Sunday 23 March 2014

दबाव के दौर में नरेंद्र मोदी- दीपक कुमार

वैसे तो नरेंद्र मोदी की छवि एक ऐसे प्रगतिशिल और विकसित राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में है जिससे कभी हाराना नहीं सीखा। अतीत का एक चाय वाला 'छोटू ' अब भावी प्रधानमंत्री बनने के काफी करीब आ चुका है। माहौल नरेंद्र मोदी के पक्ष में है, भाजपा भी उत्साहित है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से जिस कान्फिडेंस के दौर से भाजपा गुजर रही है, कहीं उसका हश्र भी 2004 के लोकसभा चुनाव की तरह न हो जाए,इससे सचेत रहने की आवश्यकता है। अतीत के आईने में नरेंद्र मोदी को एक बार देखना ही होगा, क्योंकि मोदी की असली जंग अब शुरू होने वाली है। लोकसभा चुनाव 2014 का काउंटडाउन शुरू हो चुका है और तकरीबन साफ हो चुका है कि देश मोदी लहर के प्रभाव में है, बावजूद इसके पीएम पद की कुर्सी कुछ दूर दिख रही है। क्योंकि एक बात साफ है कि मोदी के लिए चुनौतियां बाहरी से ज्यादा भीतरी हैं और गांधीनगर से दिल्ली तक के अपने सफर में मोदी को कई बाधा अभी भी पार करने बाकी हैं।

मोदी के पक्ष में माहौल को देखते हुए एक बात तो साफ है कि चुनावी मैदान में अन्य राजनीतिक पार्टियों से लड़ना शायद उनके लिए आसान हो, लेकिन उनकी अपनी ही पार्टी के अंदर की पार्टियों से लड़ना बहुत ही मुश्किल है। हालिया लालकृष्ण आडवाणी सहित दूसरे बुजुर्ग नेताओं की नाराजगी मोदी के लिए चुनौती बन सकती है। मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, हरिन पाठक की हालिया नाराजगी भी फिक्रमंद करती है। जसवंत सिंह और हरिन पाठक दोनों ने पार्टी से बाहर होने का लगभग फैसला कर लिया है। किसी जमाने में दोनों ही बीजेपी के हनुमान कहे जाते थें । जहां जसवंत सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी के हनुमान तो हरिन पाठक लाल कृष्ण आडवाणी के हनुमान। एनडीए की छह साल की सरकार में हर संकट में वाजपेयी को जसवंत सिंह याद आते थे। इसी तरह, आडवाणी की गांधीनगर सीट के सारे काम पास की अहमदाबाद पूर्व सीट से सांसद हरिन पाठक करते थे। आडवाणी के रूठने के पीछे भी यही माना गया कि वो पार्टी पर पाठक के टिकट के लिए दबाव बना रहे थे। लेकिन नरेंद्र मोदी, हरिन पाठक के टिकट के लिए तैयार नहीं हैं। 2009 के चुनाव में भी मोदी पाठक का टिकट काटने पर अड़ गए थे। तब भी आडवाणी की बेहद सख्ती के बाद ही उन्हें टिकट मिल पाया था। फिलहाल स्थिति यह है कि आडवाणी मान गए हैं।
   लेकिन राज्यों में ऐसे नेताओं की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है जो नरेंद्र मोदी की राह में बाधा बन सकते हैं। मसलन, लालकृष्ण आडवाणी खेमे के सुषमा स्वराज और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मोदी की मुसीबत बन सकते हैं। आखिर सुषमा भी प्रधानमंत्री की दौड़ में खुद को पीछे नहीं मानतीं, वहीं उन्हें शिवसेना का समर्थन पहले से है। और शिवराज की छवि मोदी के बराबर तो नहीं, लेकिन सर्वमान्य नेता की बन सकती है, मप्र में उनकी छवि भी मजबूत है। इसके अलावा अकालियों के ज्यादा नजदीक अरुण जेटली लोकसभा चुनाव लड़कर अपना अपना समर्थन बढ़ा रहे हैं। हालांकि वे मोदी समर्थक माने जाते हैं, लेकिन विकल्प बन सकते हैं। वहीं मौजूदा अध्यक्ष राजनाथ सिंह की निगाहें भी पीएम की कुर्सी पर जमी हैं। ऐसा कहा जाता है कि सरकार बनाने के लिए अगर तीसरे मोर्चे की जरुरत पड़ी, तो संघ मोदी की जगह राजनाथ को आगे करेगा। इसीलिए उन्हें बीजेपी अध्यक्ष भी बनाया गया है। इसके अलावा दूसरे दलों से बीजेपी में आए नए और भ्रष्ट नेताओं को मिल रहा महत्व भी मोदी के लिए तकलीफ बढ़ा सकता है। जमीनी कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज किया जा रहा है, वहीं कल तक मोदी को नकार रहें नेताओं को आंखो पर बिठाया जा रहा है। ऐसे में पार्टी के अंदर विरोध होना स्वभाविक है, जो अब बाहर आने लगा है।
एक बात यह भी है कि अगर नरेंद्र मोदी आने वाले समय में गठबंधन की राजनीति में प्रवेश करते हैं तो उसके लिए उन्हें पहले से ही अपने कुनबे का विस्तार करना होगा। 1999 में एनडीए में 24 से ज्यादा दल थे, लेकिन 2004 के बाद से बीजेपी का कुनबा बुरी तरह बिखरा है। फिलहाल बड़ी पार्टियों की शक्ल में शिवसेना और अकाली दल ही साथ हैं, तीसरा बड़ा दल जेडीयू बीजेपी से अलग हो चुका है। तृणमूल की ममता बनर्जी फिलहाल किसी गठबंधन में नहीं है। संभव है कि वे अपनी शर्तों के साथ मोदी का साथ दें, लेकिन इसके लिए वे चुनाव नतीजों का इंतजार करेंगी। लेकिन एक सच यह भी है कि बीजेपी ममता बनर्जी जैसे तुनुकमिजाजी नेताओं से बचेगी। वहीं मोदी के करीब रहीं तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का मूड भांपना संभव नहीं। खुद पीएम बनने का सपना रखने वाली 'अम्मा' तीसरे मोर्चे के ज्यादा नजदीक दिख रही हैं, क्योंकि शायद वहां उनका सपना पूरा हो सकता है। ओडिशा में नवीन पटनायक जैसे पुराने साथियों की वापसी का फिलहाल तो कोई संकेत नहीं है। एनडीए का कुनबा बढ़ाने के साथ बीजेपी को लोकसभा में अपनी ताकत भी बढ़ानी होगी, तीन बार केंद्र की सत्ता पर काबिज़ हो चुकी बीजेपी का सच यह है कि उन्हें आजतक लोकसभा में पूर्ण बहुमत नहीं मिला है। हालांकि 272+ के लिए मोदी लगे तो हुए हैं, लेकिन तमाम ओपिनियन पोल और सर्वे अब भी बीजेपी को 272 से ही दूर कर रहे हैं और तीसरे मोर्चे को मिलने वाली बड़ी कामयाबी के संकेत दे रहे हैं। यह मोदी के लिए राह मुश्किल कर सकता है। इसके अलावा पहली बार लोकसभा चुनावों में हिस्सा ले रही आम आदमी पार्टी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। हालांकि बीजेपी पार्टी की सदस्यता लेने वाले नेताओं के साथ नए दलों से गठजोड़ रोजाना हो रहा है। लेकिन ध्यान में यह रहे कि उनके आने से अंदरूनी छति न हो। मसलन, रामविलास पासवान और रामकृपाल यादव के भाजपा में शामिल होने से बिहार भाजपा में जोरशोर से नाराजगी है। 
इस बार नरेंद्र मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती अपनी सांप्रदायिक छवि से बाहर निकलना है। गुजरात दंगों में उनकी भूमिका और अक्सर लगते आरोपों पर देश का मतदाता क्या सोचता है, यह उसके वोट से ही पता चलेगा। यदि इन चुनावों में मोदी अपनी सांप्रदायिक छवि पर मतदाताओं का भरोसा पा गए, तो यह आरोप भी सदा के दम तोड़ देगा। हालांकि अल्पसंख्यकों को मोदी द्वारा उनकी टोपी न पहनना आज भी याद है और वे यह देख भी रहे हैं कि क्षेत्र के हिसाब से मोदी पगड़ी, साफा और स्थानीय बोली खूब बोल रहे हैं। ऐसे में मोदी पर भारी दवाब होगा कि वह मुस्लिम वोटरों को कैसे हैंडल करते हैं।
राज्यों में भी बीजेपी के सिमटते जनाधार को फैलाना मोदी की चुनौती है। दक्षिण में अपना एकमात्र गढ़ यानी कर्नाटक बीजेपी गंवा चुकी है। उत्तराखंड और हिमाचल भी बीजेपी के हाथ से फिसल पर कांग्रेस की झोली में जा चुके हैं। यूपी जैसे बड़े राज्य में पार्टी दहाई का आंकड़ा छूने को तरसती है। आंध्र में टीडीपी से पुराने गठबंधन के बाद भी सत्ता दूर है। मप्र, छग, राजस्थान और गोवा छोड़ दें, तो इनके सिवा किसी बड़े राज्य में राहत नहीं। ओडिशा, बंगाल, महाराष्ट्र, पूर्वोत्तर के राज्य जैसे- सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय पर मोदी का फोकस तो है, तो लेकिन जनाधार बढ़ेगा, इसकी गुंजाइश भी कम है। जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रीय दल हावी हैं, तो दिल्ली से लगे हरियाणा में भी कांग्रेस सरकार है। पंजाब से उम्मीद है, लेकिन अगर फायदा हुआ, तो भी श्रेय अकालियों को जाएगा। यही हाल महाराष्ट्र में है, शिवसेना से गठबंधन और मनसे के वादे के बावजूद बहुत फायदा होगा, यह नहीं कह सकते। दिल्ली में सत्ता की दहलीज तक पहुंचने के बाद भी कसक बाकी रह गई। पार्टी सरकार नहीं बना पाई। बिहार में नीतीश की जेडीयू से गठबंधन खत्म करना बड़ा नुकसान कर सकता है। पार्टी सिर्फ रामविलास पासवान की एलजेपी के भरोसे है, जो खुद पिछले चुनाव में महज एक सीट तक सिमट गई थी। मोदी की सबसे बड़ी चुनौती रैलियों की भीड़ को वोटों में तब्दील करने की है वर्ना उनकी छवि भी राहुल गांधी की रोबोट मैन की हो जाएगी।
बहरहाल, नरेन्द्र मोदी के सामने आज जिस तरह की परिस्थितियां हैं, उनका अनुमान पहले से ही लगाया जा रहा था। उनके विधानसभा चुनाव जीतने के बाद उनके राजनीतिक भविष्य को लेकर आकलन भी शुरू हो गए थे। लेकिन पिछले दो सालों में कट्टरवाद और उदार विकासवाद के बीच जो अनूठा सामंजस्य नरेंद्र मोदी ने बैठाया है, उसका फायदा भाजपा को मिल सकता है। उनकी छवि और अपने आप से लड़ाई बहुत बड़ी और अहम है।  गुजरात में लगातार तीसरी बार स्वीकारे जाने के बाद अब उनकी छलांग बहुत लंबी है और रोड़े अटकाने वाले भी बहुत। पर अगर वो अपने आप से लड़ाई जीत लेंगे तो इस छलांग के लिए ख़ुद को तैयार पाएंगे।  हालांकि चुनावी रणनीति बनाने में नरेंद्र मोदी को उनका संघ प्रचारक होने का अनुभव काम आता है। एक तपे-तपाए, मंजे हुए जमीनी कार्यकर्ता के रूप में वो हर मोर्चे पर अपनी पकड़ बनाए रखते हैं। मोदी की एक ख़ासियत यह है कि अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि के बावजूद वे अपने नेतृत्व को केवल फतवों तक या हिंदूवाद से जुड़े भावनात्मक ज्वार तक ही सीमित नहीं रखते बल्कि उसे विकासवाद की नई परिभाषा से भी जोड़ते हैं। मोदी को ये ठीक-ठीक पता है कि राजनीति, महत्वाकांक्षा और जनछवि के इस घोल में कब कितनी मात्रा में कट्टरता मिलानी है, कितना और कहां विकास करना है और वो कौन से जमीनी मुद्दे हैं, जिनके मूल से ये घोल तैयार होता है। उन्होंने काम भी किया और काम का प्रचार भी किया। लोगों ने उन्हें वोट दिया और जिताया। इसका पूरा श्रेय तो उन्हें देना ही होगा।
बावजूद उन्हें असली श्रेय तब मिलेगा जब वह जनता का विश्वास जीत लेते हैं। बहरहाल,  नरेंद्र मोदी भी बखूबी जानते हैं कि दिल्ली अभी दूर है। इस दूरी को वो किस तरह पार कर पाते हैं, अपने आप और इन समस्याओं से कैसे और कितना लड़ पाते हैं, देखना दिलचस्प होगा।
लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।

