रोमांस एक ऐसा शब्द है जिसको सभी अपने—अपने ढ़ग से
परिभाषित कर सकते है। शरारती
चेहरे इस रोमांस को आकर्षण
का नाम दे सकते हैं तो संजीदा और गंभीर व्यक्तित्व इसे प्यार
की नई—नई
आकांक्षा कह सकते हैं। लेकिन इन सब के बीच एक सवाल जो महत्वपूर्ण
है वो यह है कि अचानक रोमांस का प्रचलन आया
कैसे? तो इसका जवाब भी अलग—अलग तरह से मिल
सकता है। वैसे तो युवाओं के संदर्भ में इस शब्द को जोड़ा जाता है लेकिन इसका
स्पष्ट सच है कि युवाओं ने रोमांस को प्रचलन में नहीं लाया है। इसके पहले भी
रोमांस प्रचलन में था। यहां यह बताना जरूरी है कि ओल्ड जेनेरेशन
यानी बुजुर्ग समाज भी युवाओं को रोमांस की अराजकता का
दोषी मानते हैं। उनके अनुसार यंग समाज ने ही रोमांस को जन्म
भी दिया है और उसे अपने ढ़ग से वह परिभाषित भी करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या
इस शब्द का प्रचलन हमारे अतीत के जेनेरेशन में नहीं रहा होगा? बुजुर्गों ने भी अपने दौर में रोमांस किया ही
होगा। यह एक अलग बात है कि हमारी संस्कृति और सभ्यता यह इजाजत नहीं देती की हम
अपने अतीत के जेनेरेशन से इस मुद्दे पर कोई सवाल पूछें या कोई चर्चा करें। तो फिर
यहीं से सवाल यह भी उठता है कि उन्हें क्या यंगस्टर्स के रोमांस पर कोई
सवाल करने का हक है? इस सवाल को अगर भावनात्मक जवाब मिलता है तो
हमे भी यह समझना ही होगा कि दरअसल यह हमारे हित की ही बात होगी। अगर नहीं समझे तो
परिवार और समाज के लिए आप एक कलंकित चेहरा होंगे। यह सवाल परिवार तक अगर सीमित हो
तो समझ में आता है लेकिन अब यह सवाल समाज के बुजुर्गों
में वायरस की तरह फैल चुका है।
मतलब यह कि वह तय करने लगे हैं कि यंगस्टर्स रोमांस कैसे
करें। तो क्या अब वह तय करेंगे कि युवा रोमांस कैसे करे! तो क्या उन्हें यह हक
कानूनी रूप से मिला है? या फिर वह बेवजह अड़चन लगाने में खुद को
बहादूर समझना चाहते हैं? या फिर वह अपनी गलियों- मुहल्ले या
समाज की सफाई का ठेका उठा रखे हैं
या समाज की सफाई करना चाहते हैं? क्योंकि
अगर हम कहें कि जो अड़चन लगाते हैं उनकी नियत में महिला समाज को लेकर खोट नहीं है तो यह बात हास्यास्पद होगी। यहां यह समझना जरूरी है कि क्या युवा भी सही ढ़ग से रोमांस को
परिभाषित कर रहे है? क्योंकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता
कि युवाओं ने जिस तरीके से सड़कों पर रोमांस करना शुरू किया है उससे हमारी
संस्कृति और सभ्यता का हनन भी हो रहा है। पैसे और समय—समाज के
बंदिशों में जकड़े युवाओं के लिए पार्क और सड़क या सार्वजनिक स्थल ही पवित्र स्थल बन
चुका है ।
लेकिन सवाल यह है कि आखिर युवाओं के सड़क—रोमांस से उन्हें
तकलीफ क्यों है? क्योंकि
ऐसा भी नहीं है कि आज के बुजुर्गों ने अपने अतीत में इस तरह की हरकत नहीं की होगी।
चंद समय के लिए यह मान लिया जाए कि वह स्वच्छ समाज की परिकल्पना करना चाहते हैं तो यह बात गले से नीचे नहीं उतरने वाली है। क्योंकि जिस दौर में
इन्होंने तरह—तरह के कांड
किए होंगे उस दौर में आवाज उठाने की परंपरा नहीं रही होगी। या आज के दौर में भी
व्यापक स्तर पर नाबालिग लड़कियों का
इस्तेमाल अगर करता है तो वह बुजुर्गों का ही एक बहुत बड़ा समुदाय है। इसमें होता
