Wednesday 12 February 2014

स्वार्थ की नींव पर थर्ड फ्रंट.. दीपक कुमार

पिछले कुछ दिनों से भारतीय राजनीति में  थर्ड फ्रंट यानि तीसरे मोर्चे की हनक खूब सूनाई दे रही है। एक बात तो साफ है कि राजनीति में रूचि रखने वाले लोग थर्ड फ्रंट के बारे में बखूबी जानेते होंगे और अगर जो राजनीति के इतिहास में रूचि रखते होंगे वह यह भी  जानते होंगे कि थर्ड फ्रंट यानि ​तीसरे मोर्चे की नींव धोखे और स्वार्थ पर टिकी है। हालांकि वर्तमान दौर में इसके गठन को बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के रथ को रोकने से जोड़कर देखा जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि इस मोर्चे की सार्थकता और वास्तविकता क्या है? क्या अब फिर तीसरे मोर्चे के उभरने की गुंजाइश पैदा हो गई है?
 क्योंकि यह सच है कि तीसरे मोर्चे को भारत पर शासन करने का मौका मिला था, उस घटना को 2 दशक से भी अधिक समय बीत भी चुका है। फिर भी अगर 2014 के चुनाव के परिणामस्वरूप यदि त्रिशंकु संसद अस्तित्व में आती है तो तीसरे मोर्चे की सरकार की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। एक बात यह भी है कि हाल के विधानसभा चुनावों में दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) ने सरकार बना कर जहां प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों को एक तरफ धकेला है, वहीं तीसरे मोर्चे के लिए स्थान भी सृजित कर दिया है। ऐसे में तीसरे मोर्चे यानि थर्ड फ्रंट को नई जोश और नई उम्मीद भी मिली है। इसलिए इस मोर्चे को लेकर चहलकदमी बढ़ गई है। बहरहाल वर्तमान स्थिति यह है कि थर्ड फ्रंट में 11 दल साथ आए। इनमें चारों वाम दल, सपा, जदयू, अन्नाद्रमुक, बीजद, अगप, झारखंड विकास मोर्चा, जनता दल (एस) शामिल हैं। मौजूदा लोकसभा में इनकी कुल ताकत 92 सीटों की है।

    लेकिन यह भी सच है कि  केंद्र में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बगैर स्थिर सरकार बनाने की क्षेत्रीय दलों की तमाम प्रयासों के बावजूद भी महत्वकांक्षा अब तक पूरी नहीं हो पाई है ऐसे में वह समयसमय पर हुंकार भरते भी हैं। यहां यह समझना होगा कि जबजब तीसरे मोर्चे ने हुंकार भरी है उसके पीछे कांग्रेस की मंशा या समर्थन रहा है। अगर अतीत को टटोलें तो यह मालूम होता है कि इनकी हुंकार में कांग्रेस की आवाज साफ दिखाई देती है। तीसरे मोर्चे की क्षेत्रीय पार्टियों की ये कोशिशें 1977, 1989 और 1996 में छोटी अवधि के लिए सफल रही थीं,  लेकिन इसमें भी सत्ता के शीर्ष पर उस दौर के पूर्व कांग्रेसी नेता ही रहे थे। मोरारजी देसाई 1977 में जनता पार्टी सरकार के पहले प्रधानमंत्री थे, इसके बाद चरण सिंह प्रधानमंत्री बने और दोनों ही पूर्व कांग्रेसी नेता थे। 1989 में वीपी सिंह जनता दल के पहले और चंद्रशेखर दूसरे प्रधानमंत्री बने और दोनों ही पूर्व कांग्रेसी नेता थे। सही मायने में एच.डी.देवेगौड़ा पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे, लेकिन एक बात यह भी है कि  जब 1996 में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी थी, उस वक्त भाजपा (161+26) 13 दिन की ही सरकार बना सकी और कांग्रेस (140) ने कोई कोशिश ही नहीं की। ऐसे में जनता दल, सपा, टीडीपी के नेशनल फ्रंट (79) और लेफ्ट फ्रंट (52) ने अन्य दलों के साथ मिलकर कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी। लेकिन उनके बाद जल्द ही पूर्व कांग्रेसी आई.के.गुजराल ने एक बार फिर पद संभाल लिया। मतलब साफ है कि अब तक थर्ड फ्रंट अगर सत्ता तक पहुंची है तो अधिकांश बार कांग्रेसी चेहरे ने ही देश के प्रधान बनने का सुख पाया है।