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Thursday 20 March 2014

सोशल मीडिया के सहारे 2014 का आम चुनाव- दीपक कुमार

      
    वैसे तो फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल साइट्स पर मेरी मौजूदगी बहुत कम ही रहती है, लेकिन इन दिनों जब भी मैं अपने ट्विटर या फेसबुक अकांउट को साईन-इन करता हूं चुनावी प्रचार के पोस्टरों की भरमार देखने को मिलती है, साथ हीं कुछ दिलचस्प पॉलिटिकल जोक्स पॉलिटिकल वीडियो भी देखने को मिलती है। जिससे मुझे बार-बार अपने एकाउंट को ओपन करने का को साईन-इन करने का मन करता है। दरअसल, यह भीड़ चुनाव के तारीख घोषित होने के बाद से अचानक बढ़ गई है। इनके चक्कर में मेरे फ्रेंड लिस्ट में मौजूद लोगों की बात या विचार हाशिए पर चली जाती है।
मेरे कहने का मतलब यह है कि 2014 के लोकसभा में पहली बार ऐसा होगा जब चुनावी सरगर्मी में मंच और माईक से ज्यादा सोशल साइट्स के इस्तेमाल और प्रभाव हो रहे हैं या होंगें। क्योंकि जिस रफ्तार से सोशल साइट्स के जरिए चुनाव प्रचार किया जा रहा है, उससे एक बात तो तय है कि यह हाइटेक भारत के दौर का आम-चुनाव बन चुका है। क्योंकि एक सच यह भी है कि 2009 लोकसभा चुनाव तक सोशल साइट्स का इतना महत्व नहीं था। लेकिन 2009 में जितने लोगों का वोट पाकर कांग्रेस ने सरकार बनाई थी, इस बार करीब-करीब उतनी ही संख्या भारत में सोशल मीडिया का उपयोग करने वालों की हो चुकी है। इस बार लोकसभा इलेक्शन में 80 करोड़ से ज्यादा वोटर्स हैं। खास बात यह है कि पहली बार वोट का अधिकार प्राप्त करने वालों की संख्या 10 करोड़ से अधिक है। देश में 9 करोड़ से कहीं ज्यादा लोग सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं। ऐसे में यह क्यों न मान लिया जाए कि ये 9 करोड़ लोग इस इलेक्शन में बड़ा रोल निभा सकते हैं।

 एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक 2009 लोकसभा इलेक्शन में कांग्रेस के खाते में गई 75 सीटें ऐसी हैं, जिनका फ्यूचर सोशल मीडिया के असर से अछूता नहीं रह सकता। इसी प्रकार से बीजेपी के कब्जे वाली 44 सीटें सोशल मीडिया की मुट्ठी में हैं। यह भी माना जा रहा है कि इलेक्शन से ठीक 48 घंटे पहले जब चुनाव प्रचार पर रोक लग जाएगी, तब सोशल मीडिया बड़ी भूमिका निभाएगा। यही कारण है कि कांग्रेस और भाजपा ने सोशल मीडिया के लिए भारी-भरकम टीम जुटा रखी है। मसलन, भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी खुद ट्विटर पर एक्टिव हैं और करीब 9 भाषाओं में ट्वीट करते हैं। इतना ही नहीं, कांग्रेस ने अधिक से अधिक युवाओं को पार्टी से जोड़ने के लिए सोशल मीडिया वेबसाइट्स पर कट्टर सोच नहीं युवा जोश अभियान चलाया हुआ है। इस अभियान के जरिये पार्टी न सिर्फ अपने उपाध्यक्ष राहुल गांधी की छवि को चमकाने में लगी है, बल्कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर करारा कटाक्ष भी कर रही है। वहीं भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव 2014 के लिए देश भर में 272 से अधिक सीटें जीतने का लक्ष्य बना रखा है। इसके मद्देनजर वह सोशल मीडिया साइट्स पर जोरदार अभियान चला रही है। भाजपा से जुड़े लोग नरेंद्र मोदी को नमो नाम से भी संबोधित करते हैं। इसलिए इस नाम से भी भाजपा का अभियान चल रहा है। इस अभियान के तहत नरेंद्र मोदी के गुजरात के विकास मॉडल को जनता को समझाया और बताया जा रहा है। वहीं आपके केजरीवाल भी अपनी नाकामीयों को छुपाने और प्रभुत्व बढ़ाने में लगे हैं।
हालांकि 2014 के चुनाव को लेकर सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग और इसके प्रभाव पर चुनाव आयोग भी अपनी नजर रखने का फैसला लिया है। आयोग के मुताबिक सोशल मीडिया पर होने वाला खर्च भी संबंधित राजनीतिक दलों के खर्च में जोड़ा जाएगा। जिसके लिए 2004 में आए अदालत के फैसलों को एक विस्तृत गाइड लाइन का आधार बनाया है, जिसमें यह सुनिश्चित करना भी शामिल है कि सोशल वेबसाइट के जरिये होने वाले खर्च को संबंधित राजनीतिक पार्टी के खर्च में शामिल किया जाए। इसके लिए चुनाव आयोग ने इन वेबसाइट्स पर निगरानी भी बढ़ा दी है। इसके लिए कुछ टीमें भी बनाई गई हैं, जो राजनीतिक दलों और इनके नेताओं की गतिविधियों पर नजर रखेंगी। यह फैसला एक खुलासे के बाद लिया गया है जिसमें यह दावा किया गया था कि गूगल हैंगआउट के जरिये हर पार्टी के नेता अपनी बात मतदाताओं तक पहुंचाने के साथ-साथ पार्टी के लिए फंड जुटाने में भी लगे हैं। सियासी दलों के कई नेता माइक्रो ब्लॉगिंग वेबसाइट ट्विटर पर भी मौजूद हैं और इसके जरिये भी वह अपनी बातें समय-समय पर लोगों तक पहुंचाते रहते हैं। यूट्यूब के माध्यम से भी राजनेता अधिक से अधिक मतदाताओं के करीब पहुंचने की कवायद में लगे रहते हैं।
दूसरी बात यह भी है कि सोशल साइट्स पर प्रचार प्रसार के बाद युवाओं के बीच चुनावों में सहभागिता या भागीदारी का क्रेज भी बढ़ा है। मतलब यह कि अगर यंगस्तिान बर्गर-पिज्जे और हंसी-मजाक से उपर उठकर चुनावों में दिलचस्पी दिखा रहा है तो उसका सीधा असर वोटिंग प्रतिशत पर भी पडेगा, जिसका उदाहरण हाल ही में पांच राज्यों में सम्पन्न हुए आम चुनाव हैं। यानि पहली बार युवा सोशल साइट्स के जरिए देश के मुद्दों को जानने या समझने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं, वर्ना कुछ दिन पहले तक की स्थिति यह थी कि युवा या तो रोमांस में बिजी रहते थे, या फिर क्लब में।
तो क्यों न यह मान लिया जाए कि यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है, क्योंकि एक सच यह भी है कि जब तक चुनावों में भागीदारी युवाओं की नहीं होगी तब तब देश की जनता को सही सेवक नहीं मिल सकता है। यही वजह है कि पिछले कुछ सालों से फेसबुक और सोशल साइट्स के जरिए नरेंद्र मोदी का कद बढ़ा भी है या बढ़ाया भी गया है। वर्ना आज तक न तो भाजपा नरेंद्र मोदी के क्रेज को लेकर जनमत संग्रह करवाई है और न ही कराना उचित समझा भी। क्योंकि उन्हें पता था कि जिस रफ्तार से नरेंद्र मोदी सोशल साइट्स पर अपनी दखल बढ़ा रहे हैं उसका सीधा असर 2014 के लोकसभा चुनाव में होना ही है, और हुआ भी ऐसा ही।   
वहीं दूसरी तरफ जब भाजपा के नरेंद्र मोदी का क्रेज बढ़ रहा था लगभग उसी दौरान कांग्रेस-सोनिया मनमोहन सरकार का क्रेज घटा भी। खासकर सोनिया के त्रिमुर्ति- कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद की खूब छिछालेदर हो चुकी है। दरअसल, कांग्रेस यह मान चुकी थी कि आने वाले समय में सोशल साइट्स न तो कोई भूमिका निभाएगी और न ही हम इसको अपना हथियार बनाएंगे। लेकिन इसके इतर हुआ उल्टा, 2014 का चुनावी साल नजदीक आते- आते सोशल साइट्स ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है तभी तो कांग्रेस को भी सोशल साइट्स सुहाने लगें। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी जल्दी-जल्दी में अपनी सोशल साइट्स टीम तैयार करने लगें, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
इसका मतलब यह नहीं कि सोशल साइट्स के जरिए ही नरेंद्र मोदी का क्रेज बना या जमा है, लेकिन इसका अधिकांश सच यही है। दरअसल, जिस दौर में सोशल साइट्स भारत में एक्टिव हो रहे थें उस दौर में यानि 2010 के बाद कांग्रेस की यूपीए-2 करप्शन से सराबोर थी लेकिन उसी दौरान ही नरेंद्र मोदी ने अपने विकास और गुजरात मॉडल के जरिए अपनी एक खास पहचान बनानी शुरू कर दी। उस वक्त सोशल साइट्स पर न तो कोई उनकी टक्कर देने के के लिए आसपास था और नही किसी को कोई दिलचस्पी थी। ऐसे में अगर कोई कहे कि नरेंद्र मोदी सोशल साइट्स के प्रधानमंत्री हैं तो उस बात को मजाक में लेने की गलती नहीं की जा सकती है।
इनमें अब अन्य राजनीतिक दलों और राजनेताओं ने भी दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी है। यानि की सोशल मीडिया राजनीतिक प्रचारों में अहम भूमिका अदा करने लगी हैं। ये भूमिका पहले से अधिक व्यापक होती जा रही है। मसलन, सोशल साइट्स पर चल रहे आधिकारिक विज्ञापन राजनीतिक पार्टियों की सकारात्मकता और उपलब्धियों पर तो केंद्रित होते ही हैं, साथ में उनमें जबरदस्त पॉलिटिकल व्यंग्य भी देखने को मिलता है। ये विज्ञापन डिजिटल मीडिया पर खूब लोकप्रियता बटोरते हैं और तेजी से विस्तार पाते हैं।
मसलन, इन दिनों कांग्रेस के हर हाथ शक्ति हर हाथ तरक्कीके नारे को हर हाथ लॉलीपॉप हर हाथ रेवड़ी जैसे बच्चों के व्यंगात्मक वीडियो पैरोडी को जारी किया गया है, वहीं अरविंद केजरीवाल पॉलिटिक्स की दुनिया में हिट होने के साथ- साथ वीडियो पैरोडी की दुनिया में भी हिट हो गए हैं। उनपर कई पैरोडी अबतक बन चुके हैं जो बेहद लोकप्रिय हुए। मसलन, यो.यो केजरीवाल..’ ’ खॉसी-खुजली वाल। अब इसी कड़ी में एक और नयी पैरोडी आयी है जो यूट्यूब पर आजकल खूब हिट्स बटोर रहा है। इस पैरोडी में दूरदर्शन स्टाइल में ख़बरें पढते हुए अरविंद केजरीवाल की खबर ली गयी है। एंकर मरिया सुल्तान का दुःखदर्शन टीवी पर खबर पढ़ने का अंदाज, जिसमें अरविंद केजरीवाल की खूब खिल्ली उडाई गयी है।
यानि एक बात तो साफ है कि 2014 का चुनाव मनोरंजन के साथ-साथ रोमांचक भी होता जा रहा है। अगर अब तक आप सोशल साइट्स पर एक्टिव नहीं हैं तो अब हो जाईए। यकीन मानिए, यह चुनाव आपको फुल एंटरनेटन करेगा।
       लेखक हिन्दुस्थान समाचार में कार्यरत हैं।
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Wednesday 12 March 2014

आरक्षण के भंवर में जाट!

जाट शब्द जुबान पर आते ही एक आम जन के दिमाग में ऐसी जाति की छवि बनती है, जिसमें एक अजीबोगरीब अल्हड़पन, शारीरिक बलवंता, मंदबुद्धि, तीखे तेवर और तल्ख आवाज की मौजूदगी हो । दरअसल, ऐतिहासिक रूप से जाटों ने अन्य लोगों के मन में अपनी जीवनशैली के कारण एक ख़ास तरह की पहचान भी बनाई है और खास विचारों को बढ़ावा भी दिया है। उदाहरण के लिए 18वीं शताब्दी के पंजाबी कवि वारिस शाह ने जाटों की व्याख्या नासमझ और गंवार लोगों के तौर पर की थी। लेकिन इस जाति की खास बात यह है कि उनके बीच उच्च स्तर की गुटबंदी होती है जो उनके परिवारों के बीच आपसी संवाद में भी दिखाई पड़ती है और जो राज्य की राजनीति तक जाती है। ये गुट सत्ता के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करते हैं और निरंतर एक दूसरे से उलझते भी रहते हैं। लेकिन किसी बाहरी तत्व के लिए वह एकजुट भी हो जाते हैं।     
      दरअसल, जाट मुख्यतः खेती करने वाली जाति के रूप में जाने जाते है। लेकिन अतीत को टटोलें तो औरंगजेब के अत्याचारों और निरंकुश प्रवृति ने उन्हें एक बड़ी सैन्य शक्ति का रूप दे दिया । मुग़लिया सल्तनत के अंत से अंग्रेज़ों के शासन तक ब्रज मंड़ल में जाटों का प्रभुत्व रहा। इन्होंने ब्रज के राजनीतिक और सामाजिक जीवन को बहुत प्रभावित किया। यह समय ब्रज के इतिहास में 'जाट काल' के नाम से जाना जाता है । मुग़ल सल्तनत के आखरी समय में जो शक्तियाँ उभरी, जिन्होंने ब्रजमंडल के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उन जाट सरदारों के नाम इतिहास में बहुत मशहूर भी हैं ।
वर्तमान दौर में देश में जाटों की गिनती आम तौर पर बड़ी या मध्यम जोत वाले संपन्न किसानों के रूप में होती है। दिल्ली-एनसीआर और राजस्थान के भरतपुर-धौलपुर जिलों समेत कई इलाकों में जी-तोड़ मेहनत के बलबूते उन्होंने समाज में अपनी बेहतर जगह बनाई है। कई इलाकों में जाट सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से काफी सक्षम हैं, लेकिन सरकारी नौकरियों में उनकी नुमाइंदगी अब भी उनकी हैसियत वाले समुदाय के अनुरूप नहीं है। उच्च शिक्षा के मामले में भी उनकी स्थिति कमोबेश पिछड़े या अति पिछड़े जैसी ही है। यही वजह है कि राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश समेत दूसरे राज्यों में जाट आरक्षण की मांग के लिए लंबे समय से आंदोलन भी होते रहे हैं। कई बार जाट आरक्षण को लेकर हिंसक आंदोलन भी हुए, लेकिन यह मामला टलता रहा । जाट आरक्षण की मांग को लेकर सरकार पर जब ज्यादा दवाब बढ़ा, तो उसने इस मांग पर विचार करने के लिए वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की अगुआई में गृह मंत्री, सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्री और कार्मिक, प्रशिक्षण व पीएमओ में राज्यमंत्री को शामिल कर मंत्रियों का एक समूह (जीओएम) गठित किया, जिसने पिछले दिनों जाट आरक्षण पर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। जीओएम ने अपनी रिपोर्ट में इस बाबत सरकार को दो विकल्प सुझाए थे। उन्हीं के आधार पर सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय ने जाट आरक्षण का रोडमैप केंद्रीय कैबिनेट को विचारार्थ भेजा । जिस पर कैबिनेट ने जाट कोटे के प्रस्ताव अपनी मंजूरी दे भी दी। कैबिनेट के इस फैसले के बाद जाट समुदाय को केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की सूची में शामिल कर लिया जाएगा और उन्हें भी वे फायदे मिलने लगेंगे, जो देश में पिछड़े वर्ग को मिलते हैं । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में आयोजित कैबिनेट के इस फैसले के बाद केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्ग के तहत जाटों को आरक्षण मिलने का रास्ता साफ हो गया है। इसका सीधा फायदा लगभग उत्तर और मध्य भारत के नौ करोड़ जाटों को मिलेगा।