यह है कि पीड़ित लड़की अपनी मजबूरी और उस चेहरे की समाज और परिवार में जमी
हुई पैठ के सामने जीरो जाती हैं और जिस वजह से उसे मजबूरी में खुद को लूटते हुए
देखना भी पड़ता है।
लेकिन समय बदला है अब यह समाज उन पीड़ितों को रोक नहीं सकता
है और बंदिशों के जंजाल को इन लड़कियों ने तोड़ा भी है। तभी तो पहली दफा धर्म के
ठेकेदार आशाराम इन्हीं करतूतों में जेल में पहुंच चुके हैं तो वहीं मीडिया के जीनियस मैन या स्टिंग
किंग तरूण तेजपाल भी कुछ ऐसे ही कांड
में इसी दौर में जेल में हैं। तो वहीं न्याय के मालिक जस्टिस गांगुली भी इन्हीं
चक्कर में अपने पद—प्रतिष्ठा को धूमिल होने से बचाने में लगे
हैं। अगर इन सब के उम्र पर गौर किया जाए तो ये 55 बसंत देख चुके हैं।
ये तो बात हुई अधेड़ बुजुर्गों की। अगर बात की जाए प्योर बुजुर्गों की तो उसमें एनडी तिवारी का नाम लेना जरूरी
होता है। क्योंकि मुख्यमंत्री से लेकर राज्यपाल तक के कुर्सी का सुख भोग चुके
तिवारी जी ने उम्र के 80 वें पड़ाव या यूं
कहें आखिर पड़ाव में भी सेक्स का सुख भोगते हुए पकड़े जा चुके हैं। हद तो तब हुई
जब न्यायालय के आदेश के बाद उन्हें अपने परिवार को पहचानने वाले डीएनए टेस्ट भी
देना पड़ा। वहीं कांग्रेस के एक और बड़े नेता अभिषेक मनु सिंधवी भी 60
बसंत पार तो कर चुके हैं लेकिन वह भी कुछ ऐसे ही आरोपों में घिरे हैं। ऐसे और भी
कई उदहारण हैं।
लेकिन इन सब के बीच सवाल यह है कि बुजुर्गों की टीस है कहां? और क्यों? दरअसल, आज के दौर में
युवाओं ने बुजुर्गों को हाशिए पर ढ़केल दिया है। इसी दौर में पहली दफा बुजुर्गों समाज
को फॉलो करने की परंपरा भी कहीं दूर छुट गई है। तो इसी दौर में उनसे सलाह लेने की
परंपरा भी हाशिए पर चली गई है। मतलब साफ है कि यंग जेनेरेशन अब बुजुर्गों के पीछे—पीछे चलने वाली
परंपरा को ही खत्म कर दिया है। इसी दौर में अब यह
बात पुरानी हो चुकी है कि आज के युवा, बुजुर्गों से कोई
राय—मशवरा करें। अब आज के युवा अगर किसी बात को जानना या समझना
चाहते हैं तो उनके लिए ई—नेट और उनकी यारियां ही उनके सवालों का जवाब
दे दती है। मतलब साफ है कि आज के दौर में यंग और ओल्ड जेनेरेशन में कोई लगाव रह
नहीं गया है। न ही अब वह जेनेरेशन मौजूद है जो नानी— दादी के पास बैठ कर
सर पर चंपी कराते हुए उनके गूजरे कल और किस्सों कहानियों को सुनता था और न ही वह
जेनेरेशन मौजूद है, जो बुजुर्गों के खट्टे— मीठे अनुभव
को सुनता और समझता था। तो ऐस में यह क्यों न मान लिया जाए कि
युवाओं को अब बुजुर्गों से कोई मतलब रह नहीं गया है! आज उनके लिए जरूरी उनके अतीत
की जनेरेशन नहीं है बलिक उनके लिए जरूरी सोशल—साइट्स पर
स्टेटस अपडेट करना है और व्हाटस अप या आक्र्यू के जरिए रोमांस की नई
परिभाषा गढ़ना है। ऐसे में बुजुर्गों को लंबी खाई स्वभाविक रूप से दिख रही है।
क्योंकि उन ओल्ड जेनेरेशन के पास एक्सपीरियंस रूपी चश्मा भी है जिसके जरिए वह अपने
और युवाओं के भविष्य की परिकल्पना कर सकते हैं और करते भी हैं।
तो दूसरी तरफ यह भी सच है कि 50 के उम्र को पार कर
चुके उम्रदराज लोगों को घर बिठाने वाले युवा ही हैं। बात चाहे राजनीति की हो या