   अगर अतीत की बात को छोड़कर वर्तमान के आईने में देखें तो यह समझना होगा कि मौजूदा क्षेत्रीय दलों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस के अलावा कोई भी ऐसा दल नहीं है, जिसके प्रमुख पूर्व कांग्रेसी हैं। लेकिन इन दलों की भूमिका तीसरे मोर्चे की सरकार में कम ही लगती है। क्योंकि  सभी गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा पार्टियां तीसरे मोर्चे में  शामिल नहीं होंगी, कुछ पाटियां एक-दूसरे को फूटी आंख भी नहीं सुहातीं। उदाहरण के तौर पर तृणमूल कांग्रेस किसी भी स्थिति में वामपंथियों के साथ चलने को तैयार नहीं जबकि द्रमुक और अन्नाद्रमुक हमसफर नहीं हो सकतीं। इसी तरह सपा और बसपा एक दूसरे को राजनीतिक दुश्मन मानते हैं। यानि की जहां एक रहेगा वहां दूसरा नहीं। यहां एक मुहावरा सटीक बैठ सकता है — 'एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकते हैं।' ऐसे में तीसरा मोर्चा कमजोर ही होगा। लेकिन यह भी है कि राजनीति में सब कुछ संभव है।
   एक स्याहा सच यह भी है कि  एआईएडीएमके की जयललिता और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह जैसे क्षेत्रीय नेताओं का स्वभाव अस्थिर है जो कि प्रस्तावित मोर्चे को साथ लाने में मुश्किलें पैदा करेगा। तीसरे मोर्चे पर फैसला होने से पहले ही एआईएडीएमके के लोग जयललिता का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए लेने लगे थे, जबकि समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में खुद को पेश करते आए हैं। उनका यह तर्क है कि जब देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो वह क्यों नहीं। अगर मुलायम सिंह के उस बयान पर गौर किया जाए जिसमें उन्होंने  चुनाव बाद तीसरे मोर्चे के गठन का जिक्र किया है, तो उसमें से एक बात निकल कर सामने आती है- जिसमें मुलायम सिंह यह सोचते हैं कि अगर कांग्रेस की सरकार सत्ता में आई तो वह फिर से अपने पुराने साथी यानि कांग्रेस के साथ चले जाएंगे और अगर नहीं आई तो तीसरे मोर्चे का विकल्प खुला है। यानि वो दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं। वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पाले हुए हैं।
इन क्षेत्रीय दलों के नेताओं की सबसे बड़ी समस्या है कि सभी के अपने अहंकार और स्वार्थ हैं और ये इन दोनों चीजों से कोई समझौता नहीं करना चाहेंगे। जब प्रधानमंत्री के चुनावों का मौका आएगा तो यह समस्या विकराल रूप से उनके सामने खड़ी होगी। ऐसे में उन्हें अपने अहम को काबू में रखना होगा। अगर उनकी सरकार बन भी जाती है तो इसको चलाना भी समस्या बन जाएगा क्योंकि सभी क्षेत्रीय दिग्गज पहले की भांति अलग-अलग दिशाओं में इसे खींचेंगे और अपने-अपने समर्थन का भारी मोल मांगेंगे। अगर चुनाव बाद तीसरे मोर्च का स्वरूप बढ़ता भी है तो उसमें एनसीपी, नेशनल कांन्फ्रेंस जैसी पार्टियों का विलय हो सकता हैं, जिसके प्रमुख पहले से ही प्रधामनंत्री बनने का सपना संजोए बैठे हैं। यानि इस मोर्चे में आने वाले नए चेहरे भी प्रधानमंत्री बनने के सपने लेकर ही आएंगे। ऐसे में इस मोर्चे में इस पद के लिए नुराकुश्ती होनी तय है। अतीत का अनुभव बताता है कि कोई भी मोर्चा कांग्रेस या भाजपा के बाहरी समर्थन के बिना सरकार नहीं बना पाया।