लेकिन सवाल यह है कि क्या आज के दौर में जाटों के लिए आरक्षण का यह लॉलीपॉप सार्थक है? क्योंकि जाटों का एक सच यह भी है कि वे अपने मेहनत और तरक्की के नएनए आयाम तलाशते हैं। आज जाट समुदाय के युवा हर मोर्चे पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। विदेशों में रहने वाले अधिकांश पंजाबी लोगों में जाटों की एक बड़ी संख्या है। खेल से लेकर राजनीति तक या फिल्म से लेकर व्यापार तक जाट छाए हुए हैं। पंजाबी पत्रिका 'लकीर' के एक सर्वेक्षण के अनुसार लेखकों का एक बड़ा हिस्सा जाट जाति से है। साहित्य में ढेर सारी छोटी कहानियां और उपन्यास जाट किसानों से संबंधित है। इन मापदंडों के आधार पर जाटों को पिछड़ा नहीं कहा जा सकता है। 
 अगर इन बातों को नजरअंदाज करते हुए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग(एनसीबीसी) द्वारा केंद्र सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट की भी मानें तो, जाट ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल होने की कसौटी और मापदंडों पर खरे नहीं उतरते । एनसीबीसी का कहना है कि जाट न तो सामाजिक और न ही आर्थिक या अन्य किसी लिहाज से पिछड़े हैं, हालांकि कुछ राज्यों ने अपने यहां जाटों को आरक्षण दिया है, लेकिन केंद्र सरकार के स्तर पर उन्हें यह सुविधा देना गलत होगा । अपने फैसले पर पहुंचने से पहले आयोग ने 450 प्रस्तुतियों का जायजा लिया। इसके अलावा खुली जन सुनवाई रखी गई और देश भर में जाटों की स्थिति को लेकर विभिन्न अध्ययनों के बाद ही उन्हें आरक्षण देने के खिलाफ 4-0 से फैसला दिया। बावजूद इसके सरकार ने यदि जाट आरक्षण पर मुहर लगा दी है, तो इसके पीछे जाटों के पिछड़ेपन को दूर करने से ज्याद चिंता आगामी लोकसभा चुनाव में जाट वोटरों को लुभाने की चिंता है। जिन राज्यों में जाट समुदाय की बहुतायत है, वहां उनके वोट तकरीबन 100 लोकसभा सीटों पर फैसले को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। यही वजह है कि सरकार, जाट आरक्षण पर एनसीबीसी की सिफारिशों को दरकिनार कर आगे बढ़ी । इतना ही नहीं सरकार ने अदालत के उन सभी फैसलों को भुला कर यह फैसला लिया है, जिनमें पिछड़ेपन के आंकड़े जुटाए बिना आरक्षण देने की मनाही की गई है। शायद ही अदालत में सरकार का यह फैसला टिक पाए।
क्योंकि यह बात सच है कि संविधान ने, सरकार को सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ों के लिए विशेष उपबंध बनाने का हक दिया है । लेकिन इसकी पहली शर्त यह है कि लाभ पाने वाला समुदाय सामाजिक और आर्थिक रूप से आंकडों के साथ पिछड़ा हो,अन्यथा अदालत के सामने संविधान में दिए समानता के अधिकार को झुठलाना मुश्किल होगा। यह बात भी देखना जरूरी है कि सरकारी नौकरियों में उनका कितना प्रतिनिधित्व है? सिर्फ जाति और धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। जाहिर है इन सब मापदंडों से इतर आरक्षण की जो भी कोशिश होगी, उसे अदालत में चुनौती मिलना तय है।
कहीं सरकार के इस फैसले का हश्र भी अल्पसंख्यक आरक्षण जैसा न हो। अगर याद हो तो यूपीए सरकार ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में अल्पसंख्यक आरक्षण की घोषणा की थी, लेकिन वह फैसला आज तक अमल में नहीं आ पाया है। अल्पसंख्यक आरक्षण का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट की संविधानपीठ के समक्ष विचाराधीन है । उधर हैदराबाद के न्यायालय ने भी धर्म,जाति आधारित आरक्षण पर अपना कड़ा रूख अख्तियार कर चुका है।
अब जाटों के बारे में भी एक सच जानना जरूरी है कि वह अहं, तानाशाही, संकीर्णता से साराबोर होते हैं । जाटों ने पंजाब राज्य या दिल्ली जैसे मेट्रो सिटी पर अपना कब्जा कर लिया है । पंजाब में अधिकांश कृषि भूमि पर जाटों का नियंत्रण है और वे राज्य में हर जगह मौजूद हैं। वर्तमान समय में पंजाब की कुल आबादी में जाट 35 से 40 फ़ीसदी है और वे सबसे बड़े जाति आधारित समूह हैं। अगर दिल्ली के संदर्भ में बात करें तो वह दिल्ली के स्वयंभू मालिक बन बैठे हैं। जिस वजह से बाहर से आ रहे लोगों को दिल्ली में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। इस बात से सभी वाकिफ हैं कि दिल्ली की नींव रिफ्यूजी समाज पर टिकी है। ऐसे में सवाल उठता है कि इन्हें दिल्ली का मालिक बनने की अनुमति कौन देता है? और फिर जब इनमें मालिक बनने की हैसियत है तो फिर यह पिछड़े कहां हैं? पिछड़े या अति पिछड़े तो वो होते हैं जिन्हें मालिक नहीं बल्कि नौकर बनकर रहना पड़ता है। ऐसे में जाटों में शोषित होने या शोषित रहने जैसी कोई बात दिखती नहीं है। हां, इतना जरूर है कि इनमें बाहरी लोगों को शोषित करने की स्फुर्ति और हुनर जरूर दिखती है।
एक बात कि कुछ परिवारों की ग़रीबी किसी जाति को पिछड़ा नहीं बनाती। पिछड़ापन साबित करने के लिए कुछ निश्चित महत्वपूर्ण मानक होने चाहिए। अब इसका मतलब यह नहीं की अन्य किसी पिछड़ेपन की वजह से भी आरक्षण की मांग हो । उदाहरण के तौर पर हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खाप पंचायतों की निरंतर मौजूदगी पिछड़ेपन का महत्वपूर्ण सूचक है, तो इसमें आरक्षण की जरूरत है भी नहीं। यह तो बौद्धिक पिछड़ेपन, संकीर्ण मानसिकता, तानाशाही प्रवृत्ति का सूचक है दूसरी बात कि अब तक हमारे संविधान में इन सब चीजों को लेकर कोई आरक्षण का प्रावधान नहीं है। तो ऐसे में यह क्यों न मान लिया जाए कि मनमोहन सरकार द्वारा जाटों के आरक्षण की जो चाल चली गई है, उसकी बिसात में जाट फंस गए हैं।
 अगर इस जाति में आरक्षण देनी ही है तो जाट समुदाय के महिलाओं को दी जाए। क्योंकि इस जाति में महिलाओं का सच यह है कि शिक्षा, समाजिक सरोकार से दूर हैं। आज भी उनकी स्थिति दासी जैसी है, यानि यहां महिलाओं को जुते की नोंक पर रखा जाता है। तभी तो गोत्र विवाह,कन्या भू्ण हत्या, बलात्कार के नंगे तमाशे जाट बहुल इलाकों में ज्यादा पाए जाते हैं। यहां की महिलाएं शारीरिक रूप से कमजोर होने के बावजूद भी बाहरी काम काज को संभालती है। वहीं इस समुदाय के मर्दो का काम सिर्फ हुक्का गुड़गुड़ाना और ताश के पत्तों पर जवानी को दर्ज कराना होता है। बेशर्मी और अपराध की संकीर्णता भी इस समुदाय में प्रबल है। इसका मतलब यह नहीं कि इस जाति में सभी एक जैसे हैं, लेकिन अधिकांश सच यही है। इनकी समस्या यह है कि इनमें अपराध बोध और क्षमा बोध जैसी भावना नहीं है, खुद को आजाद पंछी समझते हैं।
बहरहाल, इस समुदाय की जरूरत यह है कि यह अपनी सोच और उम्मीद को जिंदा रखें और अपने दम और दंभ को थकने न दें,साथ ही इंसानियत को भी सींचे , तब शायद ही उन्हें किसी आरक्षण की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि इस समुदाय का दूसरा नाम पराक्रम और मेहनत है।         

















Wednesday 26 February 2014

आंचलिक साहित्य के सिरमौर थे फणीश्वर नाथ 'रेणु' - दीपक कुमार


  
       यह जरूरी नहीं कि कोई साहित्यकार जिस मिट्टी से जुड़ा है वह अपनी रचनाओं में भी उस मिट्टी की खुशबू को समाहित कर दे, यह भी जरूरी नहीं कि वह साहित्यकार अपनी रचनाओं में ग्रामीण परिवेश को इतनी खूबसूरती से प्रस्तुत करे कि पढ़ने वाला प्रत्येक पाठक खुद को उसी कल्पना लोक में महसूस करे। फिर भी इस लोक पर ऐसे भी साहित्यकार पैदा हुए हैं, जिन्होंने पाठकों का दिल अपनी रचनाओं के जीवंतता से जीता है, इनमें से एक हैं, फणीश्वर नाथ 'रेणु' । आंचलिक उपन्यासकार के तौर पर विख्यात हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार फणीश्वर नाथ 'रेणु' की रचनाओं में गहरी लयबद्धता है और इसमें प्रकृति की आवाज समाहित है। रेणु का 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना नामक गांव में जन्म हुआ था। रेणु के पिता कांग्रेसी थे, रेणु का बचपन आज़ादी की लड़ाई को देखते समझते बीता । स्वाधीनता संघर्ष की चेतना रेणु में उनके पारिवारिक वातावरण से आयी थी। रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गए थे। 1930-31 ई. में जब रेणु 'अररिया हाईस्कूल' के चौथे दर्जे में पढ़ते थे तभी महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी के बाद अररिया में हड़ताल हुई, स्कूल के सारे छात्र भी हड़ताल पर रहे । रेणु ने अपने स्कूल के असिस्टेंट हेडमास्टर को स्कूल में जाने से रोका । रेणु को इसकी सज़ा मिली लेकिन इसके साथ ही वे इलाके के बहादुर सुराजी के रूप में प्रसिद्ध हो गए ।
लेकिन रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत की । उस समय उनकी कुछ अपरिपक्व कहानियाँ प्रकाशित भी हुई थीं, लेकिन 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने 'बटबाबा' नामक पहली परिपक्व कहानी लिखी । 'बटबाबा' 'साप्ताहिक विश्वमित्र' के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी कहानी 'पहलवान की ढोलक' 11 दिसम्बर 1944 को 'साप्ताहिक विश्वमित्र' में छ्पी। 1972 में रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 'भित्तिचित्र की मयूरी' लिखी। उनकी अब तक उपलब्ध कहानियों की संख्या 63 है । 'रेणु' को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको उनकी कहानियों से भी मिली। 'ठुमरी', 'अगिनखोर', 'आदिम रात्रि की महक', 'एक श्रावणी दोपहरी की धूप', 'अच्छे आदमी', 'सम्पूर्ण कहानियां', आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। लेकिन प्रमुख रूप से रेणु जी एक आंचलिक उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध हुए।

