इस लड़ाई को सफल नहीं होने दे रही थी। दूसरी बात की कांग्रेस को केजरीवाल भरपूर नुकसान पहुंचा चुके हैं लेकिन सरकार से बाहर आकर आम आदमी पार्टी अब बीजेपी को निशाने पर ले सकेगी। एक बात यह भी था कि पिछले कुछ दिनों से केजरीवाल और उनकी टीम दिल्ली के स्थानीय मुद्दों में ही उलझकर रह गई थी लेकिन अब वह राष्ट्रीय स्तर पर मुद्दों को लेकर विपक्षी पार्टियों पर हमला कर सकेगी।
 अब जरा एक नजर अरविंद केजरीवाल के 49 दिन के कार्यकाल पर डालें तो केजरीवाल का यह संक्षिप्त कार्यकाल विवादों से भरा रहा । शायद उन्होंने विवादों का चोला इसलिए पहना ताकि आम आदमी का ध्यान बंटा रहे और सरकार पर यह आरोप न लगे के आम आदमी की जिन बुनियादी मुश्किलों को दूर करने के लिए जनादेश मिला था, उससे भटक गए हैं । सच तो यह है कि केजरीवाल सरकार नहीं चला पा रहे थे, हर दिन वे या उनके प्यादे नई गलतियां कर रहे थे। पानीबिजली के बिल घर पहुंचने लगे थे, जिन्हें छूट का लाभ मिला वो भी निराश थे क्योंकि जितना जोरशोर मचाया गया उस हिसाब से राहत नहीं मिल रही थी और जिन्हें छूट नहीं मिली उनके बिल पहले से ज्यादा आ रहे हैं , दिल्ली में बिजली की कटौती खूब हो रही थी, बलात्कार की घटनाएं रूक नहीं रही थीं, क्राइम भी शीला सरकार की याद दिलाती थी, हर दिन नौकरियों को स्थायी करने की डिमांड तेज हो रही थी, लोग धरना प्रदर्शन कर रहे थे, मजदूर संतुष्ट नहीं थे, लोगों का समर्थन कम होता जा रहा था, जनता दरबार फ्लॉप रहा, सोमनाथ भारती प्रकरण पर सरकार बैकफुट पर रही, उल्टे सोमनाथ के समर्थन और दिल्ली पुलिस के खिलाफ दिल्ली सरकार का पूरा कैबिनेट रेल भवन के सामने धरने पर बैठ गया, कई विधायक असंतुष्ट थे, दो विधायकों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। बहुमत की आकड़ेबाजी में केजरीवाल फिसल रहे थे, जो सपने केजरीवाल ने दिखाए वो पूरे नहीं होते दिखाई दे रहे थे, साथ ही उनकी हर रणनीति भी लोगों को नाराज कर रही थी, कहने का मतलब यह है कि केजरीवाल को यह पता चल गया कि अगर कुछ और दिन वो सरकार में रहे थे उनकी सारी पोल पट्टी खुल जाएगी। वो बेनकाब हो जाएंगे, इसलिए उन्होंने इस्तीफा देकर खुद को सियासी शहादत घोषित करने लगें ।
 एक बात यह भी था कि केजरीवाल इस बात को बखूबी जानते या समझते थे कि अब मौसम भी अपना मिजाज बदलने वाला है। यानि ठंड के मौसम में बिजली और पानी कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं थी इसलिए जनता भी शांत थी, लेकिन अब मौसम गर्मी का आ रहा है और स्थिति ये है कि केजरीवाल के बिजली,पानी घरघर पहुंचाने के वादों पर अमल तक नहीं किया गया,ऐसे में केजरीवाल का पोल खुलने वाला था। आम जनता के उम्मीदों के इंजीनियर बनकर उभरे केजरीवाल को दिल्ली की जनता ने पानीबिजली के मुददे पर ही सत्ता सौंपा था, लेकिन जनता एक बार फिर ठगी गई।
बहरहाल अरविंद केजरीवाल दिल्ली की सत्ता को जनलोकपाल के मुद्दे पर कुर्बान कर चुके हैं और इस कुर्बानी से पहले उन्होंने एक बार फिर कांग्रेस और बीजेपी के साथ-साथ कॉरपोरेट घरानों पर भी भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है, ठीक उसी तरह जिस तरह 80 के दशक में वी पी सिंह ने लगाया था। हालांकि एक सच यह भी है कि लोकसभा चुनाव की तैयारियों के लिए उन्हें ब्रेक चाहिए था। बावजूद इसके इस पूरे घटनाक्रम को अतीत से जोड़ लिया जाए तो केजरीवाल में देश को पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह की याद आने लगी है, जिन्होंने कांग्रेस में रहते हुए पार्टी पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था। कांग्रेस पर अंबानी सहित कई और कॉरपोरेट घरानों का साथ देने का आरोप लगाकर जनमोर्चा नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली थी। वी पी सिंह जनता को विश्वास दिलाने में कामयाब रहें कि कांग्रेस की सरकार भ्रष्ट है,वो वी पी सिंह ही थे जिन्होंने बोफोर्स स्कैम का मुद्दा उठाया था और इसी मुद्दे पर कांग्रेस से अलग भी हो गए थे। भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर वी पी सिंह चंद सालों में ही जनता के बीच काफी लोकप्रिय हो गए और वह अपने महत्वकांक्षी सपने को यानि प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रहें। ठीक उसी तरह अरविंद केजरीवाल भी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर प्रधानमंत्री बनने के सपने संजो रहे हैं । लेकिन एक सच यह भी है कि आम जनता अतीत की भूल को दूबारा नहीं दोहराएगी। क्योंकि वी.पी.सिंह की सरकार ने जो आरक्षण और मंडल आयोग को लेकर देश में संकीर्णता और जातिवाद के घातक बीज बो दिए हैं उसकी फसलें आज भी बर्बाद हो रही हैं। ऐसे में आम जनता अरविंद केजरीवाल को दूबारा से उसी नक्शेकदम पर नहीं चलने देगी।
निश्चित रूप से अरविंद केजरीवाल में एक उम्मीद की किरण दिखी भी थी, लेकिन केजरीवाल ने इन तमाम भावनाओं के साथ साथ खिलवाड़ किया है। बीच मंझधार में दिल्ली के आम आदमी को छोड़कर आम आदमी पार्टी की सियासी चमक को बढ़ाने और प्रधानमंत्री का ख्वाब देखने वाले अरविंद केजरीवाल का यही असली सच है कि वह आम आदमी को सीढ़ी बनाकर सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठना चाहते हैं ना कि भ्रष्टाचार मुक्त भारत के निर्माण की।
जल्द ही एक नए मुददे पर लेख आपके सामने होगा।
लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।
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Deepak841226@gmail.com

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