एक बात यह भी है कि  तीसरे मोर्चे में जाने की सबकी अपनी मजबूरी है। मसलन, जहां बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पाले हुए हैं लेकिन राजग से अलग होने के फलस्वरूप उनकी पार्टी काफी कमजोर हो गई है। बिहार में स्थिति यह है कि वहां की जनता अब नीतिश को लालू यादव के नक्शेकदम पर चलते हुए देख रही है। उच्च जाति के लोग नीतिश सरकार से  निराश हैं। नीतिश कुमार के आशा के विपरीत उच्च जातियां अभी भी भाजपा के साथ डटी हुई हैं। कांग्रेस-राजद-लोजपा का गठबंधन भी उनके लिए कड़ी चुनौती बन कर उभर रहा है। ऐसे में खुद को कोने में धकेल दिया गया महसूस करते हुए नीतिश  ने फिर से तीसरे मोर्चे में जाना जरूरी हो गया था। वहीं मुजफ्फरनगर दंगों के बाद उत्तर प्रदेश में खुद को फिसलन भरी स्थिति में पा रहे सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के लिए भी इस नाव पर बैठना जरूरी था। क्योंकि यह सच है कि यूपी में जनता अखिलेश सरकार की बेवकूफियों से परेशान है। वहीं बंगाल सहित पूरे देश में वामपंथ सुसुप्त अवस्था में है। उसकी हर चाल उसी पर भारी पड़ रही है। अब वामपंथ को अपने अस्तित्व को बचाने का खतरा है। ऐसे में उनके लिए भी एक ऐसे प्लेटफॉर्म की जरूरत थी जिसपर खड़ा होकर वह एक बार फिर अपनी राजनीति को संवार सकें। जिन स्थानीय क्षत्रपों की लोकसभा चुनाव में बेहतर संभावनाएं बताई जा रही हैं, उनमें सिर्फ जयललिता ही इस प्रस्तावित तीसरे मोर्चे में हैं। लेकिन चुनाव के बाद भाजपा के नेतृत्व वाला राजग अगर केंद्र में सरकार बनाने की स्थिति में होता है, तो अम्मा उसके साथ नहीं होंगी, इसकी भी गारंटी नहीं है?
यह ठीक है कि इस मोर्चे में शामिल होने वाले दलों के बीच कोई बड़ी प्रतिस्पर्धा नहीं है। इसके बावजूद इस जमावड़े के प्रति निश्चय के साथ कुछ कहा नहीं जा सकता! अभी न तो इसका स्वरूप तय है और न ही इन दलों की प्रतिबद्धता के बारे में ठोक-बजाकर कुछ कहा जा सकता है। मसलन, सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह केंद्र में सरकार बनाने का संकेत तो देते रहे हैं, लेकिन अगले चुनाव के बाद वह कांग्रेस को समर्थन नहीं करेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इसी तरह नीतीश कुमार कांग्रेस से धोखा खाने के बाद मजबूरी में ही इस मोर्चे में आए हैं और भाजपा से अलग होने के बाद लोकसभा चुनाव में उनके लिए भी कठिन चुनौती होगी। बीजद, रालोद और जनता दल जैसी पार्टियों से बड़ी भूमिका निभाने की बहुत उम्मीद नहीं है। हां यह जरूर है कि वाम दल के प्रतिबद्धता के बारे में निश्चय के साथ कहा जा सकता है। लेकिन हाशिये पर रह गए कम्युनिस्ट लोकसभा चुनाव में ऐसा क्या कर लेंगे, जिससे वे दूसरे समानधर्मा दलों को अपने साथ जोड़ सकें?
बहरहाल जो भी हो, फिर भी हमारी शुभकामनाएं इस नए 'तीसरे मोर्चे' के साथ जरूर रहेगी।
लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।
दीपक कुमार—09555403291
ईमेल- deepak841226@gmail.com







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