अगर फणीश्वर नाथ रेणु को आंचलिक उपन्यासकार के तौर पर रेखांकित किया जाता है तो सिर्फ इसमें ही उनका व्यक्तित्व नहीं समाता । उनके लेखन में मानवीय रसप्रियता झलकती है जिसमें ग्राम्य भोलापन है । उनके लेखन से झलकता है कि वह सुधार के पक्षधर थे लेकिन इसके लिए वह नारे नहीं लगाते सिर्फ गांव के लोगों के मीठे झूठों को पकड़ते हैं।
एक बार बीबीसी के एक पत्रकार ने फणीश्वर नाथ 'रेणु'से पूछा कि आखिर आप अपनी रचनाओं में इतनी जीवंतता कैसे लाते हैं। तब उन्होंने अपने मनमोहक मुस्कान से जवाब दिया था,‘‘अपनी कहानियों में मैं अपने आप को ही ढूढ़ता फिरता हूँ। अपने को अर्थात आदमी को!। दरअसल, अपनी रचनाओं में उन्होंने बिहार के छोटे भूखंड़ की हथेली पर समूचे उतरी भारत के किसान की नियति-रेखा को उजागर किया । रेणु जी की रचनाओं की सबसे खास बात थी कि वह कविता की तरह लयात्मक होते थे, जिसमें देहाती माटी की महक समाहित है। वह आम जनों की भाषा में लिखने वाले साहित्यकार थे । रेणु जी की रचनाओं में महिलाएं बहुत ताकतवर होती थी। उनकी रचनाओं में जितना सीधा-सपाट पुरूष होता है स्त्री वैसी नहीं होती। वह छली होती है, वह बहुत सी तिकड़म को जानती है । रेणु ने अपनी कहानियों, उपन्यासों में ऐसे पात्रों को गढ़ा जिनमें एक दुर्दम्य जिजीविषा देखने को मिलती है, जो गरीबी, अभाव, भूखमरी, प्राकृतिक आपदाओं से जुझते हुए मरते भी है पर हार नहीं मानते। रेणु उपर से जितना सरल थे अंदर से उतने ही जटिल भी। रेणु की कहानियां नादों और स्वरों के माध्यम से नीरस भावभूमि में भी संगीत से झंकृत होती लगती है। रेणु अपनी कथा रचनाओं में एक साधारण मनुष्य, जो पार्टी, धर्म, झंड़ा रहित हो, की तलाश करते नजर आते है । उनका जीवन और समाज के प्रति उनका सरोकार प्रेमचंद की तरह ही है। इस दृष्टिकोण से रेणु प्रेमचंद के संपूरक कथाकार है। इसी वजह से प्रेमचंद के बाद रेणु को ही एक बड़ा पाठक वर्ग मिला।
रेणु की कथा-रचनाएं आंचलिक और राष्ट्रीय कही जाती रही है । रेणु की पहली कहानी बट बाबा बरगद के प्राचीन पेड़ के इर्द-गिर्द घूमती है, यह पेड़ पूज्य है गांववालों के लिए । एक पात्र निरधन साहू जो खूद कालाजार बीमारी से कंकाल हो गया है और उसे जानलेवा खांसी भी है जब सूनता है कि ‘‘बड़का बाबा सूख गइले का ? और गांव वाले जब उसे बताते है कि हां पेड़ सूख गया है तो निरधन साहू कहता है - अब ना बचब हो राम ! रेणु बताते है कि हिमालय और भारतवर्ष का जो संबंध है वही संबंध उस बरगद के पेड़ और गांव का था । सैकड़ों वर्षों से गांव की पहरेदारी करते हुए, यही है बटबाबा, पर यह क्या हुआ कि पूरे गांव को अपने स्नेह से लगातार सींचने वाला बट बृक्ष अचानक क्यों सूख गया?बहुत ही मार्मिक ढ़ंग से रेणु एक जीवंत चित्र गढ़ते है ।
रेणु का एक और कहानी पहलवान का ढोलक में पहलवान मर जाता है पर चित नहीं होता है अर्थात पराजित नहीं होता है, द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यानी आजादी के पहले लिखी गयी इन कहानियों में रेणु अपनी तीक्ष्ण नजरों से विश्वयुद्ध के काल का भयावह चित्र बनाने में सफल हुए है। इसी काल में बंगाल में पडे भीषण दुर्भिक्ष ने संपूर्ण भारत को हिला कर रख दिया था, यह भीषण दुर्भिक्ष इतिहास में दर्ज है परंतु रेणु जैसे साहित्यकार द्वारा गढ़ी गयी कहानी कलाकारका पात्र शरदेन्दु बनर्जी, जो एक चित्रकार था। जिसके पूरे परिवार को दुर्भिक्ष ने मार डाला। यही कलाकार दुर्भिक्ष पीडितों के सहायता के लिए पोस्टर बना कर जिंदा रहा, धन-दौलत की लालच से दूर यह कलाकार सौ प्रतिशत आदमी था। रेणु ने इस सौ फिसदी आदमी का चित्रण बहुत ही तन्मयता से किया है। रेणु की एक अन्य कहानी प्राणों में घुले हुए रंग बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योकि इस कहानी का मुख्य पात्र एक चिकित्सक है जिसे रेणु के कालजयी उपन्यास ‘‘मैला आंचल’’ में डाक्टर प्रशांत के रूप में देखा जा सकता हैन मिटने वाली भूख रेणु की मनोवैज्ञानिक कहानी है जिसकी मुख्य पात्र उषा देवी उपाध्याय उर्फ दीदी जी एक विधवा है जिसका संयम अंत में टूट जाता है। इस कहानी में बंगाल के अकाल की शिकार एक पागल भिखरिन मृणाल नामक पात्र है जिसका शहर के काम-पिपासुओं द्वारा बलात्कार किया जाता है जिसके फलस्वरूप वो गर्भवति हो जाती है और उसकी गोद में एक बच्चा आ जाता है । रेणु ने इस कहानी के माध्यम से काम-पिपासा को न मिटने वाली भूख कहा है और मनुष्य इतना अमानवीय और राक्षसी प्रवृति का हो सकता है, इसकी ओर भी बहुत ही सटीक ढ़ंग से संकेत किया है । रेणु की एक कहानी अगिनखोरएक साहित्यकार के कुकृत्य को इस अंदाज में लिखा है कि पढ़ते बनता है. कहानी की एक पात्र आभा का सूर्यनाथ द्वारा गर्भवति करना और फिर बाद में आभा का पुत्र एक ऐसा पात्र है जो अपने नाजायज होने का बदला साहित्यिक ढ़ंग से अपने पिता की हंसी उड़ाते हुए लेता है। वह पात्र अपना कवि नाम आइक्-स्ला्-शिवलिंगाबताता है और आइक्-स्लाको तकियाकलाम की तरह पूरी कहानी में इस्तेमाल करता है, पूछे जाने पर कि आइक्-स्ला शब्द का क्या अर्थ है बड़े ही निराले अंदाज में कहता है ‘‘ यह मेरे व्यक्तिगत शब्द-भंडार का शब्द है, जिसका अर्थ कुछ भी हो सकता है.’’ साहित्यकारों की कथनी और करनी में अंतर का सटीक नमूना रेणु के कहानी अगिनखोरमें देख जा सकता है जब इस कहानी का पात्र कहता है ‘‘मैंने कवि कर्म छोड़कर फिलहाल, अपनी रोटी के लिए कामेडियन का काम शुरू किया है.’’यह दिलचस्प बात है कि बॉलीवुड के मशहुर गीतकार शैलेंद्र को फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'मारे गए गुलफाम' इतनी अच्छी लगी की उन्होंने  इस पर राजकपूर और वहीदा रहमान को लेकर फिल्म 'तीसरी कसम' बना डाली।
रेणु ने अपनी कहानी रखवालामें तो एक नेपाली गांव की ऐसी कहानी लिखी है कि इस कहानी में बहुत सारे संवाद नेपाली भाषा में है। रेणु ने एक अन्य कहानी नेपाल के पृष्ठभूमि में नेपाली क्रांतिकथाके नाम से लिखा, जो रेणु को हिन्दी का एकमात्र नेपाल प्रमी कहानीकार के रूप मे प्रतिष्ठित करता है। पार्टी का भूत नामक कहानी में रेणु अपनी अवस्था का बयान करते हुए कहते है कि उनको जो हुआ है वो तो रांची का टिकट कटाने वाला रोग है। वस्तुत पार्टी का भूत राजनीति पर लिखी गयी राजनीति विरोध की कहानी है। एक अन्य अत्यंत मानवीय कहानी 1946 ई. में रेणु ने रसूल मिस्त्री लिखी । इस कहानी का मुख्य पात्र एक ऐसा व्यक्ति है जो दूसरे के लिए जीता है। इस कहानी में प्रसिद्ध रोमन कथाकार दांते की डिवाइन कामेडी की याद आती है जब रसूल मिस्त्री कहता है कि दोजख-बहिश्त, स्वर्ग-नरक सब यहीं है। अच्छे और बुरे का नतीजा तो यहीं मिल जाता है। रसूल मिस्त्री के दूकान के साइनबोर्ड पर किसी ने लिख दिया है, ‘यहां आदमी की भी मरम्मत होती है.जब सन् 1946 ई. में रेणु बीमार पड़े तो उन्होंने बीमारों की दुनिया मेंनाम से एक कहानी लिखी। रेणु की कहानी आज भी उतनी ही प्रसांगिक है जितनी जब लिखी गयी थी तब थी। बीमार की दुनिया में का एक पात्र है वीरेन जो और कोई नहीं खूद रेणु है और वीरेन अपने मित्र अजीत से जो कहता है वो आज के भारत की कहानी लगती है। वीरेन कहता है कि ‘‘ मैंने जिंदगी को आपके जेम्स जॉयस से अधिक पहचाना है। हमारी जिंदगी हिन्दुस्तान की जिंदगी है। हिन्दुस्तान से मेरा मतलब है असंख्य गरीब मजदूर, किसानों के हिन्दुस्तान से। हम अपनी मिट्टी को पहचानते है, हम अपने लोगों को जानते है। हमने तिल-तिल जलाकर जीवन को, जीवन की समस्याओं को सुलझाने की चेष्टा की है। ’’ 1947 ई. में रेणु ने इतिहास, मजहब और आदमीनामक कहानी लिखी जिसमें देश का विभाजन, साम्प्रदायिक दंगे, भूखा और बीमार देश की गहरी पीड़ा है। जनवरी 1948 ई. में प्रकाशित रेखाएं-वृतचक्रनामक कहानी में स्वतंत्रता, बंटवारा तथा अन्य राजनीतिक घटनाओं का सूक्ष्म वर्णन है परंतु इस कहानी में एक घायल सैनिक के माध्यम से रेणु ने एक फैंटेसी के शिल्प का भी प्रयोग किया है। इसी वर्ष एक अन्य कहानी खंडहरआयी जिसमें रेणु लिखते है कि चारों ओर शांति है, स्वराज मिल गया फिर भी एक तनाव है।  इस कहानी में रेणु आधुनिक समाज की विशृंखलता की पड़ताल करते हुए भी आशावान दिखते है. इस कहानी में रेणु अपने समकालीन गजानन माधव मुक्तिबोध की तरह मन से लहूलूहान है।
स्वतंत्रता के बाद रेणु पूर्णिया से नई दिशानामक एक सप्ताहिक पत्रिका का संपादन-प्रकाशन करते थे। सन् 1949 ई. में नई दिशाका शहीद विशेषांकनिकाला जिसमें उनकी धर्मक्षेत्रे-कुरूक्षेत्रेनामक कहानी प्रकाशित हुयी थी जो कथा और शिल्प में उनकी अन्य कहानियों से भिन्न थी। लतिका राय चौधरी से विवाह उपरांत 1952 ई. में रेणु ने अपनी कालजयी रचना ‘‘मैला आंचल’’ लिखी। 1953 ई. में उनकी दो कहानियां बंडरफूल स्टुडियोऔर टोन्टी नैनप्रकाशित हुयी थी।
मैला आंचल के प्रकाशन से पहले रेणु की कहानियों के फेहरिस्त का अंतिम कहानी दिल बहादुर दाज्युहै जो एक गोरखा नौजवान पर लिखी शब्द-चित्रात्मक कहानी है.रेणु की हर कहानी में नये शिल्प का प्रयोग इनकी विशेषता है। रेणु एक ढर्रे पर कहानी लिखना पंसद नही करते थे। रेणु के उपन्यासों यथा मैला आंचल, जुलूस, परती परिकथा, ऋणजाल-धनजाल, नेपाली क्रांतिकथा, पल्टूबाबू रोड अलग-अलग भाषा-शैली और शिल्प में गढ़ी गयी कृतियां है।
कथा-साहित्य के अतिरिक्त संस्मरण, रेखाचित्र, और रिपोर्ताज आदि विधाओं में लेखन के अलावा फणीश्वर नाथ रेणु का राजनीतिक आंदोलन से गहरा जुड़ाव रहा था। जीवन के संध्याकाल में वह जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल हुए, पुलिस दमन के शिकार हुए और जेल गये। 11 अप्रैल 1977 को फणीश्वर नाथ रेणु का देहावसान हो गया।

लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।

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Saturday 22 February 2014

मेरे देश की संसद मौन है! — दीपक कुमार

एक आदमी,रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है।
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं-
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है ।
धूमिल ने जब यह कविता लिखी होगी तब शायद उन्हें 15 वीं लोकसभा के अंतिम सत्र में एक सांसद द्वारा सदन में छिड़के गए पेपर स्प्रे का ना तो मतलब पता होगा और न ही इसके उपयोग का तरीका । क्योंकि उस दौर में न तो वैश्वीकरण का मायाजाल था और न ही आधुनिकता की परिकाष्टा थी। दरअसल, वह दौर समाजवादी सोच का भारत था, जहां रह रहकर अत्यंत आध्यात्मिक तौर पर समझाया जाता था कि प्रजा ही राजा है, वही असली मालिक है और संसद में बैठे नुमांइदे उनके नौकर हैं । जनता जैसे आदेश देगी वैसा ही होगा और उस दौर में नेताओं ने भी इस सच को स्वीकारा था। तभी तो एक बार जनरल डिब्बे में यात्रा कर रहे देश के सम्मानित व्यक्ति और समाजवादी सोच के संसद सदस्य डा. राममनोहर लोहिया ने रतलाम स्टेशन पर पीने वाले पानी के लिए ट्रेन की चैनपुलिंग कर दी थी। तब भी कार्यकर्ता थें, लेकिन आज की तरह नहीं । लोहिया ने उन कार्यकर्ताओं से कहा कि नेहरू को फोन लगाया जाए,उनसे यह कहा जाए कि जनरल बोगी में सफर करने वाले एक आम आदमी को अपने दिए हुए टैक्स के पैसे से पानी पीना है । तब तत्कालिन प्रधानमंत्री नेहरू ने बाकायदा माफी भी मांगी थी और तब के रेलमंत्री जॉन मथाई को देश के तमाम ट्रेनों और रेलवे स्टेशनों पर पानी की पर्याप्त व्यवस्था करने का तुरंत आदेश दिया था।
उस दौर में चुनावी प्रक्रिया के अर्थ भी अलग होते थे। उस दौर में भी विपक्ष होता था लेकिन आज की तरह नहीं । उस दौर का विपक्ष उंगलियों पर गिन लिया जाता था, बावजूद इसके सत्ता पक्ष का सम्मानित होता था। इतना ही नहीं वह संक्षिप्त विपक्ष समय समय पर सत्ता के जनविरोधी कदमों का विरोध भी करता था, लेकिन आज की तरह नहीं । तभी तो नेहरू ने जब विपक्ष में बैठे उस दौर के कांग्रेसी नेता राममनोहर लोहिया से अनुरोध किया कि आप भी सत्ता पक्ष के साथ आ जाईए, तब लोहिया ने कहा कि हम जब आपके साथ आ जाएंगे तब इस देश का भला कौन करेगा । मतलब यह कि सिर्फ सत्ता पक्ष ही रहेगा तब वह तानाशाह बन जाएगा। चलिए हम आपके उंट होंगे और आप हमारे हाथी। उस वक्त बात को नेहरू जी ने मजाकिया अंदाज में जरूर लिया लेकिन बाद में उन्ही ने लोहिया के इस कदम को एतिहासिक बताया था। यानि की सत्ता और विपक्ष में एक बेहद सहयोग से भरा माहौल होता था। बावजूद इसके धूमिल ने अपनी कविता में लोकतंत्र की जो रेखाचित्र खींच डाली उसमें सत्ता और जनता के बीच साफ तौर पर एक दूरी दिखाई दे रही थी। यह धूमिल की खासियत ही थी जो उन्हें लोकतंत्र के उस शुरुआती दौर में भी रोटी बनाने और उससे खेलने वाले में जमीन आसमान का अंतर दिखाई देता था, यह उनकी दृष्टि थी, जो छल को परत दर परत देख पाती थी।