फिर किसी और क्षेत्र की तो सच यह है कि जहां फिल्मीं दुनिया में अमिताभ
बच्चन की एक्टिंग को विराम लगाया वो और कोई नहीं उस दौर के युवा शाहरूख खान ने ही
लगाया। तो आज के उम्रदराज एक्टर शाहरूख के पर्दे
के रोमांस से ध्यान अगर किसी ने हटाया तो इस दौर के रोमांस किंग और यूथ आईकन रणबीर कपूर ने। वहीं खेल
जगत में जहां क्रिकेट के किंग विराट कोहली से लेकर बैंडमिंटन की क्वीन
सायना नेहवाल या कुश्ती के हीमैन सुशील कुमार से लेकर टेनिस स्टार रोहन
बोपन्ना तक इन सब ने आज ओल्ड जेनेरेशन को ठेंगा दिखाते हुए खाप के फतवों और
नियम कानूनों को ताख पर रखा है। तो सच है कि मानवीय व्यवहार के अनुसार जलन होना
स्वभाविक है। दरअसल, पहली बार ऐसा हुआ
है जब युवा अपने अनुसार सत्ता और समाज का रेखाचित्र खींच रहे हैं। तभी तो पहली दफा
छोटे— छोटे मुददों को लेकर सरकार को चुनौती देने के लिए सड़क पर आ
जाते हैं। वर्ना यह दूर की गोटी थी कि बुजुर्गों के नेतृत्व में 16 दिसंबर
गैंगरेप पीडित को इंसाफ के लिए विरोध हो। क्योंकि वह बार—बार अपने
स्वास्थ और डर भरे अनुभवों के दम पर खुद तो रूकते ही हैं साथ में युवाओं को भी
रोकने की चाहत में रहते हैं। और यह भी
सच है कि आज युवा बाहर निकले हैं तभी चुनावों में वोटिंग का प्रतिशत भी बढ़ा है।
वर्ना बुजुर्ग इसे एक फेस्टिवल के रूप में मनाने के आदि हो चुके हैं।
मतलब यह कि आज युवाओं
ने ओल्ड जेनेरेशन को खुद से जिस तरीके से दूर किया है उससे उनमें
यह टीस होना स्वभाविक है कि वह यूथ के हर एक्टिविटी को फॉलो भी करें और आलोचना
भी करें। शायद उनका गुस्सा खुद के परिवार पर न उतर पाता हो, शायद इसके
पीछे उनके बेघर होने का डर रूपी स्वार्थ छिपा हो तो अब वह भी सड़कों पर चल रहें
प्रेमी युगल को अपना निशाना बनाना सही समझते हैं। क्योंकि उन्हें भी पता है कि यह
प्रेमी युगल अपने परिवार से छुप कर रोमांस करना पसंद करते हैं तो वो भी इसके
विरूद्ध आवाज उठाने से कतराते हैं।
ऐसे में अब वक्त आ गया है कि यूथ यह तय करें कि उनके लिए क्या
सही है? क्या रोमांस की वजह से खुद पर हो रहे हमलों को बर्दाशत कर
सकते हैं? क्योंकि यह भी सच है कि युवा इतनी आसानी से किसी के तल्ख तेवर
और बात न सुनते हैं और न ही देखना चाहते हैं। उनके पास हर मर्ज का दवा भी होता है
और ईलाज भी। लेकिन समझना यह भी है कि उनके चुप रहले की वजह उनकी सहयोगी होती है।
यानी आज के संदर्भ में कहें तो गर्लफ्रेंड। तो युवा इस वजह से अपने उपर हो रहे
हमलों को बर्दाशत भी करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि इसकी अहमियत को उनकी सहयोगी
कितना समझती हैं? तो जवाब यह है कि वह उसे एक कॉमेडी से लोट—पोट कर
देने वाला हादसा समझती हैं। ऐसे में युवाओं को यह समझना होगा कि वो जिस रास्ते पर जा
रहे हैं क्या वह रास्ता उनके हित का है? और क्या वह रास्ता
ही उनके हित का है? सच है िक कुर्बानी और
प्यार जैसे शब्दों के मायाजाल में युवा पड़ चुके हैं क्योंकि
उसके आगे उन्हें कुछ न दिखता है और न ही कुछ सुझता है। ऐसे में वाजिब सवाल है कि ये रास्ता सही मंजिल की
ओर जाता है क्या?
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