लेकिन ऐसा नहीं है कि संसदीय मर्यादाओं और सहयोग की भावनाएं उसी दौर में होती थी। कभीकभी लगता है कि वह दौर आज भी जिंदा है, तभी तो 15 वीं लोकसभा का अंत जिस भावनाओं और प्यार के साथ हुआ उसने पिछले लोकसभा के सारे गिलेशिकवे को एक ही झटके में खत्म कर दिया । संसद में मौजूद लगभग हर राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि ने एक दूसरे को जिस अंदाज में अगले लोकसभा सत्र में मौजूद रहने की शुभकामनाएं दी उससे एक समय के लिए लगा की जी नहीं.. अभी संसद जिंदा है, यहां मौजूद जनप्रतिनिधि के दिल में प्यार जज्बात जैसे शब्द जिंदा हैं । सबने किसी न किसी रूप में अपनी भावनाएं जाहिर की लेकिन इन सब के केंद्र में संसद के बुजूर्ग सदस्य लालकृष्ण आडवानी रहें  तो बाद में आडवानी ने भी अपनी आसुंओं और शुक्रिया को संसद के पटल पर रख दिया । एक बार के लिए ऐसा लगा की हमारे संसद सदस्यों में कमाल की भावनाएं हैं। कोई चुटकी भी लेता है तो उसमें भी उसकी संवेदनाएं झलकती हैं और झलके भी क्यों न? क्योंकि 15 वीं लोकसभा का आखिरी सत्र जो था, या यूं कहें आखिरी दिन भी था। न जाने कौन आए 16 वीं लोकसभा में, इसलिए बहने दो आंसुओं को, कहने दो जमाने को..सहने दो सितम को.. जैसे जुमले याद आने लगें।
अब अगर बात की जाए अतीत यानि 15 वीं लोकसभा की, तो 15 वीं लोकसभा का आख़िरी सत्र बेहद हंगामेदार साबित हुआ। इस लोकसभा के आख़िरी सत्र में मिर्च के स्प्रे, सदस्यों के निलंबन और लगातार शोर-गुल ने संसदीय कर्म में गिरावट का जो परिचय दिया, उसे देर तक याद रखा जाएगा। वहीं अंतरिम रेल बजट पेश करते वक्त रेल मंत्री का भाषण सदन के पटल पर रखकर काम चलाया गया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, जब केंद्रीय मंत्री अपनी सरकार का विरोध व्यक्त करते हुए 'वेल' में उतरे हों। आम बजट और रेल बजट बगैर चर्चा के पास हो गए। इस सत्र में लोकसभा के सीधे प्रसारण को रोककर तेलंगाना विधेयक को पारित किए जाने को आपातकाल से जोड़कर देखा गया । इस फ़ैसले को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी अपने विदाई भाषण में काफी मुश्किल भरा बताया। बतौर प्रधानमंत्री वे सदन में आख़िरी बार नज़र आए थे, इसलिए उन्होंने संसद के सभी सदस्यों का शुक्रिया भी अदा किया।
लेकिन अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के शासनकाल में आर्थिक उदारीकरण से जुड़े अनेक विधेयकों को पास नहीं किया जा सका। जीएसटी और डायरेक्ट कोड जैसे काम अधूरे रह गए । बांग्लादेश के साथ सीमा को लेकर समझौता नहीं हो पाया। लोकसभा में पड़े सत्तर के आसपास बिल लैप्स हो गए । इतनी बड़ी संख्या में बिल पहले कभी लैप्स नहीं हुए । सन 2010 के लोकसभा का छठा सत्र लगभग पूरी तरह 2जी 'घोटाले' को लेकर संयुक्त संसदीय समिति बनाने की माँग के कारण ठप रहा । हद तो तब हुई जब फरवरी 2012 में तत्कालीन रेल मंत्री व तृणमूल कांग्रेस के सांसद दिनेश त्रिवेदी ने रेल बजट पेश किया, जिसमें किराया-भाड़ा बढ़ाने का प्रस्ताव था। तृणमूल कांग्रेस की प्रधान ममता बनर्जी ने न सिर्फ उस घोषणा की निंदा की, बल्कि रेल मंत्री को पद से हटाने का फैसला भी सुना दिया। ऐसा पहली बार हुआ जब रेल बजट एक मंत्री ने पेश किया और उसे पास करते वक्त दूसरे मंत्री थे। संसदीय राजनीति के लिए ऐसी घटनाएं अटपटी थीं ।
हालांकि दूसरी ओर इस लोकसभा के कार्यकाल के दौरान सरकार ने कई अहम विधेयकों को पारित भी किया। जिसमें 'लोकपाल बिल' का जिक्र होना जरूरी है। अगर थोड़ा पिछे चले जाएं तो 2009 में जब 15वीं लोकसभा आई तो सरकार ने आते ही शिक्षा का अधिकार क़ानून पास करा दिया था। फिर महिलाओं के आरक्षण बिल को 2010 में राज्यसभा में पास करा लिया गया। लेकिन उसी दौरान 2 जी स्कैम,कॉमनवेल्थ गेम्स में हुई घोटालेबाजी ने 2010 के शीतकालीन सत्र से संसद के कामकाज में ठहराव लानी शुरू कर दिया। बावजूद इसके 2013 में खाद्य सुरक्षा विधेयक, भूमि अधिग्रहण बिल, और दिसंबर आते-आते लोकपाल विधेयक भी पास हो गया।
यह बात अलग है कि इन विधेयकों को पास कराने के दौरान उन पर कभी राजनीतिक सहमति नहीं बन पाई । मसलन, जब महिला आरक्षण बिल पास हो रहा था तो समाजवादी पार्टी के 7-8 सांसदों को सस्पेंड करना पड़ा, तब जाकर बिल पास हो पाया था। उसी तरह तेलंगाना बिल पास कराने के लिए लोकसभा और राज्यसभा से सांसदों को सस्पेंड करना पड़ा। सदन में चर्चा कम और हंगामा ज़्यादा हुआ, कभी कोई दल संसद को वॉक आउट करता तो कभी कोई । यानि की संसद अब मौन नहीं था, और न ही मौन होना चाहता था, उसे तो बस अपनी जिद मनवानी थी।
लेकिन संसद की गरिमा को बचाने के लिए यह जरूरी है कि आपस में राजनीतिक समझ बनाई जाए। एक बात यह भी है कि संसद सदस्यों की गरिमा कम हुई है , इसके लिए संसद सदस्य ही जिम्मेवार हैं । अब लोगों के अंदर संसद के प्रति यह इमेज बन चुकी है कि यहां सिर्फ तू-तू, मैं-मैं ही होती है । उपराष्ट्रपति जी ने दुखी होकर एक सत्र में कहा भी था कि हम लोगों के बीच क्या इमेज दे रहे हैं। हालांकि कई लोग मानते हैं कि संसद के कार्यवाही को जब मीडिया ने फोकस करना शुरू किया तभी से हंगामें बढ़े हैं शायद यह भी कारण हो सकता है लेकिन एक सच यह भी है कि आज कोई सदस्य कोई विषय उठाना चाहते हैं और उन्हें मौका नहीं मिलता तो वे सदन की कार्यवाही में रूकावट डाल कर अपनी बात कहना चाहते हैं। दूसरी बात यह भी है कि राजनीतिक कारणों से सदन में रुकावट डालना स्क्रिप्टेड होने लगा है । यानि संसद में हंगामें तय हैं, तो मौन का कोई सवाल ही नहीं है, और जब हंगामें होंगे तो जनता से जुड़े सवालों का क्या होगा? यह भी सोच कर डरावना लगता है।
ऐसे में धूमिल की यह कविता कहीं न कहीं सार्थक भी है। क्योंकि इसी लोकसभा में भ्रष्टाचार के मुददे पर जिस तरीके से अन्नारामदेव के आंदोलन के जरिए जनता सड़क पर उतरी उससे देश के भविष्य और लोकतंत्र को कठघरे में खड़ा कर दिया है। यानि जन का जो तंत्र है वह अब जन का नहीं रह गया है। ऐसे में यहां अब जनजनार्दन केवल रोटी बेलता है, खाते तो देश के हंगामेंदार संसद के जनप्रतिनिधि ही हैं। बहरहाल, लोकसभा के अगले सत्र में कुछ नए चेहरे भी होंगें और कुछ पूराने भी, सब्र कीजिए वो क्या करते हैं।
 लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।
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Friday 21 February 2014

जन्मदिवस विशेष सूर्यकांत त्रिपाठी निराला: कभी न होगा मेरा अंत — दीपक कुमार


21 फरवरी का दिन बहुत ही खास होता है। क्योंकि लगभग 118 साल पहले आज ही के दिन हिंदी साहित्य जगत के एक नए प्रयोगधर्मी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म हुआ था। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, साहित्य की दुनिया का एक ऐसा नाम है जिसने अपने साहित्यिक रचनाओं से हिंदी जगत को या काव्य जगत को ही एक नया आयाम दिया । अक्सर उनका जन्मदिवस वसंत-पंचमी को मनाया जाता है, क्योंकि वसंत-पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा होती है और निराला सरस्वती के वरद पुत्र थे, तो लोगों ने मान लिया है कि किसी और दिन उनका जन्म हो ही नहीं सकता था । उनका जन्म इसी दिन हो सकता है। इससे पवित्र दिन और कोई हो नहीं सकता है। शायद यही वजह है कि खड़ी-बोली हिंदी में सरस्वती पर जितनी कविताएँ निराला ने लिखी हैं अब तक किसी और कवि ने नहीं लिखी।  
निराला जी एक कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार और कहानीकार थे। उन्होंने कई रेखाचित्र भी बनाये। उनका व्यक्तित्व अतिशय विद्रोही और क्रान्तिकारी तत्त्वों से निर्मित हुआ है। उसके कारण वे एक ओर जहाँ अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तनों के सृष्टा हुए, वहाँ दूसरी ओर परम्पराभ्यासी हिन्दी काव्य प्रेमियों द्वारा अरसे तक सबसे अधिक ग़लत भी समझे गये। उनके विविध प्रयोगों- छन्द, भाषा, शैली, भावसम्बन्धी नव्यतर दृष्टियों ने नवीन काव्य को दिशा देने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसलिए घिसी-पिटी परम्पराओं को छोड़कर नवीन शैली के विधायक कवि का पुरातनतापोषक पीढ़ी द्वारा स्वागत का न होना स्वाभाविक था। लेकिन प्रतिभा का प्रकाश उपेक्षा और अज्ञान के कुहासे से बहुत देर तक आच्छन्न नहीं रह सकता।
निराला: एक परिचय
'निराला' का जन्म महिषादल स्टेट मेदनीपुर (बंगाल) में था। इनका अपना घर उन्नाव ज़िले के गढ़ाकोला गाँव में है।'निराला' के पिता का नाम पं. रामसहाय था, जो बंगाल के महिषादल राज्य के मेदिनीपुर ज़िले में एक सरकारी नौकरी करते थे। निराला का बचपन बंगाल के इस क्षेत्र में बीता जिसका उनके मन पर बहुत गहरा प्रभाव रहा है। तीन वर्ष की अवस्था में उनकी माँ की मृत्यु हो गयी और उनके पिता ने उनकी देखरेख का भार अपने ऊपर ले लिया। निराला की शिक्षा यहीं बंगाली माध्यम से शुरू हुई। हाईस्कूल पास करने के पश्चात उन्होंने घर पर ही संस्कृत और अंग्रेज़ी साहित्य का अध्ययन किया। प्रारम्भ से ही रामचरितमानस उन्हें बहुत प्रिय था। वे हिन्दी, बंगला, अंग्रेज़ी और संस्कृत भाषा में निपुण थे, संगीत में उनकी विशेष रुचि थी। पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में निराला का विवाह मनोहरा देवी से हो गया। रायबरेली ज़िले में डलमऊ के पं. रामदयाल की पुत्री मनोहरा देवी सुन्दर और शिक्षित थीं, उनको संगीत का अभ्यास भी था। पत्नी के ज़ोर देने पर ही उन्होंने हिन्दी सीखी। इसके बाद अतिशीघ्र ही उन्होंने हिन्दी में कविता लिखना शुरू कर दिया। बचपन के नैराश्य और एकाकी जीवन के पश्चात उन्होंने कुछ वर्ष अपनी पत्नी के साथ सुख से बिताये, किन्तु यह सुख ज़्यादा दिनों तक नहीं टिका और उनकी पत्नी की मृत्यु उनकी 20 वर्ष की अवस्था में ही हो गयी। बाद में उनकी पुत्री जो कि विधवा थी, की भी मृत्यु हो गयी। वे आर्थिक विषमताओं से भी घिरे रहे। ऐसे समय में उन्होंने विभिन्न प्रकाशकों के साथ प्रूफ रीडर के रूप मॆं काम किया, इन्होंने 1922 से 23 के दौरान कोलकाता से प्रकाशित 'समन्वय' का संपादन किया। 1923 के अगस्त से 'मतवाला' के संपादक मंडल में काम किय, इनके इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय और वहाँ से निकलने वाली मासिक पत्रिका 'सुधा' से 1935 के मध्य तक संबद्ध रहे। इन्होंने 1942 से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य भी किया। वे जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।

लेकिन तमाम खुशियों, गमों के तुफान में भी उन्होंने मां सरस्वती के दामन को कभी नहीं छोड़ा और शायद मां सरस्वती ने भी इसी वजह से उनपर हमेशा कृपा बनाए रखी। निराला ने मां सरस्वती को अनेक अनुपम एवं अभूतपूर्व चित्रों में उकेरा है। उन्होंने सरस्वती के मुखमंडल को करुणा के आँसुओं से धुला कहा है । यह सरस्वती का नया रूप है। जिस तरह तुलसी ने अन्नपूर्णा को राजमहलों से निकालकर भूखे-कंगालों के बीच स्थापित किया उसी तरह निराला ने सरस्वती को मंदिरों, पूजा-पाठ के कर्मकांड से बाहर लाकर खेतों-खलिहानों में श्रमजीवी किसानों के सुख-दुख भरे जीवन क्षेत्र में स्थापित किया । निराला का कवि-जीवन प्रकट करता है कि सफलता और सार्थकता समानार्थक नहीं हैं । विषम-समाज में सफल व्यक्ति प्रायः सार्थक नहीं होते। सफलता निजी जीवन तक सीमित होती है। 
कवि सरस्वती की साधना करके शब्दों को अर्थ प्रदान करता है। उन्हें सार्थक बनाता है। वस्तुतः शब्द ही कवि की सबसे बड़ी संपत्ति हैं और उसी संपत्ति पर कवि को सबसे अधिक भरोसा होता है। तुलसी ने लिखा था -'कबिहिं अरथ आखर बल साँचा' कवि को अर्थ और अक्षर का ही सच्चा बल होता है। लेकिन शब्दार्थ पर यह विश्वास कवि को कदम-कदम पर जोखिम में डालता है। सफल साहित्यकार इस जोखिम में नहीं पड़ते। वे शब्दों की अर्थवत्ता का मूल्य नहीं चुकाते। सरस्वती के साधक पुत्र यह जोखिम उठाते हैं और शब्दों के अर्थ का मूल्य चुकाते हैं। और वही उनकी शब्द-साधना को मूल्यवान बनाता है। निराला का जीवन मानो इस परीक्षा की अनवरत यात्रा है। उसमें से अनेक से हिंदी समाज परिचित है और अनेक से अभी परिचित होना बाकी है। एक उदाहरण मार्मिक तो है ही, मनोरंजक भी है।
कहते हैं, एक वृद्धा ने घनघोर जाड़े के दिनों में निराला को बेटा कह दिया। वृद्धाएँ प्रायः युवकों को बेटा या बच्चा कहकर संबोधित करती हैं। वह वृद्धा तो निराला को बेटा कहकर चुप हो गई लेकिन कवि निराला के लिए बेटा एक अर्थवान शब्द था। वे इस संबोधन से बेचैन हो उठे। अगर वे इस बुढ़िया के बेटा हैं तो क्या उन्हें इस वृद्धा को अर्थात्‌ अपनी माँ को इस तरह सर्दी में ठिठुरते छोड़ देना चाहिए। संयोग से उन्हीं दिनों निराला ने अपने लिए एक अच्छी रजाई बनवाई थी। उन्होंने वह रजाई उस वृद्धा को दे दी। यह एक साधारण उदाहरण है कि शब्दों को महत्व देने वाला कवि शब्दार्थ की साधना जीवन में कैसे करता है।  
यह साधना केवल शब्द पर ही विश्वास नहीं पैदा करती है, वह आत्मविश्वास भी जगाती है। जिन दिनों निराला इलाहाबाद में थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के यशस्वी वाइस चांसलर अमरनाथ झा भी वहीं थे। शिक्षा, संस्कृति और प्रशासकीय सेवाओं के क्षेत्र में अमरनाथ झा का डंका बजता था। उनका दरबार संस्कृतिकर्मियों से भरा रहता था। अमरनाथ झा ने निराला को पत्र लिखकर अपने घर पर काव्य पाठ के लिए निमंत्रित किया। पत्र अंग्रेजी में था। निराला ने उस पत्र का उत्तर अपनी अंग्रेजी में देते हुए लिखा - आई एम रिच ऑफ माई पुअर इंग्लिश, आई वाज ऑनर्ड बाई योर इनविटेशन टू रिसाइट माई पोयम्स एट योर हाउस। हाउ एवर मोर आनर्ड आई विल फील इफ यू कम टू माई हाउस टू लिसिन टू माई पोयम्स।" (मैं गरीब अंग्रेजी का धनिक हूँ। आपने मुझे अपने घर आकर कविता सुनाने का निमंत्रण दिया मैं गौरवान्वित हुआ। लेकिन मैं और अधिक गौरव का अनुभव करूँगा यदि आप मेरे घर आकर मेरी कविता सुनें)।
निराला तो कहीं भी, किसी को भी कविता सुना सकते थे लेकिन वे वाइस चांसलर और अपने घर पर दरबार लगाने वाले साहित्य संरक्षक के यहाँ जाकर अपनी कविताएँ नहीं सुनाते थे। यह शब्दार्थ का सम्मान, सरस्वती की साधना का सच्चा रूप था।  
कहते हैं, एक बार ओरछा नरेश से अपना परिचय देते हुए निराला ने कहा,'हम वो हैं जिनके बाप-दादों की पालकी आपके बाप-दादा उठाते थे।' यह कवि की अपनी नहीं बल्कि कवियों की परंपरा की हेकड़ी थी और निराला उस पारंपरिक घटना स्मृति का संकेत कर रहे थे, जब सम्मानित करने के लिए छत्रसाल ने भूषण की पालकी स्वयं उठा ली थी।
लेकिन निराला की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी भाषा में भी कविताएँ गढ़ लेते थे। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम का ज़ज़्बा तो कहीं सामाजिक रूढ़ियों का विरोध व कहीं प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। इलाहाबाद में पत्थर तोड़ती महिला पर लिखी उनकी कविता आज भी सामाजिक यथार्थ का एक आईना है। उनका ज़ोर वक्तव्य पर नहीं वरन चित्रण पर था, सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती महिला का रेखाँकन उनकी काव्य चेतना की सर्वोच्चता को दर्शाता है।
निराला जैसे कवि के व्यक्तित्व को हम आज के परिदृश्य में कैसे देखें। पहली बात तो मन में यही आती है कि राजनीतिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद कितनी तेजी से हम सांस्कृतिक दृष्टि से पराधीन हो गए हैं। यह ऐतिहासिक विडंबना अब अबूझ नहीं रह गई है। साफ दिखलाई पड़ रही है। एक ओर देश के प्रायः सभी सांस्कृतिक मंचों पर अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवादी अपसंस्कृति का कब्जा बढ़ता जा रहा है और उससे भी यातनाप्रद स्थिति यह है कि हम उससे उबरने का कोई उद्योग नहीं कर रहे हैं। बाहरी तौर पर देखने से स्थिति बड़ी चमत्कारी और सुखद लगती है।
सब मिलाकर 'निराला' भारतीय संस्कृति के द्रष्टा कवि हैं-वे गलित रुढ़ियों के विरोधी तथा संस्कृति के युगानुरूप पक्षों के उदघाटक और पोषक रहे हैं। पर काव्य तथा जीवन में निरन्तर रुढ़ियों का मूलोच्छेद करते हुए इन्हें अनेक संघर्षों का सामना करना पड़ा। मध्यम श्रेणी में उत्पन्न होकर परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से मोर्चा लेता हुआ आदर्श के लिए सब कुछ उत्सर्ग करने वाला महापुरुष जिस मानसिक स्थिति को पहुँचा, उसे बहुत से लोग व्यक्तित्व की अपूर्णता कहते हैं। पर जहाँ व्यक्ति के आदर्शों और सामाजिक हीनताओं में निरन्तर संघर्ष हो, वहाँ व्यक्ति का ऐसी स्थिति में पड़ना स्वाभाविक ही है। हिन्दी की ओर से 'निराला' को यह बलि देनी पड़ी। जागृत और उन्नतिशील साहित्य में ही ऐसी बलियाँ सम्भव हुआ करती हैं-प्रतिगामी और उद्देश्यहीन साहित्य में नहीं।
लेखक हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े हैं।